"जब सम्पूर्ण सृष्टि के रचयिता स्वयं रथ की बागडोर संभाल लें, तब उनके भक्तों की रक्षा कौन रोक सकता है?"
महाभारत के महासंग्राम में ऐसे अनगिनत क्षण आए जब धर्म संकट में था, जब अधर्म अपने चरम पर था। लेकिन हर बार, जब पांडवों पर संकट के बादल मंडराए — तब-तब भगवान श्रीकृष्ण एक दिव्य आशा बनकर प्रकट हुए। वे केवल रथ-सारथी नहीं थे, वे तो स्वयं साक्षात् परमात्मा थे — जो अपने प्रेम और धर्म के प्रति अटूट निष्ठा के कारण पांडवों की ढाल बनकर खड़े रहे।
आज हम उन्हीं दिव्य घटनाओं को स्मरण करेंगे — जब श्रीकृष्ण ने अपने भक्तों की रक्षा के लिए सृष्टि के नियमों तक को झुका दिया। क्योंकि जो त्रिलोक का स्वामी है, उसके लिए असंभव शब्द केवल एक माया है।
भगवान श्रीकृष्ण द्वारा दुर्वासा ऋषि के प्रकोप से पांडवों की रक्षा
हमारे शास्त्रों में ऐसी अनगिनत कथाएँ भरी पड़ी हैं, जो यह सिद्ध करती हैं कि जब भी कोई भक्त सच्चे मन से भगवान को पुकारता है, तो स्वयं नारायण उसकी रक्षा के लिए दौड़े चले आते हैं।
ऐसा ही एक अद्भुत प्रसंग घटित हुआ पांडवों के वनवास काल में, जब ऋषि दुर्वासा — जिनकी क्रोधवृत्ति और शाप की शक्ति से देवता तक कांपते थे — अचानक पांडवों के आश्रम पधारे। पर यह कोई संयोग नहीं था, बल्कि दुर्योधन की गहरी चाल थी। उसने दुर्वासा ऋषि की सेवा करके उन्हें प्रसन्न किया और वरदान में यह माँगा कि वे पांडवों के यहाँ दोपहर के समय जाएँ — वह समय जब द्रौपदी भोजन कर चुकी होती थीं। ऋषि अपने शिष्यों सहित पधारे और आश्रम में आकर स्नान हेतु वन की ओर चले गए, यह कहकर कि वे शीघ्र ही भोजन के लिए लौटेंगे।
उस क्षण की कल्पना कीजिए — एक ओर ऋषि दुर्वासा का भयंकर क्रोध, दूसरी ओर द्रौपदी की असहायता। न कोई अन्न, न कोई उपाय — और समय अत्यंत सीमित। द्रौपदी ने अपनी सारी आशा प्रभु श्रीकृष्ण पर छोड़ दी। हृदय की गहराइयों से पुकारा — "हे माधव!" और तब, जैसे करुणा साकार होकर पांडवों के द्वार पर प्रकट हो गई। श्रीकृष्ण मुस्कराते हुए आए।
उन्होंने द्रौपदी से पूछा, "हे सखी, क्या मेरे लिए कुछ भोजन मिलेगा?"
