Gaya Pind Daan: गया में पिंडदान का महत्व। सीता जी क्यों किया फल्गु नदी के बालू से दशरथ जी का पिंडदान
गया में पिंडदान!
सनातन धर्म में पूर्वजों की आत्मिक शांति के लिए पिंडदान का विधान है और प्रति वर्ष भाद्रपद के पितृपक्ष में लगभग 15 दिवसों के लिए पितरों की आत्मिक शांति व तृप्ति के लिए पिंडदान किया जाता है।हिंदू धर्म की मान्यता है कि पितृ पक्ष में श्राद्ध करने से पिंडदान सीधे पितरों तक पहुंचता है। पितृपक्ष में उनके नाम पर पिंडदान, तर्पण और दान करने से पितरों की आत्मा को तृप्ति प्राप्त होती है। ऐसा माना जाता है कि पितृपक्ष में यमराज पूर्वजों की आत्माओं को भी मुक्त करते हैं, ताकि वे पृथ्वी पर अपने वंशजों के बीच कुछ समय व्यतीत कर सकें।
जब पिंड दान की बात होती है, तब ‘गया’ का उल्लेख अवश्य किया जाता है। बिहार के फाल्गु तट पर बसे ‘गया’ में पिंडदान करने को अत्यंत महत्वपूर्ण माना गया है.
वैसे तो पितरों की आत्मा की शांति के लिए देश में कई जगह पिंडदान और श्राद्ध कर्म पूर्ण किए जाते हैं, परन्तु गया में पिंडदान करना सबसे अधिक पुण्यदायी माना गया है.
मान्यता है कि, यहां पर पिंडदान व तर्पण विधि करने से सात पीढ़ियों का उद्धार हो जाता है।
गरुण पुराण में कहा गया है कि, जो व्यक्ति श्राद्ध कर्म करने के लिए ‘गया’ जाता है, उसका प्रत्येक पद उनके पूर्वजों को स्वर्ग की ओर अग्रसित करता है.
गया का नाम गयासुर नामक दैत्य से सम्बद्ध है। गयासुर का हृदय बचपन से ही भगवान् विष्णु की भक्ति में विलीन रहता था। एक पौराणिक कथा के अनुसार गया के पंचकोसी भूमि पर गयासुर ने यज्ञ किया। इस दैत्य की यज्ञ महिमा से समस्त देवतागण भी विचलित हो गए तब भगवान विष्णु ने अपने चरण से उसे शांत कर उसकी अंतिम इच्छा पूछी। गयासुर ने स्वयं को देवी-देवताओं से भी अधिक पवित्र होने का वरदान मांगा। गयासुर ने वर मांगा कि जिस स्थान पर मैं प्राण त्याग रहा हूं, उस शिला पर प्रतिदिन एक पिंडदान हुआ करे, जो यहां पिंडदान करे उसके पूर्वज तमाम पापों से मुक्त होकर स्वर्ग प्राप्त करें। चूंकि यहां पर स्वंय भगवान विष्णु पितृ देवता के रूप में मौजूद होते हैं। इसलिए गया को पितरों की तीर्थस्थली भी कहा जाता है।
गया में रहस्यमयी फाल्गु नदी भी है, जिसका वर्णन वायु पुराण में भी मिलता है जहां की बालू से पिंडदान करने का विशेष महत्व है माना गया है कहते हैं । पितृ पक्ष के दौरान भगवान राम, माता सीता और लक्ष्मण पिंडदान करने के लिए गया धाम पहुंचे थे। श्राद्ध करने के लिए वे सामग्री लेने नगर की ओर जा रहे थे, तभी आकाशवाणी हुई कि पिंडदान का समय निकला जा रहा है। तभी माता सीता को राजा दशरथ ने दर्शन दिए और पिंडदान के लिए कहा। इसके बाद माता सीता ने फाल्गु नदी, वटवृक्ष, केतकी के फूल और गाय को साक्षी मानकर बालू का पिंड बनाकर फल्गु नदी के किनारे पिंडदान किया,तभी से यहां बालू का पिंडदान देने की परंपरा शुरू हुई।
गया के पास ही प्रेतशिला नाम का पहाड़ है जिनमें विशेष प्रकार के दरारें और छिद्र हैं। कहा जाता है कि, ये दरारें और छिद्र, लोक और परलोक के बीच कड़ी का काम करती हैं। इनमें से होकर प्रेतत्माएं आती हैं और पिंडदान ग्रहण करती हैं। प्रेतशिला के पास एक वेदी भी है, जिस पर भगवान विष्णु के चरणों के चिन्ह भी हैं जिसे लोग बड़ी से श्रद्धा से पूजते हैं जिसके पीछे कथा यह है कि, गयासुर की पीठ पर बड़ी सी शिला रखकर भगवान विष्णु स्वयं खड़े हो गये थे।
गया न केवल हिंदुओं के लिए बल्कि बौद्ध धर्म के लोगों का भी एक पवित्र स्थान है जिसे भगवान बुद्ध की भूमि भी कहा जाता है। यहीं पर बोधिवृक्ष के नीचे तपस्या कर तथागत बुद्ध ने ज्ञान प्राप्त किया , जिसके पश्चात् वे भगवान बुद्ध के नाम से जाने गए। इसलिए इस स्थान को ज्ञान की भूमि भी कहा जाता है।
यस्य जीवन्ति धर्मेण पुत्रा मित्राणि बान्धवाः।
सफलं जीवितं तस्य नात्मार्थे को हि जीवति॥
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