महादेव से जानिए राम तत्व क्या है | Swami Satyamitranand Ji Maharaj | Adhyatm Ramayana | Pravachan
स्वामी सत्यमित्रानंद गिरी जी महाराज भारत माता की स्तुति करते हुए एक अत्यंत भावपूर्ण और शिक्षाप्रद प्रवचन में भगवान शंकर और पार्वती के संवाद को केंद्र में रखते हैं। इस संवाद में पार्वती भगवान राम के गूढ़ आध्यात्मिक स्वरूप के बारे में जानना चाहती हैं।
पार्वती का प्रश्न और भगवान शंकर का उत्तर
भगवान शंकर उनके इस प्रश्न की प्रशंसा करते हैं और कहते हैं कि यह प्रश्न सामान्य नहीं है, बल्कि भक्ति और अध्यात्म की गहराई से उत्पन्न हुआ है। वे कहते हैं कि मन जिसकी ओर होता है, व्यक्ति उसी प्रकार के प्रश्न करता है – जैसे इतिहास का विद्यार्थी इतिहास पूछेगा, भूगोल का भूगोल पूछेगा, लेकिन जिनका मन परमात्मा की ओर होता है, वे ईश्वर से जुड़े प्रश्न करते हैं। इसलिए पार्वती धन्य हैं।
भगवान शंकर अपने उत्तर में एक महत्वपूर्ण संदेश भी गृहस्थ जीवन के लिए देते हैं। वे कहते हैं कि पत्नियों की भक्ति और सद्गुणों की सराहना करनी चाहिए। उन्हें हमेशा डांटना नहीं चाहिए, बल्कि कभी-कभी उनके अच्छे गुणों की प्रशंसा भी करनी चाहिए। यदि किसी परिवार में किसी सदस्य के भीतर भक्ति की भावना जाग जाए, तो उसका मजाक उड़ाने के बजाय उसका सम्मान करना चाहिए, क्योंकि यह दुर्लभ है। संसारिक चिंतन स्वाभाविक है, लेकिन ईश्वर की ओर बढ़ना कठिन है। जैसे कोई नदी नीचे की ओर सहज बहती है, पर यदि उसे ऊपर चढ़ाना हो, तो बांध और ऊर्जा की आवश्यकता होती है, उसी तरह मन को भी ऊपर उठाना कठिन है।
स्वामी जी भगवान राम और श्रीकृष्ण की तुलना करते हुए समझाते हैं कि दोनों को 'पुरुषोत्तम' कहा गया है, पर उनके स्वरूप भिन्न हैं। श्रीराम ‘मर्यादा पुरुषोत्तम’ हैं – उनके जीवन और चरित्र का हर पक्ष अनुकरणीय है। वे नियम, विनम्रता और आदर्श मानवता का प्रतीक हैं। उदाहरणस्वरूप, जब परशुराम अत्यंत क्रोधित होकर रामजी से अपशब्द कहते हैं, तब भी राम अत्यंत विनम्रता से कहते हैं – “नाथ, जो भी आपका दास होगा, उसी ने धनुष तोड़ा होगा।” इस प्रकार की नम्रता और मर्यादा राम के चरित्र की विशेषता है।
लीला पुरुषोत्तम श्रीकृष्ण
श्रीकृष्ण 'लीला पुरुषोत्तम' हैं – उनकी लीलाएं रहस्यमय और गूढ़ हैं, जिनका अनुकरण नहीं किया जा सकता। श्रीकृष्ण के कुछ पक्षों को लोग अपने दुर्व्यवहार का आधार बनाते हैं, जैसे एक व्यक्ति ने कहा कि कृष्ण की 16,108 रानियाँ थीं, तो मैं दो-चार रखूं तो क्या दोष! स्वामी जी कहते हैं कि भगवान के चरित्र का यह अनुचित उपयोग और भ्रम है। उन्होंने स्पष्ट कहा कि श्रीकृष्ण के वचन (जैसे गीता) का अनुसरण करना चाहिए, उनकी लीलाओं का अनुकरण नहीं।
प्रवचन में स्वामी जी यह भी बताते हैं कि परमात्मा सबमें व्याप्त है, जैसे आकाश हर स्थान पर है – चाहे वह घटाकाश (घड़े में), मठाकाश (मंदिर में) या महाकाश (सर्वत्र) हो। जब घड़ा टूटता है, तो उसका आकाश महाकाश में विलीन हो जाता है, वैसे ही जीवात्मा भी ब्रह्म में लीन हो जाती है। यह ब्रह्म तत्व ही इस सृष्टि का मूल है, जिसे भगवान ने अपनी इच्छा और माया से रचा है। हालांकि यह माया परमात्मा पर प्रभाव नहीं डालती, जैसे चुंबक के पास रखी लोहे की सुइयाँ चुंबक की ओर खिंचती हैं, पर चुंबक उन्हीं पर निर्भर नहीं होता। हम सभी उस चुंबकीय शक्ति – परमात्मा – द्वारा ही संचालित होते हैं।
प्रवचन का अंतिम भाग कर्म और ज्ञान के संबंध को समझाता है। स्वामी जी कहते हैं कि जब तक मनुष्य अज्ञान में डूबा रहेगा, तब तक कर्मों का बंधन बना रहेगा। ज्ञान ही वह अग्नि है जो सारे कर्मों को भस्म कर सकती है। जब व्यक्ति यह जान लेता है कि "मैं नहीं कर रहा, परमात्मा मुझसे करवा रहा है," तो वह कर्तापन से मुक्त हो जाता है। जैसे कोई धातु गैस चूल्हे पर नहीं गलती, पर फर्नेस की तीव्र अग्नि में उसका स्वरूप बदल जाता है, वैसे ही तीव्र ज्ञान की अग्नि ही मोक्ष का मार्ग प्रशस्त करती है। साधारण भक्ति और धर्मकर्म अच्छे हैं, लेकिन मोक्ष के लिए ज्ञान की गहराई में उतरना आवश्यक है।
इस प्रकार, स्वामी सत्यमित्रानंद गिरी जी का यह प्रवचन भक्ति, मर्यादा, ज्ञान और आत्मविकास का गहन संदेश देता है। यह सिखाता है कि सच्ची भक्ति दुर्लभ है, ईश्वर का स्वरूप व्यापक और अद्वितीय है, और जीवन में ज्ञान प्राप्त करके ही मनुष्य वास्तव में कर्मबंधन से मुक्त हो सकता है।