Rashmirathi: कृष्ण और कर्ण के बीच मार्मिक संवाद | Ramdhari Singh Dinkar

महाकवि रामधारी सिंह 'दिनकर' का अद्वितीय खण्डकाव्य 'रश्मिरथी' कर्ण के रहस्यमय चरित्र पर केंद्रित है। जिसका अर्थ "सूर्यकिरण रूपी रथ का सवार" है। यह कथा भाग्य, कर्तव्य, और मानवता जैसे महत्वपूर्ण विषयों पर ध्यान केंद्रित है।

यह 1952 में प्रकाशित हुआ था, और इसमें 7 सर्ग हैं। प्रस्तुत प्रसंग मे भगवान कृष्ण और कर्ण के मध्य अदभुत संवाद वर्णित यह प्रसंग हिन्दी के एक प्रमुख लेखक, राष्ट्रकवि व निबन्धकार रामधारी सिंह दिनकर के काव्य-संग्रह 'कृष्ण की चेतावनी' से लिया गया है।

जब कृष्ण दुर्योधन की सभा में शांति दूत बनकर जाते हैं और मात्र पांच गांव की मांग करते हैं। उस पर भी वह मना कर देता है और युद्ध के लिए अडिग रहता है। उसके बाद कृष्ण अपना विराट स्वरूप दिखाते हैं और युद्ध के लिए ललकार कर आते हैं। वहां से वापसी के मार्ग में उन्हें कर्ण दिखाई देता है। तत्पश्चात् कृष्ण उसे अपने रथ में बिठा लेेते हैं। देखें इसे दिनकर ने कितने सुंदर शब्दों में वर्णित किया है।

श्री कृष्ण और कर्ण का संवाद | Rashmirathi full poem in hindi | Rashmirathi Lyrics

भगवान सभा को छोड़ चले,

करके रण गर्जन घोर चले,

सामने कर्ण सकुचाया सा,

आ मिला चकित, भरमाया सा।

                      हरि बड़े प्रेम से कर धर कर,

                       ले चढ़े उसे अपने रथ पर।

रथ चला परस्पर बात चली,

शम-दम की टेढी घात चली,

शीतल हो हरि ने कहा, "हाय,

अब शेष नही कोई उपाय

                     हो विवश हमें धनु धरना है,

                      क्षत्रिय समूह को मरना है

मैंने कितना कुछ कहा नहीं?

विष-व्यंग कहाँ तक सहा नहीं?

पर, दुर्योधन मतवाला है,

कुछ नहीं समझने वाला है।

                    चाहिए उसे बस रण केवल,

                     सारी धरती कि मरण केवल

हे वीर! तुम्हीं बोलो अकाम,

क्या वस्तु बड़ी थी पाँच ग्राम?

वह भी कौरव को भारी है,

मति गयी मूढ़ की मारी है

                     दुर्योधन को बोधूं कैसे?

                      इस रण को अवरोधूं कैसे?

सोचो क्या दृश्य विकट होगा,

रण में जब काल प्रकट होगा?

बाहर शोणित की तप्त धार,

भीतर विधवाओं की पुकार

                     निरशन, विषण्ण बिल्लायेंगे,

                      बच्चे अनाथ चिल्लायेंगे

चिंता है, मैं क्या और करूं?

शान्ति को छिपा किस ओट धरूँ?

सब राह बंद मेरे जाने,

हाँ एक बात यदि तू माने,

                      तो शान्ति नहीं जल सकती है,

                      समराग्नि अभी टल सकती है

पा तुझे धन्य है दुर्योधन,

तू एकमात्र उसका जीवन

तेरे बल की है आस उसे,

तुझसे जय का विश्वास उसे

                     तू संग न उसका छोड़ेगा,

                     वह क्यों रण से मुख मोड़ेगा?

क्या अघटनीय घटना कराल?

तू पृथा-कुक्षि का प्रथम लाल,

बन सूत अनादर सहता है,

कौरव के दल में रहता है,

                    शर-चाप उठाये आठ प्रहर,

                    पांडव से लड़ने को तत्पर।

माँ का सनेह पाया न कभी,

सामने सत्य आया न कभी,

किस्मत के फेरे में पड़कर,

पा प्रेम बसा दुश्मन के घर।

                    निज बंधु मानता है पर को,

                    कहता है शत्रु सहोदर को

 

पर कौन दोष इसमें तेरा?

