Mahaprabhuji Vallabhacharya | अग्नि देव के अवतार श्री वल्लभाचार्य | महाप्रभु वल्लभाचार्य

अधरं मधुरं वदनं मधुरं नयनं मधुरं हसितं मधुरम् ।

हृदयं मधुरं गमनं मधुरं मधुराधिपतेरखिलं मधुरम् ॥ १ ॥

ये भगवान कृष्ण के विषय में रचित अति प्रसिद्ध गद्यों में से एक की पंक्तियाँ हैं, जो मधुराष्टकम् के रूप में संकलित हैं। यह भक्ति रचना श्री वल्लभाचार्य द्वारा लिखी गई थी।

Mahaprabhuji Vallabhacharya जीवन दर्शन

श्री वल्लभाचार्य जी का जन्म वैशाख माह की कृष्ण एकादशी के दिन हुआ था। इनके पिता का नाम श्रीलक्ष्मण भट्टजी और माता का नाम इल्लमागारु भट्टजी था। उस समय इनके माता-पिता आक्रमण व मृत्यु के भय से दक्षिण भारत जा रहे थे, तब मध्य मार्ग में ही छत्तीसगढ़ के रायपुर नगर के निकट चंपारण में वर्ष 1478 में वल्लभाचार्य जी का जन्म हुआ था, और उन्होंने अपने पुत्र का नाम ‘वल्लभ’ रखा जिसका अर्थ है ‘अत्यंत प्रिय’। 

इसके पश्चात् उनकी शिक्षा-दीक्षा संपूर्णतः वहीँ संपन्न हुयी। सात वर्ष की आयु में ही उन्होंने चारों वेदों का ज्ञानार्जन प्रारंभ किया। धर्मग्रंथों में शीघ्र महारत प्राप्त  करने के पश्चात्, उन्होंने जैन और बौद्ध विद्यालयों, निम्बार्क, रामानुज और आदि शंकराचार्य की अन्य दार्शनिक प्रणालियों को भी सीखा। उनकी निपुणता ऐसी थी कि अपने ज्ञान से उन्होंने लक्ष्मण बालाजी और व्यंकटेश्वर की जनता को प्रभावित किया जिसके पश्चात् वल्लभ जी को मात्र 11 वर्ष की आयु में ही बाल सरस्वती की उपाधि दी गई थी। 

Jagat Guru Shreemad Vallabhacharya Mahaprabhuji

वल्लभ ने राजा कृष्णदेवराय के दरबार भगवान के द्वैत या अद्वैत होने के विषय में वैष्णवों और शैवों के बीच बहस में भाग लिया था। यह बहस 27 दिनों तक केंद्र कक्ष में चली, जिसके अंत में वल्लभ को विजयी घोषित किया गया। इसके पश्चात् उन्हें 'आचार्य' और 'जगद गुरु' की उपाधियों से अलंकृत किया गया। 

वल्लभाचार्य का दार्शनिक सिद्धांत |  पुष्टिमार्ग के प्रवर्तक

वल्लभाचार्य के अनुसार तीन ही तत्व हैं- ब्रह्मा , ब्रम्हांड,और आत्मा। जिसका अर्थ है इश्वर, जगत, और जीव। उनके अनुसार ब्रह्मा ही एकमात्र सत्य हैं जो सर्वव्यापक और अन्तर्यामी हैं। वल्लभाचार्य कृष्ण भक्त थे इसलिए उन्होंने कृष्ण को ब्रह्मा मानकर कर उनकी महिमा का वर्णन किया। अपने जीवनकाल में वल्लभाचार्य ने भारत की तीन तीर्थयात्राएँ कीं जो सांप्रदायिक स्रोतों में प्रलेखित हैं। उन्होंने 84 अलग-अलग स्थानों पर भागवत पर प्रवचन दिए जो बाद में चौरासी बैठक के नाम से प्रसिद्ध हुए। इन स्थानों को पवित्र तीर्थ माना जाता है। वल्लभ जी का ब्रज से विशेष संबंध था और वह साल के चार महीने उस क्षेत्र में व्यतीत करते थे। गोकुल पहुंचने पर, वल्लभाचार्य को आभास हुआ कि वह लोगों को भक्ति मार्ग पर बहाल करना चाहते थे। उन्होंने अपने इष्टदेव भगवान श्रीकृष्ण का ध्यान किया। उस ध्यान में यह था कि उन्हें ब्रह्म संबंध, कृष्ण के प्रति स्वयं को समर्पित करने का एक मंत्र, प्रदान किया गया था। अगली सुबह वल्लभाचार्य ने अपने सबसे प्रिय भक्त दामोदरदास को मंत्र की दीक्षा दी और वह पुष्टिमार्ग में शामिल होने वाले प्रथम वैष्णव बन गए। पुष्टिमार्ग को वल्लभाचार्य संप्रदाय के नाम से भी जाना जाता है, इसका शाब्दिक अर्थ है कृपा का मार्ग, यह एक वैष्णव उपपरंपरा थी जिसे वल्लभ जी ने प्रारंभ किया था। जब उन्होंने कृष्ण की कृपा के बारे में प्रचार किया और अनुयायियों को ब्रह्म संबंध से दीक्षित किया तो सहस्त्र अनुयायी उनकी शिक्षा में उनके साथ जुड़ गए। पथ के मूल्य श्रीमद्भागवतम में पाए गए, जो कृष्ण के नाटकों पर केंद्रित भक्ति प्रथाओं पर आधारित थे। पुष्टिमार्ग में कृष्ण को श्री द्वारकाधीशजी, श्री विट्ठलनाथजी, श्री मदनमोहनजी और श्रीनाथ जैसे कई नाम दिए गए। 

कृष्ण भक्त वल्लभाचार्य | shree vallabhacharya

श्री वल्लभाचार्य जी ने श्रीमद्भागवतम् और ब्रह्म-सूत्र पर कई टिप्पणियाँ लिखीं, और अपने अनुयायियों को उनकी भक्ति के मार्ग पर सहायता करने हेतु, उन्होंने षोडश ग्रंथ नामक 16 छंदों की रचना की। ये श्लोक सेवा और स्मरण के माध्यम से कृष्ण के प्रति प्रेम विकास की बात करते हैं। श्री वल्लभाचार्य भक्ति आंदोलन के प्रथम समर्थकों में से एक थे, जिन्होंने गृहस्थों के दैनिक जीवन में भक्ति पहलुओं को एकत्रित किया। उनकी शिक्षाओं ने न केवल अनेक लोगों के जीवन में विश्वास और भक्ति का संचार किया अपितु उन्हें यह आभास भी कराया कि उनका जीवन एक खेल है। इस विश्वास ने उन्हें तनाव और चिंता रहित जीवन जीने में सहायता की। 

वल्लभाचार्य जी द्वारा दिए ज्ञान व शिक्षा का भारत वर्ष सदैव वंदन करेगा। 

भारत समन्वय परिवार भारत माता चैनल के माध्यम से श्री वल्लभाचार्य जी को सादर प्रणाम करता है।

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