वैदिक साहित्य में अंतिम कड़ी के रूप में आरण्यकों के अंत में ही उपनिषद् आते हैं। प्रतिपादित विषय की दृष्टि से वेद के दो भाग हैं-कर्मकांड और ज्ञान कांड । संहिता, ब्राह्मण और आरण्यकों में प्रधानतया कर्म की विवेचना होने के कारण ये कर्मकांड, यज्ञ व अनुष्ठानों का विस्तार से वर्णन करते हैं, जबकि उपनिषद् ज्ञान कांड प्रधान होने के कारण ब्रह्म के स्वरूप, जीव तथा ब्रह्म के परस्पर संबंध, ब्रह्म प्राप्ति के मार्ग आदि विषयों का विशद वर्णन करते हैं।
उपनिषदों की कुल संख्या कितनी है? किस संहिता या वेद से कौन-सा उपनिषद् संबंधित है?
भारतीय दर्शन की कोई भी धारा ऐसी नहीं है, जिसका मूल उपनिषदों में विद्यमान न हो। कालान्तर में विभिन्न सम्प्रदाय, विभिन्न मत, विभिन्न दर्शन उपनिषद् की किसी एक विशिष्ट संकल्पना को लेकर ही उसके वाहक बन गए।
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ऋग्वेद एवं उसके उपनिषद्
- ऐतरेय
- कौषीतकि
- मुद्गल
- सौभाग्यलक्ष्मी
- राधोपनिषद्
- नादबिन्दु
- बहूवृच
- निर्वाण
- आत्मप्रबोध
- अक्षमालिका
1. ऐतरेय उपनिषद्
ऐतरेय उपनिषद् ऋग्वेद से संबंधित है एवं इसमें तीन अध्याय हैं। ऋग्वेद के ऐतरेय आरण्यक के दूसरे भाग के चौथे, पांचवें व छठे अध्यायों को ही ब्रह्मविद्या की प्रधानता के कारण 'उपनिषद्' माना जाता है।
2. कौषीतकि उपनिषद्
पुनर्जन्म व ज्ञान के द्वारा मुक्ति का प्रावधान (चित्र - आरुणि संवाद ) उपनिषद् का प्रारंभ महात्मा चित्र के यज्ञ में उद्दालक आरुणि मुनि के पुत्र श्वेतकेतु का ऋत्विक के रूप में आने से होता है। श्वेतकेतु से महात्मा चित्र ब्रह्मविद्या विषयक गूढ़ प्रश्न पूछते हैं, जिनका वह उत्तर नहीं दे पाता। अतः अपने पिता आरुणि के पास वापस चला जाता है और उनसे वही प्रश्न पूछता है। पिता भी उस प्रश्न का उत्तर देने में स्वयं को असमर्थ पाते हैं और दोनों पिता-पुत्र ब्रह्मविद्या के ज्ञान के लिए महात्मा चित्र के पास पहुंचते हैं और उनसे ज्ञान प्राप्त करते हैं।
3. मुद्गलोपनिषद्
यह उपनिषद् ऋग्वेद के केवल एक विशिष्ट सूक्त पर आधारित है। ऋग्वेद के दशम् मंडल का 90वां सूक्त प्रसिद्ध पुरुषसूक्त है, जिसमें भगवान् विष्णु के विराट् स्वरूप या सहस्ररूप से संसार के विभिन्न लोकों, जीवों व मनुष्यों की उत्पत्ति का विवरण है। इसी प्रसिद्ध पुरुषसूक्त की विशद आध्यात्मिक विवेचना इस उपनिषद् में वर्णित है।
4. सौभाग्यलक्ष्मी उपनिषद्
तीन खंडों में वर्णित यह उपनिषद् सांसारिक भोगों के लिए लक्ष्मी प्राप्ति के वैदिक अनुष्ठान के प्रावधान का वर्णन करता है। इन खंडों में पन्द्रह ऋचाओं वाले प्रसिद्ध श्रीसूक्त का वर्णन है, जिसके इन्दिरा, आनंद, कदम व चिक्लीत ऋषि हैं। प्रथम तीन ऋचाओं का अनुष्टुप् छंद, चौथी ऋचा का वृहती छंद, छठी व सातवीं ऋचाओं का त्रिष्टुप् छंद है, जबकि शेष आठ ऋचाओं का पुनः अनुष्टुप छंद है। श्री व अग्नि इन ऋचाओं के देवता हैं, हिरण्यवर्णाम् बीज है और 'कां सोस्मि' यह शक्ति है। द्वितीय खंड में प्राणायाम की विधि का विस्तार से वर्णन है तथा षट्चक्रभेदन व समाधि पर भी प्रकाश डाला गया है। तीसरे खंड में मूलाधार, स्वाधिष्ठान, मणिपुर, विशुद्ध आदि नव चक्रों का विवेचन है।
