अतीत की तपोस्थली आतंक का आश्रय कैसे बनी ? | कश्मीर का इतिहास | Kashmiri Pandit Exodus
अपने अलौकिक प्राकृतिक सौंदर्य के लिए.. विश्वविख्यात कश्मीर को.. ये नाम परम पूज्य महर्षि कश्यप की तपोस्थली होने के कारण प्राप्त है। हज़ारों वर्षों के प्राचीन इतिहास का यह गौरव.. भारत भूमि का अद्भुत अलंकरण है। भारत समन्वय परिवार की ओर से हमारा प्रयास है कि संक्षेप में इस वृहद कालखंड का संक्षिप्त परिचय.. जन जन तक प्रेषित हो और हम आज इस मातृभूमि के राजमुकुट और ताज की महिमा का अवलोकन करने में सक्षम हों। यहाँ के प्राचीन और विस्तृत लिखित अभिलेख राजतरंगिणी जो कल्हण द्वारा 12वीं सदी में लिखा गया था। राजतरंगिणी 1184 ईसा पूर्व के राजा गोनंद से लेकर राजा विजय सिम्हा (1129 ईसा पूर्व) तक के कश्मीर के प्राचीन राजवंशों और राजाओं का प्रमाणिक दस्तावेज है। इस पुस्तक में.. कश्मीर की भौगोलिक स्थिति.. इसका अभिनव प्राकृतिक सौंदर्य और सामायिक शासन व्यवस्था तथा सामाजिक स्थितियों का विस्तृत विवरण उपलब्ध है। श्रीनगर से लगभग 16 किलोमीटर दूर.. बुर्ज़होम पुरातत्विक स्थल आज भी इसकी समृद्ध और प्राचीनतम संस्कृति के रूप में स्थित है। राजतरंगिणी के अनुसार उस समय यहाँ संपूर्ण हिंदू राष्ट्र था और ये अशोक महान के साम्राज्य का हिस्सा भी था। लगभग तीसरी शताब्दी में अशोक का शासन रहा था और उसी कालखंड में बौद्ध धर्म का प्रादुर्भाव हुआ.. जो आगे चलकर कुषाण राजवंश के अधीन समृद्ध और प्रसारित हुआ।
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उज्जैन के महाराजा विक्रमादित्य के अधीन छठी शताब्दी में एक बार फिर यहाँ हिंदू धर्म की वापसी हुई। उनके बाद नागवंशी क्षत्रिय सम्राट ललितादित्य का शासन रहा।
अवन्तिवर्मन ललितादित्य का उत्तराधिकारी बना। श्रीनगर के निकट अवंतिपुर भी उन्हीं के द्वारा बसाया गया था। यहाँ महाभारत काल के गणपतयार और खीर भवानी मंदिर आज भी स्थित हैं।
गिलगिट में जो पांडुलिपियाँ उपलब्ध हैं.. वो सभी प्राचीन पाली भाषा में हैं और उनमें बौद्ध लेख ही अंकित है। त्रिशा शास्त्र की उत्पत्ति भी यहीं हुई थी और इसकी मुख्य विशेषता सहिष्णुता है। 14 वीं शताब्दी में यहाँ मुस्लिम शासन का प्रारंभ हुआ और उसी काल में फारस से सूफी इस्लाम का भी आगमन हुआ। यहाँ की सामाजिक संस्कृति में त्रिशा शास्त्र.. ऋषि परंपरा और सूफी इस्लाम का अनूठा संगम प्राप्त होता है और यह समन्वय ही.. कश्मीरियत का सार है।
यदि प्राचीन काल की राजवंशावली को संक्षेप में देखें तो ये प्रवरसेन.. गोप्त्र.. मेघवाहन से आरम्भ होकर जयसिंह.. सहदेव और कोटरानी तक विस्तृत है। मध्यकाल में 1589 में यहाँ मुगल राज स्थापित हुआ। ये अकबर का शासनकाल था.. इसके बाद यहाँ पठानों ने अधिकार कर लिया था.. परन्तु 1814 में जब महाराणा रणजीत सिंह ने सिख साम्राज्य की स्थापना की तो यहाँ पठानों की हार के बाद सिख साम्राज्य की स्थापना हुई।
इसके बाद यदि आधुनिक काल की चर्चा करें तो सन 1846 में अंग्रेज़ों द्वारा सिखों की पराजय हुई और लाहौर संधि के माध्यम से महाराणा गुलाब सिंह को कश्मीर के स्वतंत्र शासक के रूप में गद्दी मिली। इतिहास में इसे डोंगरा राजवंश के नाम से जाना जाता है। लगभग सौ वर्षों तक ये राज्य डोंगरा राजवंश के शासकों के अधीन रहा।