अब कहां मान इतना मेरा।

चल होकर संग अभी मेरे,

हैं जहाँ पाँच भ्राता तेरे।                  

                   बिछुड़े भाई मिल जायेंगे,

                   हम मिलकर मोद मनाएंगे

 कुन्ती का तू ही तनय ज्येष्ठ,

बल बुद्धि, शील में परम श्रेष्ठ

मस्तक पर मुकुट धरेंगे हम,

तेरा अभिषेक करेंगे हम।

                   आरती समोद उतारेंगे,

                   सब मिलकर पाँव पखारेंगे

पद-त्राण भीम पहनायेगा,

धर्माचिप चंवर डुलायेगा

पहरे पर पार्थ प्रवर होंगे,

सहदेव-नकुल अनुचर होंगे

                 भोजन उत्तरा बनायेगी,

                 पांचाली पान खिलायेगी

 

आहा! क्या दृश्य सुभग होगा ?

आनंद-चमत्कृत जग होगा

सब लोग तुझे पहचानेंगे,

असली स्वरूप में जानेंगे।

               खोयी मणि को जब पायेगी,

               कुन्ती फूली न समायेगी

रण अनायास रुक जायेगा,

कुरुराज स्वयं झुक जायेगा

संसार बड़े सुख में होगा,

कोई न कहीं दुःख में होगा।

              सब गीत खुशी के गायेंगे,

              तेरा सौभाग्य मनाएंगे

कुरुराज्य समर्पण करता हूँ

साम्राज्य समर्पण करता हूँ

यश, मुकुट, मान, सिंहासन ले,

बस एक भीख मुझको दे दे।

              कौरव को तज रण रोक सखे,

              भू का हर भावी शोक सखे

सुन-सुनकर कर्ण अधीर हुआ,

क्षण एक तनिक गंभीर हुआ,

फिर कहा, बड़ी यह माया है,

जो कुछ आप ने बताया है

              दिनमणि से सुनकर वही कथा

              मैं भोग चुका हूँ ग्लानि व्यथा

मैं ध्यान जन्म का धरता हूँ,

उन्मन यह सोचा करता हूँ,

कैसी होगी वह माँ कराल,

निज तन से जो शिशु को निकाल

             धाराओं में धर आती है,

             अथवा जीवित दफनाती है?

सेवती मास दस तक जिसको,

पालती उदर में रख जिसको,

जीवन का अंश खिलाती है,

अन्तर का रुधिर पिलाती है

           आती फिर उसको फ़ेंक कहीं,

           नागिन होगी वह नारि नहीं

हे कृष्ण आप चुप ही रहिये,

इस पर न अधिक कुछ भी कहिये

सुनना न चाहते तनिक श्रवण,

जिस माँ ने मेरा किया जनन

          वह नहीं नारि कुल्पाली थी,

          सर्पिणी परम विकराली थी

पत्थर समान उसका हिय था,

सुत से समाज बढ़ कर प्रिय था

गोदी में आग लगा कर के,

मेरा कुल-वंश छिपा कर के      

          दुश्मन का उसने काम किया,

          माताओं को बदनाम किया

माँ का पय भी न पीया मैंने,

उलटे अभिशाप लिया मैंने

वह तो यशस्विनी बनी रही,

सबकी भौ मुझ पर तनी रही

        कन्या वह रही अपरिणीता,

        जो कुछ बीता, मुझ पर बीता

मैं जाती गोत्र से हीन, दीन,

राजाओं के सम्मुख मलीन,

जब रोज अनादर पाता था,

कह 'शूद्र' पुकारा जाता था

        पत्थर की छाती फटी नही,

        कुन्ती तब भी तो कटी नहीं

मैं सूत-वंश में पलता था,

अपमान अनल में जलता था,

सब देख रही थी दृश्य पृथा,

माँ की ममता पर हुई वृथा

         छिप कर भी तो सुधि ले न सकी

         छाया अंचल की दे न सकी

पा पाँच तनय फूली फूली,

दिन-रात बड़े सुख में भूली

कुन्ती गौरव में चूर रही,

मुझ पतित पुत्र से दूर रही

        क्या हुआ कि अब अकुलाती है?