5. राधोपनिषद्
ऋग्वेद से संबंधित इस उपनिषद् में भगवान् कृष्ण की आह्लादिनी शक्ति श्री राधा के सनकादिक महर्षियों को ब्रह्माजी द्वारा बताए गए 28 नाम हैं, जिनको पाठ करने से जीव भवसागर से मुक्त हो जाते हैं-
1. राधा, 2. रासेश्वरी, 3. रम्या, 4. कृष्णमन्त्राधिदेवता, 5. सर्वाद्या, 6. सर्ववन्द्या, 7. वृन्दावनविहारिणी, 8. रमा, 9. वृन्दाराध्या 10. अशेषगोपीमण्डल पूजिता, 11. सत्या, 12. सत्यपरा, 13. सत्यभामा, 14. श्रीकृष्णवल्लभा, 15. वृषभानुसुता, 16. गोपी, 17. मूल प्रकृति, 18. ईश्वरी, 19. गान्धर्वा, 20 राधिका, 21. आरभ्या, 22. रुक्मिणी, 23. परात्परतरा, 24. परमेश्वरी, 25 पूर्णा, 26. पूर्णचन्द्रनिभानना, 27. मुक्तिमुक्तिप्रदा, 28. भवव्याधिविननाशिनी।
6. नादबिन्दु उपनिषद्
ऋग्वेद से संबंधित यह उपनिषद् तीन अध्यायों में ॐकार के स्वरूप की विशिष्ट व्याख्या प्रस्तुत करता है। प्रथम अध्याय पुनः तीन खंडों में विभक्त है, जिसका प्रथम खंड ॐकार की हंस रूप में उपासना का स्वरूप प्रस्तुत करता है। सुपर्ण की कल्पना के अनुरूप प्रणव इसी हंस का दाहिना पंख "अ" कार व बायां पंख “गु” कार स्वरूप माना गया है। "म" कार ही उसकी पूंछ है तथा अर्द्धमात्रा ही शीर्ष है। रजोगुण व तमोगुण उसके पैरों का प्रतिनिधित्व करते हैं। उसका शरीर सत्वगुण स्वरूपात्मक माना गया है। ऐसे ॐकार रूपी हंस पर जो साधक आरूढ़ हो जाता है, अर्थात् इस ॐकार का चिंतन करता है, वह बन्धनमुक्त हो जाता है।
7. बहूवृचोपनिषद्
इस उपनिषद् में देवी कामकला की सृष्टि की सृजनकर्त्ता के रूप में आराधना की गयी है तथा उन्हीं से ब्रह्मा, विष्णु व रुद्र की उत्पत्ति मानी गयी है। इसमें हादि कादि व शाम्भवी विद्याओं का वर्णन है जो वस्तुतः शक्ति की अभिव्यक्ति की ही विभिन्न अवधारणायें हैं। इस उपनिषद् में दस महाविद्याओं से एक ललिता महात्रिपुरसुंदरी की आराधना के भी बीज हैं, जो भावना कालान्तर में आदि शंकराचार्य द्वारा सौन्दर्यलहरी में पूर्णतः प्रस्फुटित होती है।
8. निर्वाणोपनिषद्
इस उपनिषद् में परमहंस परिव्राजकों द्वारा प्राप्त किए जाने वाले निर्वाण ज्ञान की व्याख्या प्रस्तुत है। ऐसे परिव्राजकों का वस्त्र आवरण धीरज को, संसार के प्रति उदासीनता के भाव को कौपीन, ज्ञानरूपी विचारों को दंड, पादुका को संपत्ति व कुंडलिनी को बंधन माना गया है। महाश्मशान उनके निवास के लिए आनंदवन के समान है और एकांत उनका मठ है तथा ब्रह्म के विषय में समस्त संदेहों को नष्ट करना ही उनके जीवन का उद्देश्य या निर्वाण दर्शन है।
9. आत्मप्रबोधोपनिषद्
दो अध्यायों के इस संक्षिप्त उपनिषद् में प्रथम अध्याय में प्रणव या ॐ की आराधना करने का उपदेश दिया गया है तथा भगवान् विष्णु के शंख, चक्र, गदा पद्मधारी स्वरूप का मनोहर व मनोरम वर्णन करते हुए “ॐ नमो नारायणाव" नामक तारक मंत्र की उपासना को बैकुंठ लोक की प्राप्ति का साधन बताया गय है। द्वितीय अध्याय में माया या अहम् व अहंकार रूप “मैं” को समूल नष्ट करते हुए द्वैत के भेद को मिटाकर चैतन्य सत्य दर्शन की अनुभूति का विभिन उदाहरणों से वर्णन किया गया है।
10. अक्षमालिका उपनिषद्
