गोपीनाथ बोरदोलोई: भारत रत्न जिन्होंने असम को विभाजन से बचाया | Gopinath Bordoloi | Bharat Mata
भारतवर्ष में ऐसे अनेक नायक हुए हैं, जिनका योगदान राष्ट्र निर्माण की नींव में अमिट रूप से समाहित है, परंतु विडंबना यह रही कि समय ने उन्हें वह पहचान नहीं दी जिसके वे वास्तविक हकदार थे। उनके त्याग, संघर्ष और सेवा की महत्ता को जानने में राष्ट्र ने देर कर दी। लोकप्रिय गोपीनाथ बोरदोलोई भी ऐसे ही नायकों में से एक थे — एक ऐसा नाम, जो असम की सीमाओं से परे जाकर पूरे पूर्वोत्तर भारत की आत्मा और आवाज़ बना। जब उन्हें मरणोपरांत भारत रत्न से सम्मानित किया गया, तो यह केवल एक सम्मान नहीं था, बल्कि भारत की उस ऐतिहासिक भूल का परिमार्जन था, जिसमें हमने अपने ही एक सच्चे राष्ट्रनिर्माता को अनदेखा किया। बोरदोलोई न केवल असम के पहले मुख्यमंत्री थे, बल्कि वे एक ऐसे नेता थे, जिनके प्रयासों से पूर्वोत्तर भारत ने भारतीय गणराज्य की मुख्यधारा से जुड़ाव पाया।
गोपीनाथ बोरदोलोई का प्रारंभिक जीवन और शिक्षा
गोपीनाथ बोरदोलोई का जन्म 6 जून 1890 को हुआ था। गोपीनाथ बोरदोलोई का बचपन और शिक्षा सामाजिक संवेदनाओं से भरा हुआ था। उनके पिता एक चिकित्सक थे और उनके घर में सामाजिक कल्याण की चर्चा आम थी, जिससे उनके मन में बचपन से ही सेवा का भाव उत्पन्न हुआ। उन्होंने कलकत्ता विश्वविद्यालय से शिक्षा प्राप्त की और इस दौरान वे बंगाल नवजागरण काल के प्रभाव में आए। सुरेन्द्रनाथ बनर्जी, रवींद्रनाथ ठाकुर और जगदीश चंद्र बोस जैसे महान विचारकों से प्रभावित होकर बोरदोलोई ने कांग्रेस से जुड़ने का निर्णय लिया।
असहयोग आंदोलन और कांग्रेस से जुड़ाव
1921 में जब कांग्रेस ने असम में कदम रखा, तब बोरदोलोई ने सक्रिय रूप से असहयोग आंदोलन में भाग लिया और असम में कांग्रेस की उपस्थिति को मजबूत किया। हालांकि चौरी-चौरा कांड के बाद आंदोलन को रोक दिया गया, बोरदोलोई ने राजनीति से कुछ समय के लिए अलग होकर वकालत में हाथ आजमाया और लोगों को न्याय दिलाने की दिशा में काम किया।
ब्रिटिश शासन की राजनीति और मुख्यमंत्री पद की चुनौती
1935 में भारत सरकार अधिनियम लागू हुआ और इसके तहत असम में चुनाव आयोजित हुए। बोरदोलोई ने इन चुनावों में भारी बहुमत से जीत हासिल की, लेकिन ब्रिटिश सरकार ने साजिश के तहत मुस्लिम लीग के मोहम्मद सादुल्लाह को मुख्यमंत्री बना दिया। इसके बावजूद बोरदोलोई की लोकप्रियता बढ़ी और सादुल्लाह की सरकार गिर गई। 21 सितंबर 1938 को बोरदोलोई असम के मुख्यमंत्री बने और उनका शासन असम को कांग्रेस के साथ जोड़ने में महत्वपूर्ण साबित हुआ। 1939 में द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान महात्मा गांधी ने भारतीयों को युद्ध में भेजने का विरोध किया और बोरदोलोई ने अन्य मुख्यमंत्रियों की तरह इस्तीफा दे दिया। इस राजनीतिक अस्थिरता का फायदा उठाकर सादुल्लाह फिर से मुख्यमंत्री बने और बोरदोलोई को जेल भेज दिया गया। जेल में रहते हुए बोरदोलोई को यह जानकारी मिली कि सादुल्लाह और मुस्लिम लीग असम में पाकिस्तान समर्थकों को बसाकर असम को पूर्वी बंगाल के साथ मिलाकर पाकिस्तान का हिस्सा बनाने की योजना बना रहे थे। बोरदोलोई ने अपनी स्थिति का पता चलते ही असम को पाकिस्तान से अलग रखने की दिशा में कदम उठाना शुरू किया।