        किस कारण मुझे बुलाती है?

क्या पाँच पुत्र हो जाने पर,

सुत के धन धाम गंवाने पर

या महानाश के छाने पर,

अथवा मन के घबराने पर

        नारियाँ सदय हो जाती हैं

        बिछुडों को गले लगाती है?

कुन्ती जिस भय से भरी रही,

तज मुझे दूर हट खड़ी रही

वह पाप अभी भी है मुझमें,

वह शाप अभी भी है मुझमें

         क्या हुआ कि वह डर जायेगा?

         कुन्ती को काट न खायेगा?

सहसा क्या हाल विचित्र हुआ,

मैं कैसे पुण्य-चरित्र हुआ?

कुन्ती का क्या चाहता ह्रदय,

मेरा सुख या पांडव की जय?

        यह अभिनन्दन नूतन क्या है?

        केशव! यह परिवर्तन क्या है?

मैं हुआ धनुर्धर जब नामी,

सब लोग हुए हित के कामी

पर ऐसा भी था एक समय,

जब यह समाज निष्ठुर निर्दय

      किंचित न स्नेह दर्शाता था,

      विष-व्यंग सदा बरसाता था

उस समय सुअंक लगा कर के,

अंचल के तले छिपा कर के

चुम्बन से कौन मुझे भर कर,

ताड़ना-ताप लेती थी हर?

      राधा को छोड़ भजूं किसको,

      जननी है वही, तजूं किसको?

हे कृष्ण! ज़रा यह भी सुनिए,

सच है कि झूठ मन में गुनिये

धूलों में था मैं पड़ा हुआ,

किसका सनेह पा बड़ा हुआ?    

       किसने मुझको सम्मान दिया,

       नृपता दे महिमावान किया?

अपना विकास अवरुद्ध देख,

सारे समाज को क्रुद्ध देख

भीतर जब टूट चुका था मन,

आ गया अचानक दुर्योधन

     निश्छल पवित्र अनुराग लिए,

     मेरा समस्त सौभाग्य लिए

कुन्ती ने केवल जन्म दिया,

राधा ने माँ का कर्म किया

पर कहते जिसे असल जीवन,

देने आया वह दुर्योधन

      वह नहीं भिन्न माता से है

      बढ़ कर सोदर भ्राता से है

राजा रंक से बना कर के,

यश, मान, मुकुट पहना कर के

बांहों में मुझे उठाकर के,

सामने जगत के ला करके

      करतब क्या क्या न किया उसने

      मुझको नव-जन्म दिया उसने

है ऋणी कर्ण का रोम-रोम,

जानते सत्य यह सूर्य-सोम

तन मन धन दुर्योधन का है,

यह जीवन दुर्योधन का है

      सुर पुर से भी मुख मोडूँगा,

      केशव! मैं उसे न छोडूंगा

सच है मेरी है आस उसे,

मुझ पर अटूट विश्वास उसे

हाँ सच है मेरे ही बल पर,

ठाना है उसने महासमर

       पर मैं कैसा पापी हूँगा?

       दुर्योधन को धोखा दूँगा?

रह साथ सदा खेला खाया,

सौभाग्य-सुयश उससे पाया

अब जब विपत्ति आने को है,

घनघोर प्रलय छाने को है

       तज उसे भाग यदि जाऊंगा

       कायर, कृतघ्न कहलाऊँगा

मैं भी कुन्ती का एक तनय,

किसको होगा इसका प्रत्यय

संसार मुझे धिक्कारेगा,

मन में वह यही विचारेगा

       फिर गया तुरत जब राज्य मिला,

       यह कर्ण बड़ा पापी निकला

मैं ही न सहूंगा विषम डंक,

अर्जुन पर भी होगा कलंक

सब लोग कहेंगे डर कर ही,

अर्जुन ने अद्भुत नीति गही

       चल चाल कर्ण को फोड़ लिया

       सम्बन्ध अनोखा जोड़ लिया

कोई भी कहीं न चूकेगा,

सारा जग मुझ पर थूकेगा

तप, त्याग, शील, जप, योग, दान,

मेरे होंगे मिट्टी समान

       लोभी लालची कहाऊँगा

       किसको क्या मुख दिखलाऊँगा?