इस उपनिषद् में प्रजापति व गुह के मध्य हुए संवाद के माध्यम से दस प्रकार की मूंगा, कमल, रुद्राक्ष सहित विभिन्न मालाओं का विस्तार से वर्णन है। जिस प्रकार दानों की माला में विभिन्न दाने होते हैं उसी प्रकार अक्षरों की माला जो अ से प्रारंभ होकर क्ष पर समाप्त होती है, उसे अक्षमाला कहते हैं। इसी मात्रा के अनुरूप इस उपनिषद् का नामकरण अक्षमालिका उपनिषद् किया गया है तथा माला को अक्षमाला माता की संज्ञा दी गयी है।
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सामवेद व उसके उपनिषद्
- छांदोग्यउपनिषद्
- केन उपनिषद्
- वज्रसूचिकोपनिषद्
- वासुदेवोपनिषद्
- जाबाल्युपनिषद्
- महोपनिषद्
- सावित्र्युपनिषद्
- आरुणिकोपनिषद्
- जाबालदर्शनोपनिषद्
- गरुड़ोपनिषद्
1. छांदोग्य उपनिषद्
सामवेद से संबंधित यह उपनिषद् बहुत ही विस्तृत व विशद है। वस्तुतः यह छांदोग्य ब्राह्मण का ही विस्तार है, क्योंकि छांदोग्य ब्राह्मण के कुल 10 अध्याय हैं, जिनमें से अंतिम आठ अध्याय छांदोग्य उपनिषद् के रूप में संकलित हैं। इन आठ अध्यायों में कुल मिलाकर 630 ऋचाएं हैं, जिनमें ॐ शब्द की व्याख्या, सामोपासना, मधुविज्ञान, व पुनर्जन्म के सिद्धांत को दृष्टांतों के माध्यम से बहुत ही सुरुचिपूर्ण ढंग से अभिव्यक्त किया गया है।
2. केन उपनिषद्
सामवेद के तलवलकर ब्राह्मण से संबंधित यह उपनिषद् अपने प्रथम श्लोक में ही केन (अर्थात् किसके द्वारा) होने के कारण केनोपनिषद् या तलवलकर उपनिषद् के नाम से प्रसिद्ध है। 35 श्लोकों का यह छोटा-सा उपनिषद् चार खंडों में विभाजित है, जिसमें परब्रह्म का गुरु-शिष्य संवाद के माध्यम से विवेचन किया गया है।
3. वज्रसूचिका उपनिषद्
इस संक्षिप्त उपनिषद् में ‘ब्राह्मण' की परिभाषा दी गयी है। ब्राह्मणत्य का निर्धारक तत्व प्राणी, जाति, देह, ज्ञान व कर्म में से कौन सा है? इसी की इसमें दार्शनिक व तार्किक व्याख्या की गई है। निष्कर्ष रूप में परम ब्रह्म तत्व के ज्ञाता, त्यागी व अहंकाररहित व काम, क्रोध, लोभ, राग व द्वेष से हीन अद्वैत भावनावाले को ही ब्राह्मण माना गया है।
4. वासुदेवोपनिषद्
इस उपनिषद् में भगवान् वासुदेव ने देवर्षि नारद को गोपीचन्दन का महत्त्व, उसके धारण की विधि व फल का वर्णन किया है। चक्रतीर्थ में जहां भी गोमती चक्रशिला हो, उस शिला पर लगा हुआ पीला चंदन ही गोपीचंदन है। इसे ही ऋग्वेद के मंत्रों (1/22/16) व विष्णुगायत्री से तीन बार अभिमंत्रित करके गृहस्थों के लिए अनामिका अंगुली द्वारा व संन्यासियों के लिए तर्जनी अंगुली द्वारा क्रमशः 12 स्थानों व तीन स्थानों पर लगाने का प्रावधान है।
5. जाबाल्युपनिषद्
इस उपनिषद् में भगवान् जाबालि व पिप्पलाद के पुत्र पैप्पलादि मुनि के मध्य हुए। संवाद के द्वारा महादेव, षडानन व कार्तिकेय की परम्परा से प्राप्त पशुपति मत के अनुसार तत्व की व्याख्या की गई है। इसके पश्चात् भस्म धारण की विधि कथा उसके माहात्म्य के वर्णन के साथ त्रिपुण्ड अर्थात् शैव मतानुयायियों द्वारा मस्तक पर चक्षु और भ्रुवों के मध्य धारण की जाने वाली तीन रेखाओं को ॐ के अकार, उकार व मकार तथा गार्हपत्य दक्षिणाग्नि व आहवनीय अग्नि तथा सत्व, रज व तमोगुण का प्रतीक माना गया है।
