मुंशी प्रेमचंद | Munshi Premchand Biography | जीवन परिचय और रचनाएँ | Hindi Short Story

मै एक मजदूर हूँ,जिस दिन मै कुछ लिख न लूँ, उस दिन मुझे रोटी खाने का कोई हक नही है|

यह वाक्य किसी और के नहीं बल्कि भारत के प्रसिद्ध लेखकों के अंतर्गत आनेवाले महान मुंशी प्रेमचंद के हैं| जिन्हे उपन्यास सम्राट भी कहा जाता है|

 

मुंशी प्रेमचंद का साहित्यिक योगदान

वे एक ऐसी प्रतिभाशाली व्यक्तित्व के धनी थे, जिसने हिन्दी साहित्य को एक नई दिशा प्रदान की,वे एक ऐसे लेखक थे जो, समय के साथ बदलते गये और , हिन्दी साहित्य को आधुनिक रूप प्रदान किया| मुंशी प्रेमचंद ने सरल सहज हिन्दी को, ऐसा साहित्य प्रदान किया जिसे लोग, कभी नही भूल सकते| बड़ी कठिन परिस्थियों का सामना करते हुए हिन्दी भाषा मे, अपनी अमिट छाप छोड़ी| मुंशी प्रेमचंद एक महान साहित्यकार, नाटककार, उपन्यासकार जैसी, बहुमुखी प्रतिभा के धनी थे| तभी तो कहा गया है-

हे प्रेमचंद, फिर कलम उठा, नवभारत का उत्थान लिखो,

होरी के लाखों पुनर्मरण पर, एक नया गोदान लिखो.

प्रेमचंद का प्रारंभिक जीवन

 

मुंशी प्रेमचंद का जन्म 31 जुलाई 1880 को,बनारस के एक छोटे से गाँव लमही में हुआ था|उनका मूल नाम धनपत राय था तथा उनके चाचा उन्हे ‘नवाब’ के नाम से पुकारते थे| प्रेमचंद ने अपना पहला लेख नवाबराय के ही नाम से लिखा था|उनकी माता का नाम आनंदी देवी एवं पिता का नाम अजयबराय था,जो लमही के डाक मुंशी थे| सात वर्ष की अवस्था में उनकी माता का तथा 16 वर्ष की अवस्था में उनके पिता का निधन हो गया| जिस कारण उनका प्रारम्भिक जीवन संघर्षमय रहा| प्रेमचंद को बचपन से ही पढ़ने में रुचि थी| 7 वर्ष की आयु में उनकी शिक्षा-दीक्षा लमही में ही हुई जहां एक मौलवी साहब से उन्होंने उर्दू और फारसी का ज्ञान अर्जित किया| 13 साल की उम्र में प्रेमचंद ने फारसी भाषा की तिलिस्म-ए-होशरुबा की कहानी सुनी,जिससे उनकी रुचि काल्पनिक कहानियों की तरफ बढ़ने लगी|

जिसके कारण ही वो एक किताबों के थोक विक्रेता के यहाँ किताबें बेचने का काम करने लगे जहां उन्हे अनेक किताबें पढ़ने के लिए मिल जाती थी और उन्होंने उर्दू के मशहूर रचनाकार रतननाथ,मिर्ज़ा हादी रुसवा और मौलाना शरर के उपन्यासों से परिचय प्राप्त कर लिया|किताबें बेचने के साथ साथ वे इंग्लिश सीखने के लिए मिशनरी स्कूल भी जाने लगे और उन्होंने बनारस के क्वीन कॉलेज में दाखिला  लिया|

1895 में जब मुंशी जी 9 वीं कक्षा में थे तभी मात्र 15 साल की उम्र में उनका विवाह हो गया था|वे दूसरी श्रेणी से मैट्रिक की परीक्षा में उत्तीर्ण हुए लेकिन अधिक फीस होने के कारण उन्होंने सेंट्रल हिन्दू कॉलेज में एड्मिशन लेने का फैसला लिया परंतु गणित कमजोर होने के कारणवश उन्हे दाखिला नहीं मिल सका अंततः उन्होंने पढ़ाई छोड़ने का निर्णय लिया| पर कभी भी पराजय स्वीकार न करने की प्रवत्ति वाले प्रेमचंद ने अपनी शिक्षा यात्रा को जारी रखा और 1919 में अध्ययन कर बी.ए की डिग्री प्राप्त करी| प्रेमचंद की आर्थिक विपत्तियों का अनुमान इस घटना से लगाया जा सकता है कि उन्हे अपनी वस्तुएँ बेच कर अपना घर खर्च चलाना पड़ता था|इसके बाद एक मिशनेरी स्कूल के हेड्मास्टर ने उन्हे टीचर की नौकरी देने का प्रस्ताव रखा जिसे प्रेमचंद जी ने स्वीकार कर लिया| इसके बाद उन्हे एक सरकारी स्कूल में असिस्टेंट टीचर की नौकरी मिल गई| इसी समय उन्होंने अपन पहला लघु उपन्यास असरार-ए-माबिद लिखा जिसे हिन्दी में देवस्थान रहस्य कहा जाता है| यह उपन्यास बनारस के उर्दू साप्ताहिक अखबार आवाज-ए-खल्क में प्रकाशित हुई| देश भक्ति की भावना से ओतप्रोत होने के कारण “राष्ट्र का विलाप” नामक pustak पर अंग्रेजी सरकार ने रोक लगा दी और इस पुस्तक के लेखक को भविष्य में इस तरह के लेखन न करने की चेतावनी दी| इसके बाद ही धनपत राय ने प्रेमचंद के नाम से लिखना शुरू किया|