द्रौपदी अश्रुपूरित नेत्रों से बोलीं, “प्रभु, हम पूर्णतः असहाय हैं।”
श्रीकृष्ण मुस्कराए और बोले, “मुझे केवल एक कण चाहिए — वह एक कण जो तुम्हारे प्रेम से भरा हो।” द्रौपदी ने श्रद्धा से पात्र को देखा और पाया कि उसमें चावल का एक कण अब भी अटका हुआ था। उसने वह कण प्रभु को अर्पित कर दिया।
प्रभु ने उसे प्रेमपूर्वक ग्रहण किया — और त्रिलोक तृप्त हो गया। उधर, दुर्वासा ऋषि और उनके शिष्य, जो स्नान कर रहे थे, एकाएक ऐसा अनुभव करने लगे मानो उन्होंने अभी-अभी अन्नपूर्णा का प्रसाद पाया हो। शरीर तृप्त हो गया, आत्मा को विश्राम मिला। वे समझ गए — यह कोई साधारण बात नहीं थी। यह तो स्वयं श्रीकृष्ण की लीला थी।
वे चुपचाप वहाँ से लौट गए, बिना कोई क्रोध दिखाए, बिना कोई श्राप दिए। कर्ण, अर्जुन और नागास्त्र – जब श्रीकृष्ण ने एक और बार अर्जुन को मृत्यु से बचाया| महाभारत का युद्ध केवल धनुष-बाण की भिड़ंत नहीं था, यह धर्म और अधर्म की सीमाओं का संघर्ष था। यह उन क्षणों का संग्राम था, जब एक-एक पल पर न्याय, निष्ठा और भगवान की करुणा की परीक्षा होती थी। ऐसा ही एक पल आया, जब युद्धभूमि पर दो महायोद्धा आमने-सामने थे — एक ओर दानवीर कर्ण, तो दूसरी ओर अर्जुन, रथ पर साक्षात् परमात्मा श्रीकृष्ण के साथ।
कर्ण के पास एक अत्यंत घातक अस्त्र था — नागास्त्र।
यह वही अस्त्र था, जिसे यदि सही लक्ष्य पर चलाया जाए, तो कोई भी योद्धा उसका सामना नहीं कर सकता था।
और कर्ण ने वही किया — नागास्त्र अर्जुन की ओर पूरे वेग से छोड़ा। वह क्षण एक तीर, एक जीवन अर्जुन की मृत्यु बस कुछ ही पलों की दूरी पर थी। किन्तु, तब श्रीकृष्ण ने अपना पैर रथ की धरा पर रखकर दबा दिया। और उसी क्षण — अर्जुन का रथ कुछ इंच धरती में धँस गया। नागास्त्र ने उड़ान तो सही भरी थी, पर जब वह पहुँचा, तब अर्जुन का सिर थोड़े नीचे हो चुका था।
अस्त्र अर्जुन के मस्तक को नहीं, उसके मुकुट को छू सका।
यह कोई साधारण बचाव नहीं था। यह श्रीकृष्ण की मौन लीला थी — जहाँ शब्द नहीं, कर्म बोले।
धृतराष्ट्र के क्रोध से भीम की रक्षा – श्रीकृष्ण की अपार बुद्धिमत्ता और करुणा
महाभारत का युद्ध समाप्त हो चुका था। कुरुक्षेत्र की भूमि पर विजय का ध्वज तो फहराया गया था, पर हर दिशा में वियोग, शोक और रक्त की महक बसी हुई थी। युद्ध समाप्ति के बाद, पांडव धर्म और मर्यादा के नाते धृतराष्ट्र से मिलने पहुँचे, उस वृद्ध राजा से, जिसने अपने जीवन में पुत्रमोह के चलते धर्म को बार-बार अनदेखा किया था। परंतु यह वही धृतराष्ट्र थे — जिनकी बाँहों में अभी भी अपने सौ पुत्रों की मृत्यु का संताप, पीड़ा और क्रोध धधक रहा था। विशेष रूप से — उस भीम के प्रति, जिसने उनके सबसे प्रिय पुत्र दुर्योधन के समस्त अभिमान को गदा से तोड़ डाला था, जिसने दुःशासन का वध किया था।
जब भीम उनके पास प्रणाम करने को आगे बढ़े, तो भगवान श्रीकृष्ण ने उन्हें रोक दिया। भीम को एक ओर किया, और उनकी जगह वह लोहे की विशाल मूर्ति रखी, जिसे कभी दुर्योधन अपने गदायुद्ध के अभ्यास के लिए प्रयोग करता था — एक लोहे का पिंजर, जो हूबहू भीम के आकार का था।