6. महोपनिषद्
छह अध्यायों के इस विस्तृत उपनिषद् में प्रथम अध्याय में नारायण से सृष्टि के सृजन व उत्पत्ति की गाथा का वर्णन है। द्वितीय अध्याय में शुकदेव व राजा जनक के मध्य हुए संवाद के द्वारा आत्मा, जीवनमुक्ति व विदेहमुक्ति के विविध स्वरूपों का वर्णन है। तृतीय अध्याय में निदाघ नामक ऋषिपुत्र के द्वारा साढ़े तीन करोड़ तीर्थों में स्नान के पश्चात् मन में उदित होने वाले वैराग्यपूर्ण भावों का वर्णन है। चतुर्थ अध्याय में प्रत्युत्तरस्वरूप निदाघ के पिता ऋभु द्वारा अपने पुत्र को मोक्ष के चार द्वारों का व ब्रह्मज्ञान का वर्णन है। पांचवें अध्याय में पिता-पुत्र को अज्ञान व ज्ञान की सात भूमिकाओं के बारे में विस्तार से बताते हैं तथा अंतिम अध्याय में पुरुष के चार प्रकार के निश्चयों के वर्णन के साथ उपनिषद् समाप्त हो जाता है।
7. सावित्र्युपनिषद्
इस उपनिषद् में सविता एवं सावित्री की सर्वव्यापकता, सावित्री के चार पाद 'भूः तत्सवितुर्वरेण्यम्', भुवः भर्गो देवस्य धीमहि आदि तथा उसे जानने का फल बला- अतिबाला विद्याओं के उपासना का फल बताया गया है।
8. आरुणिकोपनिषद्
इस उपनिषद् में ब्रह्माजी अरुण के पुत्र आरुणि को संन्यास ग्रहण की विधि व संन्यासी के नियमों के बारे में विस्तार से उपदेश देते हैं।
9. जाबालदर्शनोपनिषद्
दश खंडों के इस उपनिषद् में योगविद्या का इतना सूक्ष्म व विस्तृत विवेचन किया गया है कि केवल इस उपनिषद् के अध्ययन से योग के समस्त रहस्यों को जाना जा सकता है। प्रथम खण्ड में अष्टांग योग के 8 अंग व 10 यमों का वर्णन है। द्वितीय अध्याय में दस नियमों व तृतीय खंड में नौ प्रकार आसनों स्वस्तिकासन, गोमुखासन, पद्मासन, वीरासन, सिंहासन, भद्रासन, मुक्तासन यौगिक और सुखासन की विधि का वर्णन है। चतुर्थ खंड में चौदह प्रधान नाड़ियों का परिचय, आत्मतीर्थ व आत्मज्ञान का वर्णन है।
पंचम खंड में नाड़ी शोधन की विधियां, उपयुक्त स्थान व आत्मशोधन के बारे में उपदेश है। छठे खंड में प्राणायाम के प्रत्येक पक्ष का विस्तारपूर्वक विवेचन है। सप्तम में प्रत्याहार व अष्टम खंड में पंचधारणाओं के दो प्रकार के वर्णन हैं। नवम् खंड में दो प्रकार के ध्यान व उसके फल का विवेचन है। अंतिम दर्शन अध्याय समाधि की विभिन्न दशाओं का वर्णन करते हैं।
10. गरुडोपनिषद्
इस उपनिषद् में गरुड़ विद्या का वर्णन है जिसकी परम्परा क्रमशः ब्रह्मा, नारद, बृहत्सेन, इंद्र, भारद्वाज, व जीवत्काम के द्वारा प्राप्त होती है। इस विद्या का मंत्र ॐ नमः श्री गरुडाय पक्षींद्राय श्री विष्णुवल्लभाय त्रैलोक्यप्रपूजिताय उग्रभयंकरकालानलरूपाय है। इसके पश्चात् गरुड के बयान का वर्णन है। जो भी व्यक्ति इस महाविद्या का अमावस्या को स्मरण करता है, उसे जीवन में कभी सर्प नहीं इसता।
- यजुर्वेद (शुक्ल) के उपनिषद्
- बृहदारण्यक उपनिषद्
- जाबालोपनिषद्
- हंस उपनिषद्
- सुबाल उपनिषद्
- त्रिशिखिब्राह्मणोपनिषद्
- अद्वयतारक उपनिषद्
- भिक्षुक उपनिषद्
- शाट्यायनीयोपनिषद्
- ईशावास्योपनिषद्
- याज्ञवल्क्योपनिषद्
1. बृहदारण्यक उपनिषद्
