गुरु द्रोणाचार्य की कहानी | गुरु द्रोण | Guru Dronacharya - Bharat Mata

एक गुरु जिसने सदा अपने कर्तव्य को प्राथमिकता दी। 
लेकिन उसी ने अभिमन्यु के लिए चक्रव्यूह की रचना की। 
जिसकी शिक्षा ने अर्जुन को "द्रोण शिष्यअर्जुन" की पहचान दी। 
लेकिन उसी ने गुरु दक्षिणा के रूप मे एकलव्य की पहचान छीन ली। 

द्रोणाचार्य: महान गुरु | मुख्य शिक्षा | A Complete Biography

द्रोणाचार्य को समस्त भारत के सबसे महान गुरुओं में से एक माना जाता है। वह दुनिया के उन चंद गुरुओं में से एक हैं जिनके शिष्य ने उनका सम्मान बढ़ाया। महाभारत में अर्जुन से सभी परिचित हैं, और अर्जुन की पहचान "द्रोण शिष्यअर्जुन" के रूप में है। हालाँकि वह पूरे कुरु वंश के गुरु थे, परंतु अर्जुन उन सभी में उनके सबसे पसंदीदा शिष्य थे। द्रोणाचार्य का जन्म एक साधारण बालक की तरह नहीं हुआ था। उनका जन्म एक बर्तन मे हुआ था और इसी कारण उनका नाम द्रोणा रखा गया था। द्रोणाचार्य ऋषि भारद्वाज के पुत्र थे। उनकी माता का नाम घृताची था। ऋषि भारद्वाज एक गुरुकुल संचालित करते थे। गुरु द्रोणाचार्य की प्रारम्भिक शिक्षा अपने पिता के गुरुकुल मे ही सम्पन्न हुई थी। उस आश्रम मे ही उनकी मित्रता द्रुपद से हुई थी। दोनों मित्रों ने एक दूसरे को वचन दिया था की कठिन समय मे सदा एक दूसरे के सहायक बनेंगे। गुरु द्रोणाचार्य का विवाह कृपी से हुआ था और उनका एक पुत्र था जिसका नाम अश्वत्थामा था।

द्रोणाचार्य और द्रुपद की मित्रता

द्रोणाचार्य सदा भौतिकवादी चीज़ों से दूर रहे इसलिए उनकी आर्थिक स्थिति ठीक नहीं थी। एक दिन उन्होंने देखा कि उनकी पत्नी कृपी अश्वत्थामा को दूष रूप में पानी में पिसे हुए चावल पिला रही थी। यह देखकर उन्हें अपने मित्र द्रुपद की याद आती है, जिन्होंने आवश्यकता पड़ने पर उनकी सहायता करने का वचन दिया  था। यह सोचकर वह ध्रुपद के दरबार में जाते हैं। उस समय द्रुपद पांचाल के राजा थे और गुरु द्रोणाचार्य एक गरीब ब्राह्मण। द्रुपद को अपनी समृद्धि पर घमंड हो गया और उसने द्रोणाचार्य को अपना मित्र मानने से इंकार कर दिया। हालाँकि उन्होंने द्रोणाचार्य की सहायता करने की बात कही लेकिन दयालुता की भावना से। अपने मित्र की ऐसी बातों से गुरु द्रोणाचार्य को बहुत हीन भावना महसूस होती है और वे द्रुपद की सहायता अस्वीकार कर देते हैं। 

अर्जुन: द्रोण का प्रिय शिष्य

द्रोणाचार्य ने द्रुपद से सहायता लेने से इनकार कर दिया, परन्तु उन्होंने अपने परिवार का समर्थन करने के लिए कुरु वंश का गुरु बनना स्वीकार कर लिया। उन्होंने कुरु वंश के राजा पांडु और धृतराष्ट्र के पुत्रों को अपना शिष्य बनाया और उन्हें उस समय की सर्वोत्तम शिक्षा प्रदान की। अर्जुन राजा पांडु के पुत्र थे और उन्हें धनुष विद्या में विशेष रुचि थी। भीम और दुर्योधन दोनों को गदायुद्ध में विशेष रुचि थी। धर्मराज युधिष्ठिर को भाले का विशेष प्रशिक्षण दिया गया क्योंकि उनकी रुचि इसमें अधिक थी। उन्होंने कुरुवंश के सभी राजकुमारों को उत्कृष्ट शिक्षा दी। अर्जुन को आज भी धनुर्विद्या में सर्वश्रेष्ठ माना जाता है। गदा युद्ध में भीम और दुर्योधन दोनों ही महान योद्धा माने जाते हैं।
हालाँकि, जब उन्होंने अपने आश्रम में कुरु वंश के राजकुमारों को शिक्षा दी, तो उन्होंने उनके साथ अपने पुत्र अश्वत्थामा को भी शिक्षा दी। उन्हें अपने पुत्र अश्वत्थामा से अगाध प्रेम था। इसी प्रेम के कारण उन्होंने उसे ब्रह्मास्त्र चलाना भी सिखाया। 