इसी क्रम में डोंगरा राजवंश के तीसरे शासक के रूप में सन 1925 में महाराजा गुलाब सिंह के पौत्र महाराजा हरिसिंह को शासन की बागडोर दी गयी। उन्होंने सन 1947 तक अर्थात भारत की आज़ादी तक इस क्षेत्र पर शासन किया। महाराजा हरिसिंह के शासन काल में भारत में स्वतंत्रता प्राप्ति के प्रयास आरम्भ हो चुके थे और सर्वत्र आन्दोलनों एवं अन्य माध्यमों से आज़ादी की मांग बलवती हो रही थी। कश्मीर में भी आज़ादी की मांग ज़ोर पकड़ रही थी। सन 1930 में शेख अब्दुल्लाह ने महाराजा हरिसिंह के विरुद्ध आज़ादी की मांग को बढ़ावा देने के लिए.. पहले Muslim Conference और बाद में इसका नाम बदलकर National Conference का गठन किया और आज़ादी के प्रयास की उनकी गतिविधियाँ बढ़ने लगीं और राजा हरिसिंह ने शेख अब्दुल्लाह को गिरफ़्तार करवा दिया। पंडित जवाहरलाल नेहरु के हस्तक्षेप से भी शेख अब्दुल्लाह को रिहा नहीं करवाया जा सका और अंततः 1935 में कश्मीर में पहली बार constituent assembly के election करवाए गए.. लेकिन इस चुनाव में शेख अब्दुल्लाह कोई विशेष सफलता अर्जित नहीं कर सके.. परन्तु 1939 में जब पुनः constituent assembly के चुनाव हुए तो national conference को एक बड़ी जीत हासिल हुई।
1947 में भारत को आज़ादी तो मिल गयी परन्तु उस समय लगभग 565 स्टेट्स भारत में थीं और भारत गणराज्य में उनका विलय एक जटिल समस्या थी। सरदार वल्लभ भाई पटेल ने इस दिशा में अत्यंत सराहनीय कार्य किया और वो काफ़ी हद तक अपने प्रयास में सफल भी रहे। कश्मीर का क्षेत्र सीमावर्ती होने के कारण इस प्रक्रिया में एक बड़ी बाधा बनने लगा। महाराजा हरिसिंह ने निर्णय लिया था कि वो न तो भारत में अपनी estate का विलय करेंगे और न ही पाकिस्तान में। वो स्वतंत्र राज्य के रूप में कश्मीर का अस्तित्व रखना चाहते थे।
भारत की आज़ादी के मात्र दो महीने के बाद पाकिस्तान ने परोक्ष रूप से सेना और कबाईलियों की सहायता से कश्मीर पर आक्रमण कर दिया। हिंसा और अव्यवस्था का रूप इतना विकराल था कि राजा हरिसिंह को विवश होकर भारत से सहायता का आग्रह करना पड़ा और इसी घटनाक्रम में उन्होंने अपने राज्य के भारत के साथ विलय की भी अपनी स्वीकृति देदी। अंततः अक्टूबर 1947 के अंतिम सप्ताह में भारतीय सेना ने कबाईलियों को पीछे धकेलने में सफलता प्राप्त कर ली किन्तु अभी ये अभियान पूर्ण भी नहीं हुआ था कि जनवरी 1948 को भारत द्वारा कश्मीर मुद्दे को संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में ले जाया गया। संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद के निर्णय के अनुसार.. युद्ध विराम की घोषणा की गयी और स्थिति को यथावत रखते हुए.. तीन सदस्यी संयुक्त राष्ट्र आयोग.. 20 जनवरी 1948 को गठित कर दिया गया और ये प्रावधान रखा गया कि पहले पाकिस्तान अपनी सेना को वापस बुलाए और भारत भी अपने सुरक्षा बलों को क्रमशः कम करे.. उसके बाद संयुक्त राष्ट्र के पर्यवेक्षण में राज्य की जनता द्वारा जनमत संग्रह का भी प्रावधान रखा गया था.. परन्तु ये सब संभव नहीं हो सका.. क्यूंकि प्रथम चरण में ही पाकिस्तान ने इसका अनुपालन सुनिश्चित नहीं किया। 1 जनवरी 1949 को यथास्थिति को बनाए रखते हुए उस समय.. सीमाओं को cease fire line घोषित कर दिया गया।