धृतराष्ट्र ने उसे अपने आलिंगन में लिया — यह समझकर कि यह भीम है।
क्रोध, शोक और अंधे प्रतिशोध से भरकर उन्होंने वह मूर्ति इतनी शक्ति से भींची कि वह लोहे की मूर्ति ही चकनाचूर हो गई।
वो क्षण कल्पना से परे है, धृतराष्ट्र ने जब सुना कि वह भीम नहीं था, तो उनके शरीर में पश्चाताप की सिहरन दौड़ गई। वे कांप उठे — और समझ गए कि यदि श्रीकृष्ण ऐसा न करते, तो एक और विनाश निश्चित था।
अर्जुन की रक्षा हेतु श्रीकृष्ण का अद्भुत निर्णय – घटोत्कच का बलिदान
महाभारत का युद्ध केवल बाहुबल का संग्राम नहीं था। यह एक ऐसा महासमर था, जहाँ हर क्षण धर्म, विवेक, त्याग और भगवद् कृपा की परीक्षा होती थी।
और जब बात अर्जुन जैसे महान धनुर्धर की आती थी — तब प्रभु श्रीकृष्ण स्वयं अपने हर निर्णय को एक दिव्य योजना में बदल देते थे।
कर्ण — वह योद्धा जो जन्म से ही परमशक्तिशाली था, जिसके पास कवच और कुंडल थे।
किन्तु जब इंद्रदेव स्वयं भिक्षा के वेश में आकर उससे यह कवच-कुंडल मांगने आए, तो दानवीर कर्ण ने उन्हें दे दिया।
प्रभावित होकर इंद्र ने उसे एक महा दिव्य अस्त्र प्रदान किया — शक्ति अस्त्र।
एक ऐसा अस्त्र जो अचूक था, अपराजेय था — परंतु केवल एक बार चलाया जा सकता था। कर्ण ने निश्चय किया कि वह इसका प्रयोग अर्जुन पर करेगा — और श्रीकृष्ण यह जानते थे। उन्हें भलीभांति ज्ञात था कि यदि यह अस्त्र अर्जुन पर चला, तो प्राणरक्षक बनना असंभव होगा। इसलिए, उन्होंने रचा एक अद्वितीय उपाय — एक ऐसा त्याग, जो केवल भगवान ही कर सकते हैं।
श्रीकृष्ण ने बुलाया — भीम के बलशाली पुत्र, घटोत्कच को।
घटोत्कच युद्धभूमि में उतरे, और उनके तेज, मायावी शक्ति और असुर परंपरा के विकराल रूप से कौरव सेना में त्राहि-त्राहि मच गई। वह रात अंधकारमयी नहीं, घटोत्कचमयी हो गई थी।
दुर्योधन भयभीत हो गया। समस्त कौरव पक्ष संकट में आ गया। उसने कर्ण से आग्रह किया — "यदि अभी भी तू शक्ति अस्त्र का उपयोग नहीं करेगा, तो हमारी सेना का अंत निश्चित है!" कर्ण ने शक्ति उठाया,और चला दिया। अस्त्र घटोत्कच को लगा — और उसने मृत्यु से पहले अपने शरीर को इतना विशाल कर लिया, कि जब वह भूमि पर गिरा, तो सैकड़ों कौरव सैनिकों को अपने साथ ले गया।
धूल उड़ी, अंधकार छाया, पर प्रभु श्रीकृष्ण की आँखों में एक संतोष की झलक थी। उन्होंने अर्जुन की मृत्यु को एक और बार टाल दिया था — पर इस बार अपने भक्त घटोत्कच का बलिदान देकर।
जरासंध का वध – श्रीकृष्ण की चतुराई और भीम का बल
महाभारत के युद्ध से पूर्व, पांडवों को मगध का शक्तिशाली सम्राट जरासंध से एक बड़ी चुनौती का सामना था। जरासंध , जो कौरवों का साथ देता था, पांडवों के लिए एक विशाल खतरा था। उसकी ताकत, उसकी योजनाएँ और उसकी दुश्मनी पांडवों के लिए निरंतर संकट उत्पन्न करती थी।
एक दिन, श्रीकृष्ण ने जरासंध को चुनौती दी। श्रीकृष्ण ने उसे सीधे युद्ध का आमंत्रण दिया, लेकिन जरासंध ने इस चुनौती का उत्तर देने के लिए भीम को चुना। भीम, जो स्वयं एक शक्तिशाली योद्धा थे, इस युद्ध को एक अंतिम रूप देने के लिए तैयार हो गए थे, परंतु श्रीकृष्ण ने यह जान लिया था कि केवल शारीरिक बल से इस महान शत्रु को परास्त करना संभव नहीं होगा।
