कवि अज्ञेय | हिंदी साहित्य के प्रयोगवाद के प्रवर्तक Poet Agyeya | Srijan Agyeya

सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन ‘अज्ञेय’। उनके ‘अज्ञेय’ उपनाम के पीछे एक रोचक कहानी है। दिल्ली जेल में लिखी अपनी ‘साढ़े सात कहानियाँ’ उन्होंने प्रकाशन के उद्देश्य से जैनेंद्र कुमार जी को भिजवाई थी। जैनेंद्र कुमार द्वारा प्रेमचंद जी को भेजी गई इन कहानियों में से दो राजनीतिक कहानियाँ प्रेमचंद द्वारा स्वीकार कर ली गई थी। परंतु कारावास से भेजी गई इन कहानियों के लेखक का नाम उजागर करना उपयुक्त नहीं था, इसलिए यह निर्णय लिया गया कि लेखक के नाम के स्थान पर ‘अज्ञेय’ (अर्थात अज्ञात) नाम का उपयोग किया जाएगा। सच्चिदानंद जी कविताओं और कहानियों का प्रकाशन ‘अज्ञेय’ नाम से कराते थे, परंतु लेख, विचार, आलोचना आदि के प्रकाशन के लिए उन्होंने अपने मूल नाम सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन का उपयोग किया। 

अज्ञेय का जीवन परिचय in hindi

‘अज्ञेय’ का जन्म 7 मार्च 1911 को उत्तर प्रदेश के कुशीनगर में हुआ था। इनके माता-पिता का नाम हीरानंद शास्त्री और वयंतिदेवी था। अज्ञेय अपने माता-पिता की 10 संतानों मे चौथी संतान थे। इनके पिता एक अति प्रसिद्ध पुरातत्ववेत्ता थे। 
अपने पिता की व्यावसायिक नियुक्ति के कारण, उन्हें श्रीनगर और जम्मू, पटना, नालंदा, ऊटाकामुंड और कोटागिरी सहित विभिन्न स्थानों पर स्थानांतरित होना पड़ा। साथ ही इसी परिवर्ती जीवनशैली के कारण अज्ञेय विभिन्न भारतीय भाषाओं और संस्कृतियों के संपर्क में भी रहे। 

वर्ष 1925 में पंजाब विश्वविद्यालय से मैट्रिक पास करने के बाद, अज्ञेय मद्रास चले गए, मद्रास क्रिश्चियन कॉलेज में दाखिला लिया और 1927 में गणित, भौतिकी और रसायन विज्ञान का अध्ययन करते हुए विज्ञान में इंटरमीडिएट किया। उसी वर्ष, वह लाहौर के फॉर्मन क्रिश्चियन कॉलेज में शामिल हो गए और 1929 में कक्षा में प्रथम स्थान प्राप्त करते हुए विज्ञान स्नातक की उपाधि प्राप्त की।

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इसके बाद उन्होंने अंग्रेजी में एम.ए. के लिए दाखिला तो लिया, परंतु पढ़ाई छोड़ दी और भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन के लिए लड़ने के उद्देश्य से एक क्रांतिकारी संगठन, हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन आर्मी (Hindustan Socialist Republican Army) (एचएसआरए) में शामिल हो गए और ब्रिटिश औपनिवेशिक सरकार (British colonial government) के खिलाफ विद्रोही गतिविधियों में भाग लेना आरंभ कर दिया। नवंबर 1930 में, उन्हें समाजवादी क्रांतिकारी और एचएसआरए के नेता भगत सिंह को 1929 में जेल से भागने में सहायता करने के प्रयास में शामिल होने के कारण गिरफ्तार कर लिया गया था। तब उन्हें भारत में ब्रिटिश शासन के खिलाफ राजद्रोह के आरोप में सजा सुनाई गई थी। उन्होंने अगले चार वर्ष लाहौर, दिल्ली और अमृतसर की जेल में व्यतीत किये। जेल के इन दिनों की अवधि मे उन्होंने लघु कहानियाँ, कविताएँ और अपने उपन्यास ‘शेखर: एक जीवनी’ का प्रथम प्रारूप लिखना आरंभ किया। 

वर्ष 1934 में जेल से रिहा होने के पश्चात, अज्ञेय ने कलकत्ता में एक पत्रकार के रूप में और 1939 से ऑल इंडिया रेडियो के लिए काम किया।
वह प्रगतिशील लेखक संघ यानि की (Progressive Writers Association) से जुड़े थे और वर्ष 1942 में उन्होंने अखिल भारतीय फासीवाद विरोधी सम्मेलन का आयोजन किया था। 1942 में द्वितीय विश्व युद्ध के समय, वह भारतीय सेना में शामिल हो गए और उन्हें एक लड़ाकू अधिकारी के रूप में कोहिमा फ्रंट पर भेजा गया। वर्ष 1946 में उन्होंने सेना छोड़ दी। वे कुछ समय के लिए मेरठ में रहे और स्थानीय साहित्यिक समूहों में सक्रिय रहे।

अज्ञेय की प्रमुख रचनाएं

अज्ञेय को कविता में ‘प्रयोगवाद’ का प्रवर्तक कहा जाता है। उन्होंने सप्तक श्रृंखला का संपादन किया जिसने हिंदी कविता में एक नई प्रवृत्ति को जन्म दिया, जिसे नई कविता के नाम से जाना जाता है। उन्होंने कई साहित्यिक पत्रिकाओं का संपादन किया और स्वयं का हिंदी भाषा साप्ताहिक दिनमान लॉन्च किया, जिसने हिंदी पत्रकारिता में नए मानक और रुझान स्थापित किए। अज्ञेय ने अपनी कुछ रचनाओं के साथ-साथ कुछ अन्य भारतीय लेखकों की रचनाओं का अंग्रेजी में अनुवाद किया, साथ ही उन्होंने विश्व साहित्य की कुछ पुस्तकों का हिन्दी अनुवाद भी किया।

अज्ञेय को ‘आँगन के पार द्वार’ के लिए वर्ष 1964 में साहित्य अकादेमी पुरस्कार और ‘कितनी नावों में कितनी बार’ के लिए वर्ष 1978 में ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित किया गया।  जो लोग अपने जीवनकाल मे किंवदंति बन जाते हैं उनमें एक अपरिभाषित रहस्य और आभा होती है जो उन्हें अन्य सभी से अलग करती है। 4 अप्रैल 1987 को अपनी मृत्यु तक अज्ञेय साहित्यिक परिदृश्य पर छाये रहे। अपने प्रशंसकों से उन्हे भरपूर प्यार और प्रशंसा प्राप्त हुई। हिन्दी साहित्य के अतुलनीय रत्न ‘अज्ञेय’ को भारत समन्वय परिवार सादर प्रणाम करता है। 
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