भारतीय संस्कृति में नृत्य केवल कला का प्रदर्शन नहीं है, बल्कि यह आत्मा और परमात्मा के बीच अद्वितीय संवाद का माध्यम माना जाता है। यह देव-पूजा और ईश्वर-आराधना का ऐसा साधन है, जिसमें लय, ताल, अभिनय और भावनाएँ एकाकार होकर भक्ति का रूप ले लेती हैं। भारत की आठ शास्त्रीय नृत्य शैलियाँ – भरतनाट्यम, कथक, कथकली, ओडिसी, मोहिनीयट्टम, कुचिपुड़ी, सत्रिया और मणिपुरी – हमारे आध्यात्मिक और सांस्कृतिक जीवन की धड़कन हैं। प्रत्येक नृत्य का आरंभ मंदिर, मठ और भक्ति आंदोलन से हुआ; प्रत्येक में देवकथाओं का आधार और आस्था का प्रकाश छिपा है। इन शैलियों को समय-समय पर संतों, आचार्यों, राजाओं और भक्तों ने संरक्षण दिया, जिससे ये न केवल जीवित रहीं बल्कि विश्व पटल पर भारत की पहचान बनीं।

भरतनाट्यम: शिवनृत्य का साक्षात रूप

भरतनाट्यम का आरंभ तमिलनाडु के प्राचीन मंदिरों से हुआ। इसे “नृत्यों की माँ” कहा जाता है और इसका इतिहास पाँच हज़ार वर्ष पुराना माना जाता है। नाट्यशास्त्र में वर्णित सिद्धांतों का यह प्रत्यक्ष स्वरूप है। पहले यह नृत्य देवदासियों द्वारा भगवान शिव नटराज और भगवान विष्णु के समक्ष अर्पित किया जाता था। भरतनाट्यम का उद्देश्य केवल मनोरंजन नहीं, बल्कि ‘नृत्योपासना’ था। अंग की गतियों और हस्तमुद्राओं द्वारा देवकथाएँ प्रस्तुत की जाती थीं। इसमें अलारिप्पु, जटिस्वरम, वर्णम और तिल्लाना जैसी रचनाओं के माध्यम से भक्ति का विस्तार होता है। इस नृत्य शैली को चोल वंश के राजाओं ने विशेष संरक्षण दिया। मंदिर सेवा में महत्त्वपूर्ण स्थान होने के कारण यह सदियों तक समाज में पूज्य रहा। आधुनिक समय में रुकी हुई परंपरा को पुनर्जीवित करने का श्रेय रुक्मिणी देवी अरुंडले को दिया जाता है। आज भरतनाट्यम अपनी गंभीरता, भक्ति और अनुशासन के लिए विश्वभर में प्रसिद्ध है।

कथक: कथा-संप्रेषण से दरबारी लय तक

कथक उत्तर भारत की धरोहर है। इसका उद्भव उन भट या कथावाचकों से हुआ जो जनमानस को रामायण, महाभारत और पुराण कथाएँ सुनाते थे। वे नृत्य और अभिनय के माध्यम से कथा को जीवंत कर देते थे। यही शैली धीरे-धीरे एक पूर्ण नृत्यकला में परिवर्तित हुई। भक्ति काल में संतों और कृष्णभक्त कवियों – सूरदास, मीराबाई जैसे भक्त कवियों ने कथक को कृष्ण-लीला और रासलीला से जोड़कर भक्ति आंदोलन की शक्ति बनाया। बाद में मुग़ल काल के दरबारों में इसे संरक्षण मिला। तब इसमें ठुमरी, ग़ज़ल और श्रृंगार का रस मिला और यह दरबारी नृत्य का रूप लेने लगा। कथक में पदचाप, पैरों की घुंघरुओं से ताल, घूमर और भावनाएँ इसकी पहचान हैं। यह भारत का एकमात्र शास्त्रीय नृत्य है जिसे हाथ की मुद्राओं के बिना भी कथा कहने की क्षमता है। कथक आज मंदिर और दरबार दोनों की स्मृति जगाता हुआ भारत और विदेशों में सम्मानित है।