असम को स्वतंत्र पहचान दिलाने का संघर्ष
1944 में बोरदोलोई जेल से रिहा हुए और असम को बंगाल से अलग पहचान दिलाने के लिए उन्होंने विभिन्न नेताओं से मिलकर कार्य शुरू किया। 1946 में उन्होंने चुनाव जीतकर एक मजबूत सरकार बनाई और असम को पाकिस्तान से जोड़ने के लिए बने विभाजन आयोग के प्रस्ताव का विरोध किया। आयोग ने असम को C श्रेणी में रखकर बंगाल के साथ जोड़ा, लेकिन बोरदोलोई ने इसका विरोध किया। जब जिन्ना ने गुवाहाटी में अपनी उपस्थिति दर्ज कराई और पाकिस्तान का समर्थन किया, बोरदोलोई ने उनका दृढ़ता से विरोध किया और कहा कि “जिन्ना चाँद को ज़मीन पर लाने का सपना देख सकते हैं, लेकिन असम को भारत से अलग कर पाकिस्तान में मिलाना उनका सपना ही रहेगा।।“ जिन्ना के दबाव के बावजूद बोरदोलोई ने असम में दंगा नहीं होने दिया और भारत की एकता बनाए रखने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।
बोरदोलोई का जीवन न केवल एक राजनीतिक नेता का था, बल्कि एक सामाजिक और सांस्कृतिक परिवर्तनकारी का था। उन्होंने असम में सामाजिक और सांस्कृतिक सुधार किए, और आदिवासी समाज, खेतिहर मजदूरों और आम जनता के लिए कार्य किया। उनके शासन में असम को मेडिकल कॉलेज, इंजीनियरिंग संस्थान और कृषि विश्वविद्यालय जैसी आधारभूत सुविधाएँ प्राप्त हुईं। बोरदोलोई ने हमेशा यह सुनिश्चित किया कि समाज के सभी वर्गों को सम्मान और प्रतिनिधित्व मिले। उनके शासन में समावेशी प्रशासन का आदर्श प्रस्तुत किया गया, जिसमें सभी को समान अवसर मिले।
वे अहंकार और भव्यता से दूर रहते हुए एक साधारण जीवन जीते थे। उनका मानना था कि समाज का निर्माण केवल सत्ता से नहीं, बल्कि विचारों से होता है। यही कारण था कि वे आज भी असम के युवाओं के आदर्श बने हुए हैं। वे केवल एक राजनेता नहीं, बल्कि एक सांस्कृतिक पुरुष भी थे। उन्होंने असम के संगीत, नृत्य, साहित्य और नाट्य कलाओं को राष्ट्रीय मंच पर लाने का प्रयास किया और असम को एक सांस्कृतिक शक्ति के रूप में प्रस्तुत किया।
उनकी पूरी जिंदगी एक मिशन थी — भारत को एकजुट रखने का, समाज को सशक्त करने का और राजनीति में सेवा को महत्वपूर्ण बनाने का। वे कभी पद, प्रतिष्ठा या पुरस्कार के लिए नहीं जीते। शायद यही कारण था कि उनके जीवनकाल में उन्हें वह राष्ट्रीय पहचान नहीं मिली, जिसके वे हकदार थे। 1950 में उनका निधन हुआ, और पचास साल बाद 1999 में उन्हें मरणोपरांत भारत रत्न से सम्मानित किया गया। इस सम्मान से न केवल उनके योगदान को मान्यता मिली, बल्कि यह भी साबित हुआ कि बोरदोलोई जैसा नेता हमारे देश की राजनीति और समाज का एक अभिन्न हिस्सा है।
निष्कर्ष: गोपीनाथ बोरदोलोई की प्रेरणादायी विरासत
गोपीनाथ बोरदोलोई का योगदान असम और भारत की राजनीति में अनमोल रहेगा। उनका जीवन और कार्य आज भी प्रेरणा का स्रोत बने हुए हैं। उनके द्वारा प्रस्तुत दृष्टिकोण — विविधता में एकता, सेवा में शक्ति और समर्पण में नेतृत्व — भारतीय राजनीति के लिए एक अमूल्य धरोहर है। बोरदोलोई के योगदान को कभी भी भुलाया नहीं जा सकता और उनका नाम भारतीय इतिहास में स्वर्णाक्षरों में लिखा जाएगा।
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