ईश्वर प्राप्ति के लिए भक्ति से सरल कोई साधन नहीं | Swami Satyamitranand Ji Maharaj | Pravachan

भारत माता चैनल की इस पुण्य प्रस्तुति में पूज्य स्वामी सत्यमित्रानंद गिरि जी आध्यात्म रामायण का सार भावपूर्ण शैली में प्रस्तुत करते हैं। वे कहते हैं:

"गच्छामि तदेव परम रहस्यम्…"
अर्थात, “अब मैं उस परम रहस्य की ओर जाना चाहता हूँ, जो अब तक अज्ञात है।

पार्वती जी का जिज्ञासु भाव

पार्वती जी भगवान शंकर से कहती हैं
"
हे नाथ! मैंने आपसे ज्ञान, वैराग्य, भक्ति और विज्ञान के विषय में तो पूछा है। लेकिन क्या ऐसा कोई परम रहस्य भी है, जो मैंने नहीं पूछा और आप अपने भीतर संजोकर रखे हुए हैं?"

उनकी यह विनती साधारण नहीं, एक शिष्य की गहरी विनम्रता है।
जैसे कोई बालक अपने दादा से कहता है, "जो तुम दिवाली पर देते हो, वह तो ठीक है, लेकिन जो अलमारी में और अनमोल चीजें हैं, वह भी तो दो।"

उसी प्रकार, पार्वती जी कहती हैं
"
आपके ज्ञान के खजाने में कोई और दिव्य तत्व हो, तो कृपा कर बताइए।"

श्रीरामचरित: केवल कथा नहीं, भवसागर की नौका

स्वामीजी समझाते हैं
भगवान श्रीराम की लीलाएं मात्र पौराणिक प्रसंग नहीं हैं, वे भक्ति की नौका हैं, जो जीव को संसार सागर से पार ले जाती हैं।
जैसे शंकराचार्य के शिष्य ने प्रार्थना की

"अपार संसार-सागर में मैं कैसे पार पाऊं?"

उत्तर था

"विश्वेश पादाम्बुज दीर्घ नौका।"
अर्थात, भगवान के चरण ही वह सुदृढ़ नौका हैं, जो पार लगा सकती हैं।

ठीक यही शिक्षा श्रीरामचरित भी देता है
यह चरित्र नहीं, चरणों की नौका है।

श्रीकृष्ण की नाव-लीला: भक्ति का चरम

एक मधुर प्रसंग में श्रीकृष्ण को गोप-ग्वाल जबरन नाव में बैठा लेते हैं।
नाव जीर्ण है, पानी गहरा, रात अमावस्या की, बालक सवारी।
सब भयभीत हैं।
पर एक गोप, मनसुखा, उल्लास से नाच रहा है।

सब पूछते हैं, “तू क्यों हंस रहा है?”

वह कहता है
"
इससे सुंदर अवसर क्या होगा!
अगर नाव डूबेगी, तो श्रीकृष्ण के साथ डूबेंगे।"

यही है भक्ति की पराकाष्ठा
जहां भय नहीं, केवल समर्पण है।
जहां यह विश्वास है कि जीवन की सारी आपदाओं में भी, जब प्रभु साथ हों, तो डूबना भी जीवन की परम सिद्धि बन जाता है।

भक्ति: सरल, सुलभ और परम फलदायिनी

स्वामीजी अंत में कहते हैं
ज्ञान से मोक्ष मिलता है, यह सत्य है।
लेकिन भक्ति से भी मोक्ष मिलता है, और वह कहीं अधिक सरल, सहज और हृदयगम्य है।

"भक्ति प्रसिद्धा भव मोक्षणाय।
नान्यता साधनं किंचित्।"

गोस्वामी तुलसीदास जी भी कहते हैं

"भगति करत बिनु जतन प्रयासा।"
अर्थात, भक्ति में अधिक प्रयास नहीं, केवल समर्पण चाहिए।

अन्य साधन प्रयासमय हैं
योग में संयम, तप में कष्ट, ध्यान में एकाग्रता।
पर भक्ति मेंकेवल प्रेम, श्रद्धा और आत्मनिवेदन।

और यही कारण है कि भक्ति, संशय और बंधन दोनों से मुक्ति दिलाती है।