महाभारत के महान योद्धा: अर्जुन और एकलव्य 

इस संसार मे जब भी द्रोणाचार्य का नाम लिया जाता है, तो अर्जुन के साथ उनके एक अन्य शिष्य का नाम भी आता है। वो नाम है एकलव्य। एकलव्य जाति से भील थे और उन्हें धनुर्विद्या सीखने में विशेष रुचि थी। वह धनुर्विद्या सीखने के लिए गुरु द्रोणाचार्य के पास जाते हैं। गुरु द्रोणाचार्य ने एकलव्य को शिक्षा देने से इंकार कर दिया था। उनका कहना है कि इस समय वह कुरु वंश के गुरु हैं और कुरु वंश के प्रति निष्ठावान रहना उनका कर्तव्य है। 
एकलव्य उनकी बातें सुनकर लौट आते हैं, परंतु धनुर्विद्या में रुचि होने के कारण वह अभ्यास करते रहते हैं। वह गुरु द्रोणाचार्य को अपना गुरु मानकर उनकी मूर्ति स्थापित कर धनुर्विद्या सीखते हैं।

एकलव्य की गुरु दक्षिणा

एक दिन जब गुरु द्रोणाचार्य देखते हैं कि एक श्वान का मुँह बाणों से भरा हुआ है, तो वह उसके पास जाते हैं तो वहाँ एकलव्य को देखते हैं। तब द्रोणाचार्य को पता चलता है की एकलव्य ने सारी विद्या उन्हे गुरु मान कर ली है। तब गुरु द्रोणाचार्य गुरु दक्षिणा मांगते हैं तो वह वचन देते हैं कि वे जो भी मांगेंगे वह उन्हें अवश्य देंगे। तब द्रोणाचार्य उससे उसके दाहिने हाथ का अंगूठा मांगते हैं। एकलव्य नम आँखों से अपना दाहिना अंगूठा उन्हें दान कर देता है। इस पर गुरु द्रोणाचार्य एकलव्य से उसके दुःख के बारे में कहते हैं, तुम इसलिये दुःखी हो क्योंकि मैंने तुमसे दान में तुम्हारा अंगूठा माँगा था। इसका एकलव्य बहुत ही शानदार उत्तर देता है- मुझे दुःख इस बात का नहीं है कि आपने मुझसे मेरा अंगूठा माँगा है, बल्कि दुःख इस बात का है कि मैं मात्र अपना अंगूठा ही दक्षिणा में दे सका। एकलव्य की इस बात से गुरु द्रोणाचार्य बहुत प्रभावित हुए और उसे आशीर्वाद दिया कि जब भी धनुर्विद्या की बात आएगी तो एकलव्य का नाम बड़े आदर से लिया जाएगा और दुनिया उन्हे एक महान धनुर्धर के रूप में जानेगी।

महाभारत युद्ध में द्रोणाचार्य की भूमिका | चक्रव्यूह की रचना और उसका महत्व

गुरु द्रोणाचार्य ने महाभारत के युद्ध मे अति महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी, उस युद्ध के अति प्रसिद्ध चक्रव्यूह को रचने वाले गुरु द्रोणाचार्य ही थे। लेकिन उसी युद्ध मे नियति ने एक और खेल दिखाया। सोचिए ऐसा क्यूँ है की द्रोणाचार्य की मृत्यू की सिर्फ धृष्टद्युम्न के हाथों हो सकती थी? क्यूँ की उसका जन्म ही इस प्रतिशोध के लिए हुआ था।

अश्वत्थामा की झूठी मृत्यु की योजना | गुरु द्रोणाचार्य का अंत

महाभारत के युद्ध मे कृष्ण ने एक योजना बनाई थी और उस योजना के अनुसार युद्ध में ये बात फैला दी गयी की अश्वथामा मारा गया। मगर धर्मराज युधिष्ठिर झूठ बोलने के लिए नहीं माने। ऐसे में अवन्तिराज के एक हाथी जिसका नाम अश्वत्थामा था, उसका भीम द्वारा वध कर दिया गया।
युद्धभूमि में अश्वत्थामा की मृत्यु की खबर फ़ैल गयी।

गुरु द्रौणाचार्य स्वयं इस बात की पुष्टि के लिए युधिष्ठिर के पास आए। मगर जैसे ही धर्मराज ने उत्तर दिया कि अश्वत्थामा मारा गया, परंतु हाथी, श्रीकृष्ण ने उसी समय शंखनाद कर दिया। उस ध्वनि के कारण द्रोणाचार्य आखिरी के शब्द ‘परंतु हाथी’ नहीं सुन पाएं। उन्हें ये विश्वास हो गया कि युद्ध में उनका पुत्र अश्वत्थामा मारा गया। अपने पुत्र की मृत्यु का समाचार सुनने के बाद द्रोणाचार्य ने शस्त्र त्याग दिए और रणभूमि में ही शोक में डूब गए।

इस मौके का लाभ उठाकर द्रौपदी के भाई धृष्टद्युम्न ने निहत्थे द्रोणाचार्य का सर धर से अलग कर दिया। 

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