बृहदारण्यक शब्द दो शब्दों से मिलकर बना है-एक 'बृहत्' अर्थात् बड़ा, विशाल या विस्तृत और दूसरा ‘अरण्य' अर्थात् वन या जंगल। आकार में बहुत विस्तृत होने तथा वन में ही अध्ययन योग्य होने के कारण यह उपनिषद् बृहदारण्यक कहलाया।
2. जाबालोपनिषद्
सात खंडों के इस संक्षिप्त उपनिषद् में प्रथम तीन खंडों में बृहस्पति, अभि व ब्रह्मचारियों तथा याज्ञवल्क्य ऋषि के मध्य हुए वार्त्तालाप को संकलित किया गया है। शेष चार खंड याज्ञवल्क्य उपनिषद् के ही प्रारंभिक अंश हैं। अतः उनकी पुनरावृत्ति नहीं की गई है। इस उपनिषद् में श्लेषात्मक भाषा में अविमुक्त शब्द का रहस्यमय अर्थ दिया गया है। अविमुक्त काशी या वाराणसी की भी संज्ञा है, यहां याज्ञवल्क्य ऋषि ने उसे प्राण क्षेत्र की भी संज्ञा दी है।
3. हंस उपनिषद्
इस उपनिषद् में सनत्कुमार ने अपने शिष्य गौतम को योग की रहस्य विद्या का उपदेश दिया है। जैसे काष्ठ में अग्नि होती है व तिल में तेल होता है, वैसे ही शरीर में हंस होता है। एक अहोराम में मनुष्य 2100 श्वास लेता है, जिसमें हंस की ध्वनि उच्चरित होती है। इसके हंस ऋषि हैं, अव्यक्त गायत्री छंद है, परम हंस देवता हैं, हं बीज है रुं शक्ति है और सोऽहम् कीलक है। अग्नि व सोम इस हंस के पंख हैं, उ सिर है, बिंदु नेत्र हैं, मुख रुद्र है, रुद्राणी दोनों चरण है और काल दोनों हाथ हैं। इसी स्थिति में जाप से दसों नादों का अनुभव होता है, जिनकी ध्वनियां क्रमशः चिणि-चिणि, घंटानाद, शंखनाद, तंत्रीनाद, तालनाद, वेणुनाद, भेरीनाद, मृदंगनाद व अंतिम दशम मेघनाद है। इसी अंतिम दसवें नाद से परब्रह्म की प्राप्ति होती है। इस उपनिषद् की भाषा अत्यंत ही गूढ़ व रहस्यमयी है।
4. बाल-उपनिषद्
16 खंडों के इस उपनिषद् में सृष्टि के सृजन से लेकर सृष्टि व सृष्टिसृजनकर्ता की सर्वोत्तम कृति मानव देह का जन्म से मृत्यु तक बहुत ही विस्तृत, सुस्पष्ट व तार्किक विवेचन किया गया है।
5. त्रिशिख ब्राह्मणोपनिषद्
इस ब्राह्मणोपनिषद् में त्रिशिखी ब्राह्मण व भगवान् सूर्य के मध्य संवाद है जिसमें विभिन्न प्रकार के आसनों यथा पद्मासन, कुक्कुटासन, मुक्तासन, मयूरासन, सुखासन आदि की चर्चा है। इसके अतिरिक्त इसमें प्राणायाम, मृत्युपूर्व संकेतों की तथा मोक्ष की चर्चा की गई है।
6. अद्वयतारक उपनिषद्
इस उपनिषद् में योगी द्वारा देखे जाने वाले आभामंडल व उसके तेज की आभा के अनुरूप विभिन्न वर्णों का वर्णन है। उपनिषद् के प्रारंभ में कहा गया है कि यह उपनिषद् संन्यासियों, योगियों द साधकों के लिए वर्णित है।
7. भिक्षुकोपनिषद्
इस उपनिषद् में मुमुक्षु संन्यासियों के विभिन्न वर्गों की चर्चा की गई है। सर्वप्रथम इसमें मोक्ष के इच्छुक भिक्षुओं को चार वर्गों में विभाजित किया गया है :
हैं।
1. कुटीचक्र 3. हंस
2. वहूदक 4. परमहंस
कुटीचक्र साधक केवल 8 ग्रास भोजन करके योग साधना में लीन रहते हैं और मोक्ष प्राप्त करते हैं। प्रमुख कुटीचक्र साधकों में गौतम, याज्ञवल्क्य, वशिष्ठ और कुटीचक्र हैं। बहूदक संन्यासी त्रिदंड, कमंडल, शिला, यज्ञोपवीत व काषाय वस्त्र धारण करते है।
8. शाट्यायनीयोपनिषद्
इस उपनिषद् में कुटीचक्र, वहूदक, हंस व परमहंस इन चारों प्रकार के संन्यासियों की जीवन-शैली व योगसाधना का विस्तृत विवरण है। (इनका वर्णन भिक्षुक उपनिषद् में किया जा चुका है।)