समाज के यथार्थ को चित्रित करने वाला साहित्य

उन्होंने जीवन और कालखंड की सच्चाई को पन्ने पर उतारा। वे सांप्रदायिकता, भ्रष्टाचार, ज़मींदारी, कर्ज़खोरी, ग़रीबी, उपनिवेशवाद पर आजीवन लिखते रहे।मुंशी प्रेमचंद आम भारतीय के रचनाकार थे। उन्होंने सरल, सहज और आम बोल-चाल की भाषा का उपयोग किया और अपने प्रगतिशील विचारों को दृढ़ता से तर्क देते हुए समाज के सामने प्रस्तुत किया। प्रेमचंद की प्रमुख कहानियों की सूची में-

'पंच परमेश्‍वर', 'गुल्‍ली डंडा', 'दो बैलों की कथा', 'ईदगाह', 'बड़े भाई साहब', 'पूस की रात', 'कफन', 'ठाकुर का कुआँ', 'सद्गति', 'बूढ़ी काकी', 'तावान', 'विध्‍वंस', 'दूध का दाम', 'मंत्र' आदि कहानियाँ निश्चित रूप से मील का पत्थर स्थापित हुई|

प्रेमचंद ने अपनी लेखनी के द्वारा जनमानस को समाज के उस सच, से परिचय करवाया जो हमारे समक्ष तो था परंतु हम उससे अपरिचित थे| प्रेमचंद ने जो भी लेखन किया उसमे उनके भावनाशील व्यक्तित्व की झलक दिखी| उन्होंने आम आदमी की घुटन, चुभन व कसक को अपनी कहानियों में प्रतिबिम्बित किया साथ ही साथ जिस प्रकार प्रेमचंद ने स्वयं भी उस पीड़ा को महसूस किया वो इस शाश्वत सत्य को शक्ति प्रदान करता है कि साहित्य समाज का दर्पण है |समाज के विषयों का जो आधारभूत एवं नींव के समान यथार्थवाद पहलू है उसके चित्रण को प्रेमचंद ने जोड़कर सारा साहित्य लिखा है| प्रेमचंद के जीवन और लेखन, दोनों में ही इसका तालमेल प्रतीत होता है|

1921 में उन्होंने महात्मा गांधी के आह्वान पर सरकारी नौकरी से इस्तीफा दे दिया और बनारस चले गए|1934 में वो हिन्दी फिल्मों में कहानियाँ लिखने की इच्छा से बंबई पोहोचे और अजंता सिनेटोन नामक एक प्रोड़क्शन हाउस के लिए एक साल तक स्क्रिप्ट लिखने का प्रस्ताव उन्होंने स्वीकार कर लिया| इसी क्रम में उन्होंने फिल्म “मजदूर”की स्क्रिप्ट लिखी, इस फिल्म में मजदूरों के ऊपर होने वाले अत्याचारों को बहुत करीब से दिखाया गया था परंतु यह फिल्म बड़े बड़े उद्योगपतियों के हस्तक्षेप की वजह से रिलीज ही नहीं हो सकी| प्रेमचंद जी को भी अब बंबई और उससे भी ज़्यादा वहाँ की फिल्मी दुनिया का वातावरण अनुकूल नहीं लग रहा था|

इसीलिए वो कान्ट्रैक्ट की अवधि पूर्ण होने से पहले ही बंबई छोड़ कर बनारस वापिस लौट गए|जहां मुंशी जी का स्वास्थ्य निरंतर बिगड़ता चला गया|प्रेमचंद अपने जीवन के अंतिम पहर की ओर बढ़ रहे थे, अंततः 8 October 1936 को उन्होंने संसार से विदा ली|

हिन्दी जगत को प्रकाशित करने वाला यह सूर्य अस्त तो हो गया परंतु उनके द्वारा लिखित रचनाएँ सदैव हमारे समक्ष जीवंत रहेंगी|

उन्होंने कुल 15 उपन्यास,  300 से कुछ अधिक कहानियाँ, 3 नाटक, 10  अनुवाद, 7 बाल-पुस्तकें तथा हजारों पृष्ठों के लेख, सम्पादकीय, भाषण, भूमिका, पत्र आदि की रचना की| अपने तैंतीस वर्षों के रचनात्मक जीवन में वे साहित्य की ऐसी विरासत सौंप गए जो गुणों की दृष्टि से अमूल्य है और आकार की दृष्टि से असीमित।

भारत समन्वय परिवार की ओर से महान साहित्यकार,उपन्यास सम्राट मुंशी प्रेमचंद और उनकी अमूल्य विरासत को शत शत नमन|

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