क्यों हुआ ऋषि वशिष्ठ और ऋषि विश्वामित्र के मध्य युद्ध - Famous Adi Rishi in india
धर्म एवं कर्म की तपोभूमि - भारत विश्वपटल पर संस्कृति एवं आध्यात्मिक चेतना के ध्वजवाहक के रूप में सुशोभित है। भारतीय सनातन परम्परा की इस तपोभूमि के पालनकर्ता, सरंक्षक, संवाहक और कार्यवाहक – ऋषि शताब्दियों से धर्म-कर्म, ज्ञान और दर्शन के प्रदाता तथा प्रतिनिधि की उपाधि से सम्मानित रहे हैं।
ऋषियों की महिमा और सनातन परंपरा
प्राचीन काल ही नहीं, आज के परिदृश्य में भी, ऋषि भारतीय समाज में अत्यंत आदरणीय एवं श्रद्धाभाव से युक्त पद पर विराजमान हैं।
ॠषित्येव गतौ धातु: श्रुतौ सत्ये तपस्यथ्।
एतत् संनियतस्तस्मिन् ब्रह्ममणा स ॠषि स्मृत:॥
वायु पुराण में वर्णित इस श्लोक के अनुसार, ऋषि धातु के चार अर्थ होते हैं – गति, श्रुति, सत्य तथा तपस। सृष्टि के रचियता परमपिता ब्रह्मा जी द्वारा प्रदत्त इन गुणों के धारक को ऋषि की संज्ञा प्राप्त होती है। भारतीय सनातन परम्परा में 7 प्रकार के ऋषियों का उल्लेख है – ब्रह्मर्षि, देवर्षि, महर्षि, परमर्षि, काण्डर्षि, श्रुतर्षि और राजर्षि।
विश्व के प्राचीनतम और पवित्रतम धर्मग्रन्थ वेद के अनुसार 7 ऋषिकुल हैं, जो 7 ऋषियों के आधार पर विद्यमान हैं – जिन्हें सप्तऋषि द्वारा संबोधित किया जाता है।
सप्तऋषियों का योगदान
सप्तऋषि की सूची में अत्यंत महत्वपूर्ण और आदरणीय ऋषि थे - ऋषि वशिष्ठ, जिनका भारतीय संस्कृति और इतिहास में अतुलनीय योगदान है। वशिष्ठ का शाब्दिक अर्थ है सर्वाधिक प्रकाशवान, श्रेष्ठ, उत्कृष्ट और पूजनीय, जो ऋषि वशिष्ठ के महिमामयी व्यक्तित्व को भी परिभाषित करता है। वैदिक काल के विख्यात ऋषि – वशिष्ठ, सप्त ऋषियों में से एक थे, जिन्हें ईश्वर द्वारा सत्य का ज्ञान प्राप्त हुआ था तथा जिन्होंने वेद दर्शन का भी सौभाग्य अर्जित किया था। ऋग्वेद के मंत्रद्रष्टा और गायत्री मंत्र के महान साधक, वशिष्ठ ऋषि की महिमा अपार थी।
मान्यता है कि त्रिकालदर्शी और अत्यंत ज्ञानवान ऋषि वशिष्ठ, परमपिता ब्रह्मा के मानस पुत्र थे। सूर्यवंशी नरेश दशरथ के राजकुल गुरु, ऋषि वशिष्ठ ने ही प्रभु श्रीराम, लक्ष्मण, भरत और शत्रुघ्न को शिक्षा-दीक्षा से संपन्न किया था। उनकी आज्ञा से ही सूर्यवंशी नरेश सभी धार्मिक कार्य करते थे।
ऋषि वशिष्ठ और विश्वामित्र की कथा
ऋग्वेद के अनुसार, महर्षि वशिष्ठ ने सर्वप्रथम अपना आश्रम सिन्धु नदी के तट पर निर्मित किया था। कालांतर में उन्होंने गंगा और सरयू नदी के तट पर भी अपने आश्रम की स्थापना की। सरयू नदी के तट पर स्थित गुरुकुल में ही सूर्यवंशी राजकुमारों ने अन्य सामान्य छात्रों सहित शिक्षा अर्जित की थी।
महर्षि वशिष्ठ की पत्नी अरुंधती, कर्दम ऋषि की पुत्री थीं। धार्मिक और कर्तव्यपरायण माता अरुंधती, वैदिक और सभी धार्मिक कार्यों में ऋषि वशिष्ठ की सहभागी थीं, जिन्होंने उनके साथ एक आदर्श, उत्तम और श्रेष्ठ गृहस्थ जीवन का उदाहरण समाज के समक्ष प्रस्तुत किया।
ऋषि वशिष्ठ के आश्रम और धार्मिक स्थल