9. ईशावास्योपनिषद्
यह उपनिषद् अपने आप में कई कारणों से विशिष्ट है। सर्वप्रथम तो यह संहिता से पृथक् न होकर उसी का भाग है। शुक्ल यजुर्वेद या वाजसनेयी संहिता के चालीस अध्यायों में से यह अंतिम अध्याय है। दूसरा यह कि इसी को सर्वप्रथम उपनिषद् माना गया है। यह बहुत ही छोटी केवल 18 श्लोकों की रचना है। इसके प्रथम मंत्र के प्रारंभ में ईशा वास्यमिदं होने के कारण इसका नाम ईशावास्योपनिषद् रखा गया है। इसमें परब्रह्म के स्थान पर परमेश्वर का ही विशेष वर्णन है।
10. याज्ञवल्क्योपनिषद्
33 श्लोकों वाला यह उपनिषद् मुख्यतः विदेह जनक व याज्ञवल्क्य के मध्य हुई संन्यास आश्रम की चर्चा को अभिव्यक्त करता है।
कृष्ण यजुर्वेद व उसके उपनिषद्
- श्वेताश्वतर उपनिषद्
- तैत्तिरीयोपनिषद्
- कठोपनिषद्
- कैवल्योपनिषद्
- गर्भोपनिषद्
- नारायणोपनिषद्
- अमृतनादोपनिषद्
- शुकरहस्योपनिषद्
- तेजोबिंदोपनिषद्
- कलिसंतरणोपनिषद्
- दक्षिणामूर्ति उपनिषद्
- रुद्रहृदयोपनिषद्
- कठरुद्रोपनिषद्
- शारीरकोपनिषद्
- अक्षिउपनिषद्
- चाक्षुषोपनिषद्
- ध्यानबिंदु उपनिषद्
1. श्वेताश्वतर उपनिषद्
कृष्ण यजुर्वेद से संबंधित 6 अध्यायों व 113 श्लोकों का यह उपनिषद् शैव धर्म का प्रतिनिधि उपनिषद् है, जिसमें परमब्रह्म को रुद्र नाम से संबोधित किया गया है। इसके अतिरिक्त भारतीय षड्दर्शन की एक शाखा सांख्यमत के भी यहां प्रारंभिक सिद्धांत मिलते हैं। इस उपनिषद् का संकलन श्वेताश्वतर ऋषि ने किया था। इस कारण इसे उन्हीं के नाम के आधार पर श्वेताश्वतर उपनिषद् कहा गया।
2. तैत्तिरीयोपनिषद्
तैत्तिरीय उपनिषद् कृष्ण यजुर्वेद से संबंधित 63 श्लोकों से युक्त गद्य रचना है। कहा जाता है कि वैशंपायन ऋषि ने अपने शिष्य याज्ञवल्क्य को सर्वप्रथम इसका उपदेश दिया था, परंतु किसी कारणवश कालांतर में गुरु अपने शिष्य से रुष्ट हो गए और अपने ज्ञान को लौटाने को कहा। याज्ञवल्क्य ने वह ज्ञान रक्त के बमन के माध्यम से उलट दिया, जिसे वहां स्थित अन्य शिष्यों ने तीतर (तैत्तिरय) बनकर ग्रहण कर लिया। तदनुरूप यह उपनिषद् तैत्तिरीयोपनिषद् के नाम से प्रसिद्ध हो गया।
3. कठोपनिषद्
यह उपनिषद् यजुर्वेद की तैत्तरीय शाखा से संबंधित है। इसमें नचिकेता की प्रसिद्ध कहानी है। गीता को उपनिषद् रूपी गायों का दुग्ध कहा गया है। यह उक्ति इस उपनिषद् के संदर्भ में पूर्णतः स्पष्ट होती है, क्योंकि इसकी कई पंक्तियां अक्षरशः वैसे ही गीता में दोहराई गई हैं। इस उपनिषद् में दो अध्याय हैं और प्रत्येक अध्याय तीन तीन वल्लियों में विभाजित हैं। इसमें कुल 189 श्लोक हैं, जो ब्रह्म विद्या का यमराज द्वारा नचिकेता को दिया गया उपदेश है।
4. कैवल्योपनिषद्
कृष्ण यजुर्वेद से संबंधित इस उपनिषद् में प्रजापति ब्रह्माजी द्वारा महर्षि आश्वलायन को आत्मा का स्वरूप और उसे जानने के उपाय का उपदेश दिया गया है। इसका मुख्य उद्देश्य श्रद्धा, भक्ति, ध्यान व योग द्वारा भगवान् नीलकंठ महादेव की प्राप्ति को ही परब्रह्म की प्राप्ति माना गया है।
5. गर्भोपनिषद्
