Bharat Ratna Purushottam Das Tandon | हिन्दी भारत की राष्ट्रीय भाषा कैसे बनी | Bharat Mata
जुल्म करने का असर खुद जुल्म करने वालों और उनके पड़ोसियों पर भी पड़ता है। पिछली दो लड़ाईयों से यह जाहिर हो गया है। हमें तीसरी लड़ाई से बचना है और दुनिया में अमन-चैन बनाये रखना है। ऐसा विधान लाना है जिसमें वसुधैव कुटु बकम की भावना निहित हो । अलग अलग सूबों को भी एक सीमा के अन्दर आज़ादी हो, लेकिन कुल मिलाकर देश एक होगा, ऐसा प्रजातंत्र हम चाहते है। हम यह भी चाहते है की मुस्लिम लीग भी आये और हमारे साथ मिलकर काम करे, लेकिन जो परिस्थिति है उसे भी हमें नजर अंदाज़ नहीं करना है । इस प्रस्ताव में भी मुस्लिम लीग के हितों का ध्यान रखा गया है!
ये शब्द हैं पुरुषोत्तम दास टंडन जी के, जिन्होंने सम्पूर्ण भारत को हिन्दी भाषा के धागे मे पिरोया। वो ऐसे स्वार्थहीन व्यक्ति थे, की जो वेतन उन्हे parliament member होने के लिए मिलता था उसे भी donation box मे डाल देते थे। कहते थे की मेरे ऐसे कोई खर्चे ही नहीं हैं। इसलिए उन्हे राजर्षि उपनाम दिया गया जिसका अर्थ है ऐसा प्रशासक जो ऋषि के समान सत्कार्य में लगा हुआ हो।
जैसा नाम वेसे काम।
पुरुषोत्तम दास टंडन का प्रारंभिक जीवन
1 अगस्त सन 1882, प्रयागराज मे पुरुषोत्तम दास टंडन जी का जन्म हुआ था। खेल हो या पढ़ाई पुरुषोत्तम जी हर क्षेत्र मे अव्वल थे। उनकी प्रारंभिक शिक्षा स्थानीय 'सिटी एंग्लो वर्नाक्यूलर विद्यालय' में हुई थी। फिर वर्ष 1904 मे इन्होंने प्रयागराज के मुइर सेंट्रल कॉलेज से graduation पूरा किया। इस कॉलेज का संचालन अंग्रेज करते थे इसलिए उनके द्वारा चलाए जा रहे नियम कानून की वजह से पुरुषोत्तम जी के बहुत से मतभेद हुए, यहाँ तक वो एक साल के लिए कॉलेज से निकाले भी गए। लेकिन जिन्हे लगन हो उन्हे रोकने वाला कौन हो सकता है? graduation होने के बाद इन्होंने वर्ष 1906 मे एल.एल.बी. और इतिहास में एमए की डिग्री हासिल की। इसी वर्ष अंग्रेजों के बंगाल विभाजन के विरोध मे बंग भंग आंदोलन हुआ। लेकिन पुरुषोत्तम जी अंग्रेजों की Divide and rule नीति को समझ गए थे। पूरे देश को एकता के सूत्र मे बांधने का एक ही उपाय उन्हे समझ आया, और वो था हमारी भाषा हिन्दी। उन्होंने कहा था, “जीवन के छोटे से छोटे क्षेत्र में हिंदी अपना दायित्व निभाने में समर्थ है।”
हिन्दी साहित्य सम्मेलन और हिन्दी का उत्थान
वर्ष 1908 में पुरुषोत्तम दास टंडन जी प्रख्यात विधिवेत्ता और राजनेता सर तेज बहादुर सप्रू के अधीन इलाहाबाद उच्च न्यायालय में शामिल हुए। हिन्दी को बढ़ावा देने हेतु इन्होंने 10 अक्टूबर 1910 को वाराणसी में 'नागरी प्रचारिणी सभा' के प्रांगण में 'हिन्दी साहित्य सम्मेलन' की स्थापना की। इस महत्वपूर्ण पहल के तहत, 1918 में 'हिन्दी विद्यापीठ' और 1947 में 'हिन्दी रक्षक दल' की स्थापना भी की गई। पुरुषोत्तम दास टंडन ने हिन्दी को देश की आज़ादी के आंदोलन के लिए एक महत्वपूर्ण साधन माना। वे मानते थे कि हिन्दी न केवल स्वतंत्रता प्राप्ति का एक मुख्य उपकरण है, बल्कि स्वतंत्रता की रक्षा करने में भी सहायक है। उनकी दृष्टि में, हिन्दी देश की सांस्कृतिक पहचान और स्वाभिमान का प्रतीक थी। 'हिन्दी साहित्य सम्मेलन' के इंदौर अधिवेशन में उन्होंने जोर देकर कहा कि "अब से राजकीय सभाओं, कांग्रेस की प्रांतीय सभाओं और अन्य सम्मेलनों में अंग्रेज़ी का एक शब्द भी सुनाई न पड़े।"
वर्ष 1919 में, जब देश को झकझोर देने वाली 'जलियाँवाला बाग़ हत्याकांड' की घटना घटी, तो कांग्रेस पार्टी ने इस गंभीर घटना की जांच के लिए एक समिति गठित की। राजर्षि पुरुषोत्तम दास टंडन इस समिति के सदस्य बनाए गए थे।
राजनीति और स्वतंत्रता संग्राम में योगदान
