आरक्षण एक बैसाखी | AARAKSHAN EK BAISAKHI | Swami Satyamitranand Giri Ji Maharaj | Bharat Mata

 

आरक्षण एक बैसाखी | AARAKSHAN EK BAISAKHI | Swami Satyamitranand Giri Ji Maharaj | Bharat Samanvay

किसी विकलांग की सहायता करके.. उसे बैसाखी देकर.. उसके चलने में सहारा दिया जा सकता है.. किन्तु उस विकलांग के मन मस्तिष्क में एक पीड़ा सदैव रहती है कि वो कभी कितना स्वस्थ हुआ करता था और अब उसे किसी की सहायता की आवश्यकता है.. किसी के सहारे की ज़रूरत है | भारत देश की कुछ ऐसी ही कठिनाई है.. जहाँ के राजनितिक दल आरक्षण रुपी बैसाखी से समाज और देश में व्याप्त भ्रष्टाचार और अकर्मण्यता को बढ़ा रहे हैं | सहायता करना एक परम कर्तव्य है किन्तु समर्थ होने के पश्चात् सहायता और सुविधा न देनी चाहिए और न ही लेनी चाहिए | जो मनुष्य.. समूह.. दल इस विकलांगता को जीवित रखने में प्रयासरत है.. वो देश की उन्नति में बाधक है | समाज की क्षमता को जाग्रत न करके केवल अपने स्वार्थ की सुरक्षा में लिप्त कार्य किसी भी राष्ट्र के लिए हितकारी नहीं हो सकता है |

जब-जब मैं उपासना के क्षणों मे परमात्मा के चरणों मे बैठता हूँ, तब-तब मेरी यही प्रार्थना रहती है की परमात्मा मेरे राष्ट्र को सर्वविधि समृद्ध एवं सम्पन्न बना दें। 

यह कथन है स्वामी सत्यमित्रानंद गिरी जी महराज का जिन्होंने हरिद्वार के भारतमाता मन्दिर की स्थापना की। पथ-प्रदर्शक, अध्यात्म-चेतना के प्रतीक, तपो व ब्रह्मनिष्ठ, पद्मभूषण महामंडलेश्वर स्वामी सत्यमित्रानंद गिरि का जन्म 19 सितंबर 1932 को आगरा मे हुआ था। मूल रूप से इनका समस्त परिवार उत्तर प्रदेश के सीतापुर का निवासी था। स्वामी जी बचपन से ही अध्ययनशीलता, चिंतन और सेवा का पाठ पढ़ते थे और सदैव लक्ष्य के प्रति सजग एवं सक्रिय रहते थे। धर्म, संस्कृति, समाज और विश्व कल्याण के प्रति अपनी अद्वितीय सेवाओं के लिय उन्हे पद्मभूषण से सम्मननित किया गया। 

स्वामी जी ने अपने एक प्रवचन मे कहा था की कभी कभी जीवन के पथ पर जब विषाद रुपी कंटक आ जाता है तब मनुष्य उन्माद में भटक जाता है| ऐसे स्थिति में किंकर्तव्यविमुढ़ता कर्म की शक्ति का हरण कर लेती है और प्रमाद मनुष्य को दिग्भ्रमित कर देता है|

महाभारत की रणभूमि में श्रेष्ठ धनुर्धर अर्जुन भी इसी भंवर में फँस गए थे.. जो वर्तमान में भी संसार में देखने को मिल जाता है| और जिस प्रकार अर्जुन को श्रीमद्भागवद्गीता द्वारा अपने कर्त्तव्य का बोध हुआ था.. उसी प्रकार गीता आज के समय में भी अत्यंत आवश्यक सन्देश प्रदान करती है| विषाद.. उन्माद.. प्रमाद और इन सबसे उत्पन्न विवाद से बचना है तो संवाद की रचना अनिवार्य है.. क्यूंकि संवाद से विवाद पूर्णतः नष्ट हो जाएगा| परमात्मा के साथ संवाद करने के पश्चात अर्जुन के मन में विवाद का स्थान ही ना रहा.. और संवाद ने धन्यवाद की रचना की| श्रीमद्भगवद्गीता इसी धन्यवाद की परंपरा की स्थापना का सन्देश प्रदान करती है.. जिससे मानवमात्र का कल्याण हो सके| परमात्मा का आश्रय हर संकट नष्ट कर देता है.. इसीलिए जीवन में विषाद होने पर केवल परमात्मा से संवाद ही मनुष्य को उबार सकता है| जीवन को सरिता के समान वर्णित करते हुए स्वामी जी कहते हैं की जीवन सरिता के समान ही प्रवाहमान रहता है.. जिसका उद्भव होता है.. एवं जीवनकाल के पश्चात् अवसान भी होता है | जिस प्रकार सरिता ऊँचाई तक जाती है.. और फिर नीचे की ओर चली जाती है.. उसी प्रकार जीवन भी उन्नति एवं अवनति के चक्र में चलायमान रहता है | अतः जीवन रुपी सरिता में कभी भी सब कुछ समान नहीं रहता | केवल ईश्वरीय भक्ति रुपी प्रसाद ही अटल एवं अलौकिक सत्य है और इस सत्य को आत्मसात करने से और सत्कर्म करने से ही चौरासी लाख योनियों में भ्रमण करने के पश्चात् मानव जीवन की प्राप्ति हो सकती है | उपनिषद के अनुसार असत्य आचरण से युक्त मनुष्य का जीवन अंधकारमय हो जाता है और इस संसार से अवसान के पश्चात भी उन्हें केवल अंधकार की ही प्राप्ति होती है | जिस मार्ग पर चलने के लिए बुद्धि कहे.. किन्तु मन और आकर्षण बुद्धि के विपरीत ही रहें.. ऐसे क्षणों में यदि बुद्धि को पराजित करके आकर्षण विजय प्राप्त करता है.. तो यही क्षण मानव जीवन के आत्महत्या के क्षण होते हैं| इन क्षणों की निरंतर वृद्धि ही मानव के पतन का कारण बनती है और अपयश के कारक के रूप में सन्मार्ग की बाधा बन जाती है| 

परम पूजनीय स्वामी सत्यमित्रानंद गिरी जी महराज के समस्त संदेशों व उपदेशों से हम सदा सर्वदा प्रेरित होते रहेंगे। 

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