इसके बाद जम्मू-कश्मीर का constitution बना। मुख्य रूप से external affairs.. communication और defence की पूर्ण शक्तियां और व्यवस्था.. भारत सरकार के पास रखी गयीं। Constituent assembly के द्वारा article 370 और 35A लाया गया.. जिसे भारत द्वारा भी स्वीकार किया गया।
Constituent assembly के गठन के बाद 1957 में चुनाव हुए। राष्ट्र विरोधी षड़यंत्र में शामिल होने के कारण शेख अब्दुल्लाह को गिरफ़्तार किया गया और वो लगभग 11 वर्षों तक जेल में रहे। सन 1962 में चीन ने भारत पर आक्रमण किया और अक्साई चीन पर चीन का कब्ज़ा हो गया। इसी वर्ष में चीन ने तिब्बत पर भी आक्रमण किया और दलाई लामा ने निर्वासित होकर भारत में शरण ली। चीन के आक्रामक हस्तक्षेप से कश्मीर की समस्या की जटिलता और बढ़ गयी। सन 1964 के दौर में पाकिस्तान में राष्ट्राध्यक्ष के रूप में अय्यूब ख़ान.. पंडित जवाहरलाल नेहरु और शेख अब्दुल्लाह के बीच कश्मीर समस्या के समाधान हेतु आपसी सहमति का वातावरण बन रहा था.. परन्तु मई 1964 में पंडित जवाहरलाल नेहरु की मृत्यु से ये सम्भावना भी अपूर्ण रह गयी। 1965 में पाकिस्तान ने भारत पर आक्रमण किया जिसका भारत ने करारा जवाब दिया और विजय प्राप्त की। इस युद्ध के उपरांत ताशकंद में एक समझौता हुआ और भारत ने एक बहुत बड़ा विजित क्षेत्र पाकिस्तान को लौटा दिया। ये युद्ध प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री जी की अगुवाई में लड़ा गया था किन्तु दुर्भाग्य से ताशकंद समझौते के बाद.. उसी रात्रि को ताशकंद में शास्त्री जी का रहस्यमयी परिस्थितयों में निधन हो गया।
शास्त्री जी की असामयिक मृत्यु के बाद भारत में श्रीमती इंदिरा गाँधी प्रधानमंत्री बनीं और कश्मीर के प्रधानमंत्री पद को समाप्त करके मुख्य मंत्री पद को मान्यता दी गयी। 1965 से 1975 तक का समय कश्मीर में तुलनात्मक रूप से शांतिपूर्ण रहा।
सन 1971 में पुनः पाकिस्तान के साथ युद्ध हुआ और एक नए देश के रूप में बांग्लादेश बना। इस युद्ध के उपरान्त 1972 में शिमला समझौता हुआ.. जिसमें भारत और पाकिस्तान द्वारा ये सहमति दी गयी कि दोनों देशों के बीच जो भी समस्याएं हैं.. जिसमें कश्मीर समस्या भी थी.. उन्हें आपसी बातचीत के द्वारा सुलझाया जाएगा। ये समझौता भी भारतीय राजनीति का एक असफल प्रयोग था.. क्यूंकि पाकिस्तान बाद में इससे मुकर गया और इसका क्रियान्वन और अनुपालन सुनिश्चित नहीं हो सका।
1975 में शेख अब्दुल्ला के मुख्य मंत्री बनने के बाद.. शेख-इंदिरा accord sign किया गया.. जिसका सार ये था कि अब कोई plebiscite नहीं होंगे और किसी भी प्रकार की अलगाववादी गतिविधियों को भारतीय संविधान का अपमान माना जाएगा और तदानुसार ही कार्यवाही की जायेगी.. तथा कश्मीर के constitution में कोई बदलाव नहीं किया जाएगा।