राष्ट्रपिता महात्मा गांधी के प्रभाव में आकर, पुरुषोत्तम दास टंडन ने अपने वकालत के पेशे को छोड़कर स्वतंत्रता संग्राम में सक्रिय भागीदारी का निर्णय लिया। उन्होंने 'रॉलेट एक्ट' के खिलाफ महात्मा गांधी द्वारा चलाए गए सत्याग्रह आंदोलन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। फिर 1921 मे जब वो ‘इलाहाबाद म्यूनिसपल कमिशन’ के सदस्य थे। तब उन्होंने भारतीय किसानों पर लगने वाले ‘water tax’ के खिलाफ आवाज उठाई। जब अंग्रेजों ने टैक्स हटाने से माना कर दिया तो पुरुषोत्तम जी ने कहा की भारतीय water tax देंगे तो अंग्रेज भी देंगे। इस लड़ाई मे उनकी जीत हुई और अंग्रेजों को भी water tax देना पड़ा।
पुरुषोत्तम दास टंडन ने स्वतंत्रता संग्राम और समाज सुधार के क्षेत्र में महत्वपूर्ण योगदान दिया। वर्ष 1930 में महात्मा गांधी के 'सविनय अवज्ञा आंदोलन' के हिस्से के रूप में बस्ती में गिरफ्तार किए गए और कारावास का दंड भुगता। इसके बाद, उन्होंने इलाहाबाद में 'कृषक आंदोलन' का संचालन किया और उत्तर प्रदेश में सविनय अवज्ञा आंदोलन का सक्रिय नेतृत्व किया। किसानों की समस्याओं को हल करने के लिए लगान की नाअदायगी के आंदोलन को भी उन्होंने समर्थन दिया।
राजर्षि पुरुषोत्तम दास टंडन की सामाजिक और राजनीतिक सूझबूझ
1937 में, वे संयुक्त प्रांत व्यवस्थापिका परिषद् के सदस्य बने और इसके अध्यक्ष के रूप में नियुक्त हुए। इस भूमिका में रहते हुए, उन्होंने विभाजन का विरोध किया और भारत के अखंडता के लिए अपने दृढ़ दृष्टिकोण को प्रस्तुत किया। 1931 में लंदन में आयोजित 'गोलमेज सम्मेलन' के दौरान, जब महात्मा गांधी वापस लौटे, तब उनके साथ स्वतंत्रता सेनानियों में से एक पुरुषोत्तम दास टंडन भी थे।
बिहार में कृषि सुधार के लिए उनके प्रयास उल्लेखनीय थे। 1933 में वे बिहार की 'प्रादेशिक किसान सभा' के अध्यक्ष चुने गए और बिहार किसान आंदोलन के साथ सहानुभूति रखते हुए कृषि विकास के अनेक कार्यों को पूरा किया। उनके कार्यों ने न केवल क्षेत्रीय विकास में योगदान किया, बल्कि स्वतंत्रता संग्राम में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।
वर्ष 1951 ई. में पुरुषोत्तम दास टंडन कांग्रेस के अध्यक्ष बनाये गये थे, किंतु इस पद पर वे अधिक समय तक नहीं रहे। क्योंकि बाद के समय में भाषायी राज्यों के सम्बन्ध में कांग्रेस से उनका मतभेद हो गया। मतभेद हो जाने के कारण उन्होंने कांग्रेस से त्याग पत्र दे दिया।
आज़ादी के बाद, पुरुषोत्तम दास टंडन ने उत्तर प्रदेश की विधान सभा में प्रवक्ता के रूप में तैरह साल तक अपनी सेवाएँ दीं। 31 जुलाई, 1937 से लेकर 10 अगस्त, 1950 तक के इस लंबे कार्यकाल में, उन्होंने विधान सभा को कई महत्वपूर्ण भाषण दिए और विभिन्न मुद्दों पर अपने विचार प्रस्तुत किए। उनके नेतृत्व में विधान सभा ने कई महत्वपूर्ण विधेयकों पर चर्चा की और कई महत्वपूर्ण निर्णय लिए। टंडन की सूझबूझ और समर्पण ने उन्हें इस भूमिका में एक सम्मानित स्थान दिलाया और उनकी योगदान की छाप उत्तर प्रदेश की राजनीति पर हमेशा बनी रहेगी।
पुरुषोत्तम दास टंडन: भारत रत्न से सम्मानित जीवन
वर्ष 1961 में हिन्दी भाषा को देश में अग्रणी स्थान दिलाने में उनके योगदान के लिए पुरुषोत्तम दास टंडन को भारत सरकार द्वारा देश का सर्वोच्च नागरिक पुरस्कार 'भारत रत्न' प्रदान किया गया। 23 अप्रैल, 1961 को उन्हें इस प्रतिष्ठित उपाधि से सम्मानित किया गया, जो उनकी हिन्दी भाषा के प्रति समर्पण और प्रभावशाली कार्यों की सराहना थी। टंडन का यह सम्मान उनके लम्बे समय तक किये गए प्रयासों और भाषा के प्रति उनकी अनमोल सेवा की पहचान था।
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