इस उपनिषद् की रचना पिप्पलाद ऋषि द्वारा की गई है। इसीलिए यह पैप्पलाद मोक्षशास्त्र के नाम से भी प्रसिद्ध है। इसमें गर्भ की उत्पत्ति और उसकी वृद्धि के प्रकारों पर प्रकाश डाला गया है। उपनिषद् में शरीर को पंचात्मक, छह आश्रयों वाला, छह गुणों के योग से निर्मित, सात धातुओं से युक्त, तीन मलों से दूषित, दो योनियों से युक्त और चार प्रकार के आहारों से पोषित माना गया।
6. नारायणोपनिषद्
इस उपनिषद् में भगवान् नारायण को ही सर्व देव संभूत, सर्वकारण व सर्वरूप व्यापक माना गया है। तत्पश्चात् 'ॐ नमो नारायणाय', इस अष्टाक्षर मंत्र की महिमा बताई गई है और उसके स्वरूप का वर्णन किया गया है।
7. अमृतनादोपनिषद्
इस उपनिषद् में प्रणव अर्थात् ॐकार की उपासना, योग के 6 अंगों, प्राणायाम की विधि व पांच प्राणों के रंगों का संक्षेप में वर्णन प्रस्तुत किया गया है। प्रत्याहार, ध्यान, प्राणायाम, धारणा, तर्क और समाधि ये 6 योग के अंग बताए गए हैं।
8. शुकरहस्योपनिषद्
भगवान् वेदव्यास जी के पुत्र शुकदेवजी को भगवान् शंकर ने उपनिषदों के रहस्य का उपदेश दिया था। वही उपदेश शुकरहस्योपनिषद् के नाम से प्रसिद्ध है। इस उपनिषद् में तीन खंड हैं, जिसमें से प्रथम खंड में अंगन्यास आदि हैं, जो मूलतः कर्मकांड के भाग हैं जिनको इच्छुक पाठक मूल उपनिषद् में प्राप्त कर सकते हैं।
9. तेजोबिंदोपनिषद्
इस उपनिषद् में प्रणस्वरूप ॐकार की तेजोमय बिंद के रूप में ध्यान करके उसकी उपासना का वर्णन किया गया है। ॐकार के इस बिंदु रूपी ध्यान की महिमा से मनुष्य को परब्रह्म की प्राप्ति होती है और दूषित भावों से उसे मुक्ति मिल जाती है।
10. कलिसंतरणोपनिषद्
इस उपनिषद् में ऐसी कथा आती है कि एक बार द्वापर के अंत में कलियुग के प्रारंभ होने पर नारदजी ब्रह्माजी के पास पहुंचे और उनसे प्रश्न किया कि हे पिताश्री! मैं कलिकाल में भी मर्त्यलोक में भ्रमण करता हुआ किस प्रकार कलि के दोष से मुक्त रह सकता हूं। इस प्रश्न के उत्तर में ब्रह्माजी ने कहा कि हे मैं तुम्हें आज उस रहस्मय मंत्र का उपदेश दूंगा, जिसके जानने से न केवल तुम अपितु कलियुग के समस्त जीव भी भवसागर से पार हो जाएंगे। सोलह नामों वाला यह मंत्र कलि के समस्त पापों का नाश करता है। ब्रह्महत्या, वीरहत्या, स्वर्ण की चोरी आदि जितने भी पाप हैं, उन सबसे मनुष्य इस मंत्र के जाप से तुरंत मुक्त हो जाता है।
11. दक्षिणामूर्ति उपनिषद्
दक्षिणामूर्ति शब्द भगवान् शिव का पर्यायवाची है। इस शब्द का एक 'विशिष्ट' अर्थ है, जो इसके प्रयोग को यहां औपनिषदिक संदर्भ में महत्त्वपूर्ण बनाता है।
12. रुद्रहृदयोपनिषद्
इस उपनिषद् में भगवान् रुद्र (शिव की सर्वव्यापकता, सर्वश्रेष्ठता और ब्रह्मस्वरूप का भगवान् वेदव्यास जी ने अपने पुत्र शुकदेव जी को उपदेश दिया है।
13. कठरुद्रोपनिषद्
इस उपनिषद में प्रजापति द्वारा संन्यास आश्रम के धर्म और ब्रह्म तत्व का विस्तार से वर्णन किया गया है।
14. शारीरकोपनिषद्
जैसा कि इस उपनिषद् के नाम से ही संकेत मिलता है, यह उपनिषद् मानव शरीर की आध्यात्मिक स्तर पर व्याख्या प्रस्तुत करता है।
15. अक्षि उपनिषद् (अक्ष्युपनिषद्)