कथकली: रंगमंचीय धर्मयुद्ध का प्रतीक

कथकली का जन्म केरल में हुआ। जब भक्तिवाद और नाट्यकला का संगम हुआ तो मंदिर कथाओं को प्रदर्शन का माध्यम बना। कथकली महाभारत और रामायण की कथाओं का विशाल नाटकीय रूप है। इसमें चार से पाँच घंटे तक तैयारी होती है – शरीर पर भारी वेशभूषा, भव्य मुकुट और चेहरे पर हरे, लाल, काले रंगों में देवी-दानव के प्रतीकात्मक स्वरूप बनाए जाते हैं। कथकली के हर पात्र का रंग उसकी प्रकृति दर्शाता है। जैसे हरा सत्य और पुण्य का प्रतीक, लाल क्रोध और राक्षसी भाव का प्रतीक। संगीत और ढोल-चेंडा जैसे वाद्य इसे और प्रभावी बनाते हैं। कथकली को केरल के राजाओं और मंदिरों ने संरक्षण दिया। यह नृत्य केवल कला नहीं, बल्कि धर्म-युद्ध की कथा के रूप में प्रस्तुत किया जाता है। आज यह विश्व रंगमंच पर भारतीय संस्कृति की अद्वितीय धरोहर है।

ओडिसी: महारी परंपरा से जगन्नाथ भक्ति तक

ओडिसी नृत्य ओडिशा का आभूषण है। इसका प्रारंभ महारी परंपरा से हुआ जब महिलाएँ जीवन भर जगन्नाथ मंदिर में भगवान की सेवा में ही समर्पित रहतीं। वे गीत और नृत्य द्वारा भगवान को आराधना समर्पित करतीं। ओडिसी की विशेषता है त्रिभंगी मुद्रा – अर्थात शरीर तीन भागों में मुड़कर नृत्य करता है। यह मुद्रा सौंदर्य और भक्ति का अद्वितीय संगम है। इस नृत्य को गौरीशंकर महाराणा और केलुचरण महापात्र जैसे महान गुरुओं ने पुनर्जीवित किया। इसके परिधान और आभूषण ओड़िशा की पट्टचित्र शैली से प्रेरित हैं। ओडिसी में राधा-कृष्ण की रासलीला, शृंगार और भक्ति रस अद्भुत ढंग से प्रकट होते हैं। यह जगन्नाथ भक्ति की अमर झलक है।

मोहिनीयट्टम: विष्णु के मोहिनी रूप की छाया

मोहिनीयट्टम केरल की कोमल नृत्य शैली है। इसका आधार भगवान विष्णु के मोहिनी अवतार से जुड़ी कथाएँ हैं। इसका नाम ही है – मोहिनी यानी “मोह लेने वाली”। यह नृत्य केवल लास्य भाव पर आधारित है, जिसमें कोमलता, धीमी लय और लहराती मुद्राएँ प्रधान होती हैं। मोहिनीयट्टम को पहले केवल केरल के महलों और मंदिरों में स्त्रियाँ प्रस्तुत करती थीं। इसके गीत मलयालम भाषा के पदों से जुड़े हैं। महाराजा स्वाति तिरुनाल ने 19वीं शताब्दी में इस नृत्य को विशेष संरक्षण दिया और इसे पुनर्जीवन दिया। इसे स्त्रैणता, मोह और भक्ति का सुंदर प्रतीक माना जाता है।

