अंतः शुद्धि कैसे करें | Swami Satyamitranand Ji Maharaj | Adhyatam Ramayan | Pravachan

संयोग-वियोग और मानवता की पहचान

स्वामी सत्यमित्रानंद गिरी जी महाराज अपने इस गूढ़ और भावप्रवण प्रवचन में मानव जीवन की सार्थकता, विवेक, मोह और साधना के विविध पक्षों को अत्यंत सुंदर ढंग से प्रस्तुत करते हैं। वे कहते हैं कि संगीत और सराहना तभी संभव हैं जब जीवन में संयोग और वियोग दोनों हों। वियोग के क्षणों में जो पीड़ा होती है, वही मानवता का प्रमाण है। यदि किसी व्यक्ति पर कोई विपत्ति आती है और हमारे भीतर उसकी पीड़ा को लेकर कोई संवेदना नहीं जागती, तो समझ लेना चाहिए कि हमारी मानवता धीरे-धीरे समाप्त हो रही है। लेकिन इसके विपरीत, यदि हम पूरी तरह उस व्यक्ति की पीड़ा में डूब जाते हैं और विवेक खो बैठते हैं, तो वह भी उचित नहीं है। सहायता करनी चाहिए, परन्तु मोह में बहकर विवेक खो देना, यह भी आत्मिक दृष्टि से दोष है। यही जीवन की असली परीक्षा है—मानवता तो जागे, परंतु मोह न जागे।

खिचड़ी का प्रतीक और आत्मचिंतन

वे एक अत्यंत सरल परंतु प्रतीकात्मक उदाहरण देते हैं—जब वे कभी खिचड़ी बनाते हैं, तो उसमें मूंग दाल के छिलके ऊपर आ जाते हैं। वे उन छिलकों को निकालते जाते हैं। यह प्रक्रिया दो-तीन बार होती है, फिर अंत में केवल झाग रह जाते हैं। यह उदाहरण वे आत्मचिंतन के संदर्भ में देते हैं कि जैसे खिचड़ी के छिलकों को निकाल कर स्वादिष्ट भोजन तैयार किया जाता है, वैसे ही जीवन में जब भी मोह आए, तो विवेक की चमची से उसे हटाते रहना चाहिए। तभी जीवन में सच्चा स्वाद आता है, और यदि उसमें भक्ति का घी मिला दिया जाए, तो जीवन और भी मधुर हो जाता है।

केवल सांस लेना जीवन नहीं है

स्वामी जी इस बात पर बल देते हैं कि क्या केवल भोजन करना और सांस लेना ही जीवन है? वेदव्यास जी के एक श्लोक का उल्लेख करते हुए कहते हैं—“भस्रा किं न श्वसन्त्यपि?” अर्थात लोहार की धौंकनी भी सांस लेती है। “किं खादन्ति न मेहन्ति?” यानी ग्राम के पशु भी खाते और शरीर की क्रियाएं करते हैं। यदि हम केवल भोग-विलास और देह की जरूरतों को ही जीवन मान लें, तो मनुष्य और पशु में कोई अंतर नहीं रह जाता। मनुष्य जीवन का उद्देश्य केवल जीना नहीं है, बल्कि जागना है—विवेक से, करुणा से, त्याग से और आत्मिक उत्थान से।
मोह जीवन को जकड़ता है, जबकि विवेक हमें उन्नति की ओर ले जाता है। इसलिए आवश्यक है कि मोह पर बार-बार विवेक से प्रहार किया जाए। अपने हर कर्म और भावना के पीछे यह स्पष्ट दृष्टि होनी चाहिए कि हम कर्तव्य का पालन कर रहे हैं या केवल मोहवश बह रहे हैं। यह अंतर समझना ही साधना का मूल है।

जीवन का वास्तविक उद्देश्य

स्वामी जी रामायण के प्रसंगों की ओर संकेत करते हुए रावण को “देवकंटक” कहते हैं—ऐसा व्यक्ति जो देवकार्य में बाधा डाले। वह भी उपासक था, उसने भी साधना की, लेकिन उसकी वृत्ति तामसिक थी। इसी कारण वह साधना के बावजूद विनाशकारी बन गया। साधना का लक्ष्य यदि आत्म-जागरण और प्रभु-निष्ठा न होकर केवल शक्ति-संचय और दूसरों को वश में करने का प्रयास हो, तो वह व्यक्ति "देवसेवक" नहीं, बल्कि "देवकंटक" बन जाता है। सात्त्विक साधना देवत्व की ओर ले जाती है, जबकि तामसिक प्रवृत्ति साधना को भी विनाश का उपकरण बना देती है।
वे यह भी कहते हैं कि रावण का वध केवल एक राक्षस का अंत नहीं था, बल्कि तमोगुण के पतन का प्रतीक है। राम का आगमन केवल एक कथा नहीं, चेतना का उदय है। तमोगुण इस सृष्टि का भी एक भाग है, इसलिए उसकी उपस्थिति पूरी तरह समाप्त नहीं होती, परंतु सजग साधक उसे पहचान कर उस पर विजय प्राप्त कर सकता है। जैसे किसी बगीचे के चारों ओर नागफनी लगाई जाती है ताकि कोई भीतर न घुसे, वैसे ही तमोगुण भी बाधा के रूप में उपस्थित होता है—हमें सजग रखने के लिए, हमें परखने के लिए।
अंततः, स्वामी जी स्पष्ट करते हैं कि मनुष्य जीवन केवल देहधारण करके जीने के लिए नहीं है। जीवन की कठिनाइयाँ आत्म-विकास के अवसर हैं। हर मोह पर विवेक की दृष्टि बनी रहनी चाहिए, हर पीड़ा में करुणा होनी चाहिए, और हर कर्तव्य में निष्ठा होनी चाहिए। यही सच्ची साधना है, यही जीवन की सार्थकता है।

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