इस उपनिषद् के दो खंड हैं। प्रथम खंड में नेत्र रोग का नाश करने वाली विद्या का वर्णन है, जिसमें भगवान् साङ्कृति द्वारा भगवान् सूर्य की श्रद्धापूर्वक स्तुति की गई है। यह स्तुति चाक्षुष्मती विद्या के नाम से भी प्रसिद्ध है और ऐसा उल्लेख है कि इस स्तुति से सभी प्रकार के नेत्र रोगों का शमन होता है तथा कुल में कोई अंधा उत्पन्न ही नहीं होता। दूसरे खंड में योग की असंवेदन, विचार, असंसर्गा, स्वप्न, सुष्पतुपद, तुर्या व विदेहमुक्त नामक सात भूमियों का वर्णन प्रस्तुत किया है।
16. चाक्षुषोपनिषद्
अक्ष्युपनिषद् की भांति यह उपनिषद् भी चाक्षुषी विद्या की ही व्याख्या करता है, जिसके पाठ से अद्भुत रूप शीघ्र ही नेत्र रोगों से मुक्ति मिल जाती है। इस विद्या के ऋषि अहिर्बुधन्य हैं, गायत्री छंद है, सूर्य देवता है और नेत्ररोगों की निवृति इसका विनियोग है।
17. ध्यानबिंदु उपनिषद्
इस उपनिषद् में पट्चक्रभेदन के द्वारा कुंडलिनी के मूलाधार से सहस्त्रार तक की यात्रा का बहुत ही संक्षेप में गूढ़ वर्णन प्रस्तुत किया है। सर्वप्रथम ब्रह्म की सर्वव्यापकता को फूलों में सुगंध, तिलो में तेल जैसे रूपकों के माध्यम से स्पष्ट किया गया है।
- अथर्ववेद व उससे संबंधित उपनिषद्
- प्रश्नोपनिषद्
- मुण्डकोपनिषद्
- माण्डूक्योपनिषद्
- नृसिंहोत्तरतापनीयोपनिषद्
- श्रीरामपूर्वतापनीयोपनिषद्
- सीता उपनिषद्
- गोपालपूर्वतापनीय उपनिषद्
- गणपति उपनिषद्
- सूर्योपनिषद्
1. प्रश्नोपनिषद्
प्रश्नोपनिषद् अथर्ववेद की पिप्पलाद शाखा के ब्राह्मण से संबंधित है।
2. मुण्डकोपनिषद्
मुण्डकोपनिषद् अथर्ववेद से ही संबंधित शौनकी शाखा का उपनिषद् है। इसके नाम में 'मुण्ड' धातु का प्रयोग हुआ है, जिसका अर्थ है मुंडन या सिर के केशों को उतरवाना।
3. माण्डूक्योपनिषद्
अथर्ववेद से संबंधित यह उपनिषद् बहुत ही छोटा (केवल 12 श्लोकों से युक्त) परंतु उतना ही महत्त्वपूर्ण है। इस उपनिषद् की विषयवस्तु ॐ के एक विशिष्ट स्वरूप की व्याख्या है, जिसमें अ उ और म की तुलना तीन अवस्थाओं जाग्रत्, सुप्त व सुषुप्त अवस्था से की गई है।
4. नृसिंहोत्तरतापनीयउपनिषद्
अथर्ववेद से संबंधित यह उपनिषद् ॐ नाम से परमात्म तत्व का तथा उनके चार पादों के वर्णन के लिए प्रसिद्ध है।
5. श्री रामपूर्वतापनीयोपनिषद्
दस खंडों के इस उपनिषद् में भगवान् श्री राम की शास्त्रीय पूजा पद्धति की व्यापक, विस्तृत व गूढ़ व्याख्या प्रस्तुत की गई है।
6. सीतोपनिषद्
इस छोटे से उपनिषद् में सीता के दार्शनिक स्वरूप की व्याख्या प्रस्तुत की गई है तथा भगवान् राम को "बैसानख" नाम की विशिष्ट संज्ञा से संबोधित किया गया है।
7. गोपालपूर्वतापनीयोपनिषद्
इस उपनिषद् के पांच भाग हैं, जो उपनिषद् के ही नाम से प्रसिद्ध हैं। प्रथम उपनिषद् में भगवान् कृष्ण के प्रसिद्ध अष्टादशाक्षर मंत्र “ॐ क्लीं कृष्णाय गोविन्दाय गोपीजन बल्लभाय स्वाहा” को प्रस्तुत किया गया है।
8. गणपति उपनिषद् (गणपत्युपनिषद्)
अथर्ववेद से संबंधित यह उपनिषद् भगवान् गणेश की स्तुति व बीजमंत्र प्रस्तुत करता है।
9. सूर्योपनिषद्
अथर्ववेद की प्रकृति के अनुरूप इस उपनिषद् में सूर्यदेव से संबंधित आशु फलदायक मंत्रों का स्वरूप उनकी व्याख्या और उनके माहात्मय की चर्चा की गई है।
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