कुचिपुड़ी: नाट्यधर्मिता और भक्ति का संगम

कुचिपुड़ी गाँव (आंध्र प्रदेश) में जन्मा यह नृत्य मूलतः एक नृत्य-नाटक शैली थी। पहले पुरुष ब्राह्मण इस नृत्य को प्रस्तुत करते थे। मंदिरों और ग्राम्य मंचों पर जाकर वे कृष्ण-लीला और पौराणिक कथाओं को अभिनय, गीत और नृत्य द्वारा सुनाते थे। कुचिपुड़ी का अनूठा आकर्षण है तरंगम, जिसमें कलाकार पीतल की थाली पर खड़े होकर ताल में नृत्य करते हैं। इसमें संवाद, गान और अभिनय का सम्मिलन इसे सबसे नाटकीय बना देता है। भक्ति आंदोलन और विशेष रूप से वेंकटेश्वर मंदिर परंपरा ने कुचिपुड़ी को बढ़ावा दिया। बाद में डॉ. वेमपाटि चिन्ना सत्यम ने इसे विश्वस्तरीय पहचान दी। यह नृत्य आज भारतीय नाट्यमंच का गौरव है।

सत्रिया: संत शंकरदेव का भक्ति संदेश

असम के संत श्रीमंत शंकरदेव ने 15वीं शताब्दी में जब वैष्णव धर्म का प्रचार किया तो भक्तिमार्ग को जन-सामान्य तक पहुंचाने के लिए उन्होंने अंकीया नाट और सत्रिया नृत्य की रचना की। सत्रों यानी वैष्णव मठों में साधु-संन्यासी इस नृत्य को ईश्वर की आराधना में प्रस्तुत करते थे। सत्रिया का उद्देश्य पूजा के साथ-साथ समाज सुधार भी था। इसमें भागवत, रामायण, महाभारत की कथाएँ भावपूर्ण मुद्राओं के साथ प्रस्तुत होती थीं। इसकी वेशभूषा सरल और वैष्णव परंपरा के अनुरूप होती है। 2000 में इसे शास्त्रीय नृत्य का दर्जा मिला, और इसके माध्यम से आज भी असम के गाँव-गाँव भक्ति और धर्म का संदेश पहुंचता है।

मणिपुरी: राधा-कृष्ण रासलीला का अमर नृत्य

मणिपुरी नृत्य उत्तर-पूर्व के मणिपुर राज्य की आत्मा है। यह राधा-कृष्ण की रासलीला की जीवंत प्रस्तुति है। मंदिरों और आंगनों में रातभर रासलीला का आयोजन होता है और भक्तजन इसे दर्शन मानते हैं। मणिपुरी की विशेषता इसकी कोमलता और तरलता है। महिला नर्तकियों की बेलनाकार पोशाक जिसे पोतलोई कहते हैं, इतनी अद्वितीय है कि इस परिधान में नृत्य अलौकिक लगता है। पुरुष पात्र ढोलक और वाद्य बजाते हुए रासलीला में सम्मिलित होते हैं। भक्ति आंदोलन और विशेष रूप से वैष्णव परंपरा (चैतन्य महाप्रभु की प्रेरणा) ने इस नृत्य को ऊँचाई दी। आज भी मणिपुर की संस्कृति का सबसे पवित्र और लोकप्रिय अंग यही नृत्य है।

निष्कर्ष: भारतीय शास्त्रीय नृत्य – आराधना और साधना

भारतीय शास्त्रीय नृत्यों का आरंभ सभी ने आध्यात्मिक आधार से किया। मंदिर, मठ और वैष्णव परंपराओं में इनका जन्म हुआ। संतों, राजाओं और भक्तों ने इन्हें संरक्षण दिया। वे केवल कला नहीं, बल्कि आराधना हैं; केवल मंचन नहीं, बल्कि ईश्वर से मिलने का मार्ग हैं। भरतनाट्यम भगवान शिव का नृत्य है, कथक किंवदंती और रासलीला की यात्रा है, कथकली धर्म और अधर्म के युद्ध का दृश्य है, ओडिसी जगन्नाथ की लीला है, मोहिनीयट्टम मोहिनी रूप की छाया है, कुचिपुड़ी कृष्ण का जीवंत संवाद है, सत्रिया संत शंकरदेव का भक्ति संदेश है और मणिपुरी राधा-कृष्ण की रासलीला का अमर स्वरूप है। आज भी ये सभी नृत्य भारत की आध्यात्मिक पहचान हैं और इन्हें देखने-सुनने से भक्त का मन साधना और भक्ति में रंग जाता है।