जो आज आप कह रहे आर्य,

कुन्ती के मुख से कृपाचार्य

सुन वही हुए लज्जित होते,

हम क्यों रण को सज्जित होते      

        मिलता न कर्ण दुर्योधन को,

       पांडव न कभी जाते वन को

लेकिन नौका तट छोड़ चली,

कुछ पता नहीं किस ओर चली

यह बीच नदी की धारा है,

सूझता न कूल-किनारा है

       ले लील भले यह धार मुझे,

       लौटना नहीं स्वीकार मुझे

धर्माधिराज का ज्येष्ठ बनूँ,

भारत में सबसे श्रेष्ठ बनूँ?

कुल की पोशाक पहन कर के,

सिर उठा चलूँ कुछ तन कर के?

        इस झूठ-मूठ में रस क्या है?

        केशव ! यह सुयश - सुयश क्या है?

सिर पर कुलीनता का टीका,

भीतर जीवन का रस फीका

अपना न नाम जो ले सकते,

परिचय न तेज से दे सकते

        ऐसे भी कुछ नर होते हैं

        कुल को खाते औ' खोते हैं

विक्रमी पुरुष लेकिन सिर पर,

चलता ना छत्र पुरखों का धर.

अपना बल-तेज जगाता है,

सम्मान जगत से पाता है

       सब देख उसे ललचाते हैं,

       कर विविध यत्न अपनाते हैं

कुल-गोत्र नही साधन मेरा,

पुरुषार्थ एक बस धन मेरा

कुल ने तो मुझको फेंक दिया

मैंने हिम्मत से काम लिया

       अब वंश चकित भरमाया है,

        खुद मुझे खोजने आया है

लेकिन, मैं लौट चलूँगा क्या?

अपने प्रण से विचरूँगा क्या?

रण में कुरूपति का विजय वरण,

या पार्थ-हाथ कर्ण का मरण,

         हे कृष्ण यही मति मेरी है,

         तीसरी नहीं गति मेरी है।

मैत्री की बड़ी सुखद छाया,

शीतल हो जाती है काया,

धिक्कार-योग्य होगा वह नर,

जो पाकर भी ऐसा तरुवर,

        हो अलग खड़ा कटवाता है

        खुद आप नहीं कट जाता है।

जिस नर की बांह गही मैने,

जिस तरु की छाँह गहि मैने,

उस पर न वार चलने दूँगा,

कैसे कुठार चलने दूँगा,

        जीते जी उसे बचाऊँगा,

        या आप स्वयं कट जाऊँगा।

मित्रता बड़ा अनमोल रतन,

कब उसे तोल सकता है धन?

धरती की तो है क्या बिसात?

आ जाय अगर बैकुंठ हाथ

        उसको भी न्योछावर कर दूँ,

        कुरूपति के चरणों पर धर दूँ।

सिर लिए स्कंध पर चलता हूँ,

उस दिन के लिए मचलता हूँ,

यदि चले वज्र दुर्योधन पर,

ले लूँ बढ़कर अपने ऊपर

        कटवा दूँ उसके लिए गला,

       चाहिए मुझे क्या और भला?

सम्राट बनेंगे धर्मराज,

या पाएगा कुरूराज ताज,

लड़ना भर मेरा काम रहा,

दुर्योधन का संग्राम रहा,

          मुझको न कहीं कुछ पाना है,

          केवल ऋण मात्र चुकाना है.

कुरूराज्य चाहता मैं कब हूँ?

साम्राज्य चाहता मैं कब हूँ?

क्या नहीं आपने भी जाना?

मुझको न आज तक पहचाना?

       जीवन का मूल्य समझता हूँ,

       धन को मैं धूल समझता हूँ.