वैदिक काल की एक महत्वपूर्ण पौराणिक घटना के द्वारा महाराज विश्वामित्र का अत्यंत तेजस्वी ब्रह्मऋषि विश्वामित्र के रूप में आविर्भाव और ऋषि वशिष्ठ की महानता का ज्ञान प्राप्त होता है। जब महाराज विश्वामित्र अपनी सेना सहित ऋषि वशिष्ठ के आश्रम पहुंचे, तब ऋषि वशिष्ठ ने उनका और उनकी सेना का आदर-सत्कार किया तथा देवी कामधेनु गौ की पुत्री नंदिनी गौ की कृपा से उनके भोजन और सुख-सुविधा की व्यवस्था की। नंदिनी गौ के चमत्कार से हतप्रभ होकर महाराज विश्वामित्र ने ऋषि वशिष्ठ से नंदिनी गौ को उन्हें प्रदान करने का अनुरोध किया, किन्तु ऋषि वशिष्ठ ने ऐसा करने में अपनी असमर्थता व्यक्त की। तब महाराज विश्वामित्र ने सेना के बल पर नंदिनी गौ को ले जाने का प्रयास किया, किन्तु नंदिनी गौ ने योगबल से मारक शस्त्रों से युक्त पराक्रमी योद्धाओं को उत्पन्न किया, जिन्होंने शीघ्र ही विश्वामित्र की सेना को नष्ट कर दिया।
एक ब्राह्मण द्वारा प्राप्त हुई पराजय के कारण, विश्वामित्र ने ऋषि वशिष्ठ से प्रतिशोध लेने का निर्णय किया और हिमालय में घोर तपस्या करके दिव्यास्त्रों को प्राप्त कर लिया। प्रतिशोध लेने के लिए ऋषि वशिष्ठ के आश्रम पहुंचकर, उन्होंने दिव्यास्त्रों का प्रयोग किया, किन्तु ऋषि वशिष्ठ को परास्त नहीं कर सके। विश्वामित्र ने ऋषि वशिष्ठ के 100 शिष्यों का भी वध कर दिया, किन्तु ऋषि वशिष्ठ ने उन्हें क्षमा कर दिया। बारम्बार पराजित होने पर, अंत में विश्वामित्र ने पुनः कठोर तपस्या की, जिससे प्रसन्न होकर ब्रह्मा जी ने उन्हें ऋषि की उपाधि प्रदान की। ऋषि वशिष्ठ ने विश्वामित्र को ब्रह्मऋषि की उपाधि से संबोधित करके, ऋषि विश्वामित्र की तपस्या को सफल किया।
इस प्रकार ऋषि वशिष्ठ ने क्षमाशीलता का अद्वितीय आदर्श प्रस्तुत किया तथा समाज में प्रेम और क्षमा के पाठ का प्रतिपादन किया। महर्षि वशिष्ठ का जीवनकर्म इतना प्रभावशाली था कि उन्हें आदि शंकराचार्य द्वारा हिंदू दर्शन की वेदांत शिक्षा के प्रथम संत के रूप में संबोधित किया गया है।
भारतीय दर्शन और ऋषि परंपरा
आध्यात्म और जीवन दर्शन के ज्ञान को समाहित किये हुए अद्वैत वेदांत का अति-महत्वपूर्ण और उत्कृष्ट ग्रन्थ – योग वशिष्ठ, गुरु महर्षि वशिष्ठ और शिष्य प्रभु श्रीराम के विस्तृत वार्तालाप का संयोजन है। मान्यता है कि जीवन-मृत्यु, सुख-दुख, जड़ और चेतन, लोक-परलोक, बंधन और मोक्ष, ब्रह्म और जीव, आत्मा और परमात्मा, आत्मज्ञान और अज्ञान, सत्-असत् आदि विषयों पर कदाचित् ही कोई ग्रंथ हो जिसमें ‘योगविशिष्ठ’ की अपेक्षा अधिक गंभीर चिंतन तथा सूक्ष्म विश्लेषण हुआ हो। योग वशिष्ठ में अद्भुत प्राचीन दार्शनिक चिंतन प्रणाली है, जो काल से बद्ध न होकर, हर युग में अत्यंत प्रभावशाली है।
महर्षि वशिष्ठ को समर्पित अनेकानेक मंदिर, आश्रम और गाँव उनकी अलौकिक महिमा का यशोगान करते हैं। आकाश में दैदीप्यमान नक्षत्रों में महर्षि वशिष्ठ का भी स्थान माना जाता है।
भारत माता का नमन
भारतीय सनातन परंपरा के गौरव ऋषि वशिष्ठ को भारत माता की ओर से कोटि-कोटि नमन।