1977 में इमरजेंसी लगाई गयी और राजनीतिक घटनाक्रम में परिवर्तन के बाद जनता पार्टी सत्ता में आई। कश्मीर में शेख अब्दुल्ला ने secular विचारधारा को छोड़ते हुए.. communal रास्ता अपनाने की घोषणा की और इस तरह से कश्मीर समस्या के हिंसक समाधान की तलाश शुरू हुई।
1980 के बाद अलगाववादी गतिविधियां बढ़ने लगीं और 1982 में शेख अब्दुल्ला की मृत्यु हो गयी। शेख अब्दुल्ला की मृत्यु के बाद उनके पुत्र फारुख अब्दुल्ला ने उनकी राजनीतिक विरासत को संभाला।
सन 1987 में कश्मीर में ऐतिहासिक चुनाव हुए.. जिन्होंने इस केसरिया घाटी की दशा और दिशा बदल दी। इस चुनाव में एक ओर Indian national congress और national conference का गठबंधन था और दूसरी ओर छोटी छोटी मुस्लिम पार्टियों का गठबंधन MUF यानी Muslim United Front था।
इस चुनाव में आधिकारिक तौर पर NC और INC के गठबंधन को बड़ी जीत हासिल हुई और MUF को मात्र 4 सीटें मिलीं थीं।
लेकिन बहुत सारी शिकायतों के बाद जब इस चुनाव की जांच हुई.. तो इसकी धांधली उजागर होने लगी और इसके विरोध की हिंसक प्रतिक्रियाएं भी आने लगीं। परोक्ष रूप से इस हिंसा को पाकिस्तान का भी समर्थन प्राप्त हो गया। हिंसा और विद्रोह का ये ज्वार तब और अधिक भीषण हो गया.. जब पाक अधिकृत कश्मीर में स्थित मुजफ्फराबाद में आतंकवादी training की शुरुआत हुई। संक्षेप में ये एक सशस्त्र विद्रोह की स्थिति थी। सन 1987 से 1991 तक युवाओं द्वारा सामूहिक रूप से हथियार उठाने की प्रक्रिया ने स्थिति को और अधिक विस्फोटक बना दिया। इसी दौर में कश्मीरी पंडितों को यातनाएं दी जाने लगीं और योजना बद्ध तरीके से हत्याओं का षड़यंत्र पनपने लगा। स्थिति इतनी बिगड़ गयी थी कि लगभग 5 लाख कश्मीरी पंडितों को घाटी छोड़ने के लिए विवश होना पड़ा। हिंसा फैलाने में कुछ आतंकवादी संगठन जैसे लश्करे-तय्येबा.. हिजबुल मुजाहिद्दीन और जैशे मुहम्मद आदि की मुख्य भूमिका थी। सन 1999 में कारगिल युद्ध के बाद 2001 में जैशे मुहम्मद ने parliament पर हमले जैसी घटना को अंजाम दिया।
2010 के बाद सेना पर पत्थर फेंकने की घटनाओं में तीव्र गति से वृद्धि हुई और आतंकवादी घटनाओं में भी निरंतर वृद्धि होने लगी।
2016 में बुरहान वानी मारा गया.. युवाओं के बीच ये आतंकवादी बहुत लोकप्रिय था.. इसके बाद लगभग 7 महीने तक curfew लगाया गया और 2016 से 2019 तक अस्थिरता का ये दौर चलता रहा।
5 अगस्त 2019 को धारा 370 को हटाया गया और दो union territory बनायी गयीं.. एक तो J&K और दूसरी लद्दाख। विधान सभा को भंग किया गया.. हिंसा को समर्थन देने वाले नेताओं को नज़रबंद किया गया और कश्मीर में शान्ति बहाली के प्रयासों को गति प्रदान की गयी।
वर्तमान सरकार के इन प्रयासों को कश्मीर के स्थानीय निवासियों का अभूतपूर्व समर्थन प्राप्त है और इसी कारण से दिन-प्रतिदिन जम्मू-कश्मीर की शांति व्यवस्था में निरंतर सुधार हो रहा है तथा वहां की युवा शक्ति.. विकास और शांति के मार्ग को अपना रही है।
भारत समन्वय परिवार की ओर से हम आशा करते हैं कि कश्मीर अपने गौरवमय अतीत की प्रतिष्ठा को पुनः प्राप्त करे और वहां का जनमानस राष्ट्र की मुख्यधारा से जुड़कर.. अपने विकास और समृद्धि का मार्ग प्रशस्त करे।
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