धनराशि जोगना लक्ष्य नहीं,

साम्राज्य भोगना लक्ष्य नहीं

भुजबल से कर संसार विजय,

अगणित समृद्धियों का सन्चय,

        दे दिया मित्र दुर्योधन को,

        तृष्णा छू भी ना सकी मन को.

वैभव विलास की चाह नहीं,

अपनी कोई परवाह नहीं,

बस यही चाहता हूँ केवल,

दान की देव सरिता निर्मल,

        करतल से झरती रहे सदा,

        निर्धन को भरती रहे सदा।

तुच्छ है राज्य क्या है केशव?

पाता क्या नर कर प्राप्त विभव?

चिंता प्रभूत, अत्यल्प हास,

कुछ चाकचिक्य, कुछ क्षण विलास,

        पर वह भी यहीं गंवाना है,

        कुछ साथ नहीं ले जाना है।

मुझसे मनुष्य जो होते हैं,

कंचन का भार न ढोते हैं,

पाते हैं धन बिखराने को,

लाते हैं रतन लुटाने को,

       जग से न कभी कुछ लेते हैं,

       दान ही हृदय का देते हैं।

प्रासादों के कनकाभ शिखर,

होते कबूतरों के ही घर,

महलों में गरुड़ ना होता है,

कंचन पर कभी न सोता है

       रहता वह कहीं पहाड़ों में,

       शैलों की फटी दरारों में.।

होकर सुख-समृद्धि के अधीन,

मानव होता निज तप क्षीण,

सत्ता, किरीट, मणिमय, आसन

करते मनुष्य का तेज हरण।

      नर विभव हेतु लालचाता है,

      पर वही मनुज को खाता है।

चाँदनी पुष्प-छाया में पल,

नर भले बने सुमधुर कोमल,

पर अमृत क्लेश का पिये बिना,

आतप, अंधड़ में जिये बिना,

      वह पुरुष नहीं कहला सकता,

      विघ्नों को नहीं हिला सकता।

उड़ते जो झंझावतों में,

पीते सो वारि प्रपातों में,

सारा आकाश अयन जिनका,

विषधर भुजंग भोजन जिनका,

      वे ही फणिबंध छुड़ाते हैं,

      धरती का हृदय जुड़ाते हैं।

...मैं गरुड़ कृष्ण! मैं पक्षिराज,

सिर पर ना चाहिए मुझे ताज।

दुर्योधन पर है विपद घोर,

सकता न किसी विधि उसे छोड़।

     रण-खेत पाटना है मुझको,

    अहिपाश काटना है मुझको।

संग्राम सिंधु लहराता है

सामने प्रलय घहराता है,

रह रह कर भुजा फड़कती है,

बिजली-सी नसें कड़कती हैं,

     चाहता तुरत मैं कूद पडूं,

     जीतूं कि समर में डूब मरूं।

अब देर नहीं कीजै केशव,

अवसेर नहीं कीजै केशव,

धनु की डोरी तन जाने दें,

संग्राम तुरत ठन जाने दें।

       तांडवी तेज लहराएगा,

       संसार ज्योति कुछ पाएगा.

हाँ, एक विनय है मधुसूदन!

मेरी यह जन्मकथा गोपन,

मत कभी युधिष्ठिर से कहिए,

जैसे हो इसे दबा रहिए,

      वे इसे जान यदि पाएँगे,

      सिंहासन को ठुकराएँगे.

साम्राज्य न कभी स्वयं लेंगे,

सारी संपत्ति मुझे देंगे.

मैं भी ना उसे रख पाऊँगा,

दुर्योधन को दे जाऊँगा।

      पांडव वंचित रह जाएँगे,

      दुख से न छूट वे पाएँगे।

अच्छा अब चला प्रमाण आर्य,

हो सिद्ध समर के शीघ्र कार्य,

रण में ही अब दर्शन होंगे,

शार से चरण-स्पर्शन होंगे।

     जय हो दिनेश नभ में विहरें,

     भूतल मे दिव्य प्रकाश भरें।

रथ से राधेय उतर आया,

हरि के मन में विस्मय छाया,

बोले कि वीर! शत बार धन्य,

तुझ-सा न मित्र कोई अनन्य।

     तू कुरूपति का ही नहीं प्राण,

     नरता का है भूषण महान।

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