राजा को भी संत की आवश्यकता होती है | Swami Satyamitranand Ji Maharaj | Adhyatma Ramayan Pravachan
भारत माता की इस प्रस्तुति में स्वामी सत्यमित्रानंद गिरि जी महाराज ने बताया है कि जब भगवान श्रीराम का अभिषेक हुआ, तब उन्होंने यह नहीं चाहा कि उनके आसपास चमचे लोग रहें।
उन्होंने तुरंत वशिष्ठ जी से कहा कि अयोध्या के सभी संत-महात्मा अग्रिम पंक्ति में बैठें और मैं सदा उनके सान्निध्य में रहूं। इसका गहरा संदेश यह है कि राजा हो या कोई भी व्यक्ति, यदि वह अपने जीवन को शुद्ध रखना चाहता है, तो उसे संतों की संगति में रहना चाहिए।
क्योंकि जिनके प्रति श्रद्धा होती है, उनके सामने हमारा आचरण भी शुद्ध रहता है। जैसे – पिता, गुरु या भगवान के सामने हम गलत आचरण नहीं कर सकते।
संतों की संगति: आत्मिक मार्गदर्शन का आधार
भगवान श्रीराम तो चक्रवर्ती सम्राट बन गए, लेकिन उन्होंने भी संतों की आवश्यकता मानी। यह दर्शाता है कि भले ही कोई कितना भी बड़ा हो, आत्मिक मार्गदर्शन के लिए संतों का साथ ज़रूरी होता है।
गोस्वामी तुलसीदास जी भी कहते हैं – "संत दर्शन से पाप दूर होते हैं।" यह पाप केवल बाहरी नहीं, बल्कि हमारे मन के भीतर उठने वाले दूषित विचार भी होते हैं, जो संतों के वचन और संगति से शांत हो जाते हैं।
जब हम उनके जीवन, वाणी और विचारों पर चिंतन करते हैं, तो हमारे अंदर नई सोच पैदा होती है और हम बुराई से हटकर अच्छाई की ओर बढ़ने लगते हैं।
हनुमान जी की सेवा भावना: कृत कार्यम्, निराकांक्षम्
भगवान राम के राज्य का संचालन भलीभांति हो रहा था। तभी सभा में हनुमान जी खड़े हुए, हाथ जोड़कर उन्होंने निवेदन किया कि "हे प्रभु, आपने जो कार्य मुझसे करवाया, वह मैंने पूर्ण किया, और मैंने इसे बिना किसी अपेक्षा के किया।"
हनुमान जी का यह कहना – "कृत कार्यम्, निराकांक्षम्" – बहुत बड़ी बात है। उन्होंने सेवा बिना स्वार्थ के की। यह हम सबके लिए आदर्श है, क्योंकि अक्सर हम सेवा के बदले में कुछ पाने की इच्छा रखते हैं।
हनुमान जी के जीवन का उदाहरण देते हुए बताया गया कि जब लंका में उन्हें बांधा गया, तो उन्होंने दुख नहीं किया, बल्कि हँसे और कहा – "मुझे कोई लज्जा नहीं, क्योंकि मैंने रघुपति का कार्य किया है।"
यह भाव दर्शाता है कि जब व्यक्ति प्रभु के कार्य में समर्पित हो जाता है, तो उसे किसी बंधन से भय नहीं रहता। उन्होंने कहा – "जाही विधि राखे राम, ताही विधि रहिए।" यानी जैसे रामजी रखें, उसी में प्रसन्न रहना चाहिए।
देशभक्ति और भक्ति का समन्वय: वीर सावरकर जी का उदाहरण
स्वामी जी ने इसी भाव में वीर सावरकर जी का उदाहरण भी दिया, जो 21 वर्षों तक काले पानी की जेल में रहे। उन्होंने अपनी भाभी को पत्र में लिखा – "भारत माता ने अपने बाग के तीन फूल – मैं और मेरे दोनों भाई – पूजा के लिए चुने हैं। तुम दुखी मत होना, मैं यहां भी प्रसन्न हूं।"
यह बताता है कि देशभक्ति और ईश्वर-सेवा में कष्ट भी आनंद बन जाता है।
हनुमान जी का परिचय: भक्ति से अद्वैत तक
फिर भगवान राम ने हनुमान जी से उनका परिचय पूछा। यह एक सुंदर संवाद है।
हनुमान जी ने मुस्कराकर कहा –
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देह की दृष्टि से मैं आपका दास हूं।
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जीव की दृष्टि से मैं आपका अंश हूं।
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आत्मा की दृष्टि से जब देखता हूं, तो राम और हनुमान में कोई भेद नहीं दिखता।
यह अद्वैत (एकत्व) की उच्च भावना है – जब भक्त और भगवान एक ही हो जाते हैं।
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