यहाँ श्रीकृष्ण की दिव्य बुद्धि ने सभी को चौंका दिया। उन्होंने भीम को एक गुप्त संकेत दिया, एक विशेष तरीका, जिससे जरासंध को हराया जा सकता था। श्रीकृष्ण ने एक तिनका उठाया, और उसे दोनों हाथों से खींचते हुए एक दिशा में फेंका। फिर, उन्होंने दूसरे तिनके को उलटी दिशा में फेंक दिया। यह दिखाया गया कि जरासंध के मृत्यु का मार्ग उसी प्रकार है। जरासंध का शरीर दो हिस्सों में बंट चुका था, और उसी तरह उसका वध केवल तभी संभव था, जब उसे दो हिस्सों में तोड़ा जाए।
भीम ने श्रीकृष्ण की इस रहस्यात्मक योजना को पूरी तरह से समझ लिया। उनके दिल में यह दृढ़ संकल्प था कि अब वह इस महान शत्रु को समाप्त करेंगे। युद्ध भूमि पर, भीम ने अपनी ताकत और श्रीकृष्ण की दी हुई योजना का पालन किया। उन्होंने जरासंध को दोनों हिस्सों में विभाजित कर दिया, जैसा कि श्रीकृष्ण ने संकेत दिया था। जरासंध का वध पांडवों के लिए एक ऐतिहासिक मोड़ था। अब, पांडवों को एक महान शत्रु से मुक्ति मिल गई थी, जो उनकी जीत के रास्ते में एक विशाल अवरोध था।
द्रौपदी का चीरहरण – भगवान श्रीकृष्ण की रक्षा और धर्म की विजय
महाभारत के भीषण युद्ध से पहले एक ऐसा समय आया, जो इतिहास में सर्वाधिक अपमानजनक था।
यह वह समय था जब युधिष्ठिर, पांडवों के आदर्श राजा, ने दुर्योधन के द्वारा खेली गई चाल में अपने राज्य और अपनी पत्नी द्रौपदी को खो दिया था।
यह अपमानजनक हार पांडवों के लिए शारीरिक और मानसिक रूप से असहनीय थी, लेकिन सबसे अधिक जो विचलित करने वाला था, वह था द्रौपदी का अपमान।
दुर्योधन ने दुषाशन को आदेश दिया, "द्रौपदी को राजमहल में ले आओ।"
यह सुनकर द्रौपदी का हृदय टूट गया। वह अपने अपमान से बेहद व्याकुल हो उठी। उसने भगवान श्रीकृष्ण को अपनी आंतरिक शक्ति और साहस के रूप में महसूस किया, और उनसे सहायता की प्रार्थना की।
द्रौपदी ने श्रीकृष्ण को पुकारा, "हे कृष्ण, मेरे जीवन में केवल तुम ही एकमात्र सहारा हो। मेरी रक्षा करो। "
तभी, जब दुषाशन ने द्रौपदी के वस्त्र खींचने शुरू किए, तो अद्भुत और दिव्य घटना घटित हुई। द्रौपदी का साड़ी कभी खत्म नहीं हुई। जैसे-जैसे दुषाशन ने उसे खींचा, वैसे-वैसे और अधिक साड़ी प्रकट होने लगी। दुषाशन थक-हार कर जमीन पर गिर पड़ा, उसकी सारी ताकत समाप्त हो गई, और द्रौपदी का सम्मान बच गया। यह भगवान श्रीकृष्ण की अद्भुत कृपा का प्रमाण था।
यह न केवल द्रौपदी और उसके आत्मसम्मान की रक्षा थी, बल्कि यह धर्म की विजय का एक स्पष्ट उदाहरण था।
निष्कर्ष:
महाभारत केवल एक युद्ध नहीं, बल्कि धर्म और अधर्म के बीच संघर्ष की गाथा है। इस संघर्ष में श्रीकृष्ण ने केवल मार्गदर्शक बनकर नहीं, बल्कि संकट के हर मोड़ पर पांडवों के रक्षक बनकर भी अपनी लीला दिखाई। चाहे वह लाक्षागृह की आग हो, चीरहरण का अपमान, या युद्धभूमि में अर्जुन का मोह — हर बार श्रीकृष्ण ने धर्म की रक्षा करते हुए पांडवों को संबल दिया। यही उनके 'योगेश्वर' स्वरूप की महानता है, जो दर्शाता है कि जब-जब धर्म संकट में होगा, तब-तब श्रीकृष्ण अवश्य प्रकट होंगे।
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