प्राचीन पौराणिक मान्यता है कि राक्षसों के दुराचार से जब देवता त्रस्त हो गए तो उन्होंने अपनी रक्षा के लिए शक्ति की आराधना की। फलस्वरुप शक्ति ने दुर्गा रूप में प्रकट होकर राक्षसों का विध्वंस किया और देवताओं के देवत्व की रक्षा की। देवताओं को सुरक्षित रखने के लिए यह देवी असुरों से सदैव संग्राम करती रहती थी। अतः इस देव असुर संग्राम का रूप देकर एक पूजा की परंपरा आरंभ हुई। तब से अनेक देवियों की पूजा का प्रचलन हिन्दू धर्म में शुरू हुआ। आज भी हिन्दू समाज में शक्ति के नौ रूपों को नौ दिनों तक पूजा चलती है जिसे ‘नौ दुर्गे’ या ‘नवरात्रि’ कहते हैं।

माता के नौ रूपों का वर्णन

1. प्रतिपदा (प्रथमं शैलपुत्री)

भगवती दुर्गा का प्रथम स्वरूप शैलपुत्री के रूप में है। हिमालय के यहां जन्म लेने के कारण भगवती को शैल पुत्री कहा गया। शैलपुत्री का वाहन वृषभ है। उनके दाहिने हाथ में त्रिशूल तथा बायें हाथ में कमल पुष्प है। इस स्वरूप का पूजन पहले दिन किया जायेगा। आहवान स्थापन और विसर्जन प्रातःकाल ही होंगे। किसी एकान्त स्थान पर मृत्तिका से वेदी बनाकर उसमें जौ गेहूं बोयें। उस पर कलश स्थापित करें कलश पर मूर्ति स्थापित करें। भगवती की मूर्ति किसी भी धातु या मिट्टी की हो सकती है। कलश के पीछे स्वास्तिक तथा युग्म पार्श्व त्रिशूल बनायें।

ध्यान

चन्द्रार्धकृत वन्दे वांछित लाभाय चन्द्रार्ध कृत शेखराम 
वृषा रूढ़ां शैलपरां शैलपुत्री यशस्वनीम।1।
पुर्णेन्दु निभां गौरी, मूलधार स्थितां प्रथम दुर्गा त्रिनेत्राम्।
पटाम्बर परिधानां रत्न किरीटा, नानालंकार भूषिता।
प्रफुल्ल वदनां, पल्लवधरां कातंकपोलां तुंग कुचाम।
कमनीयां लावण्यां, स्ने मुखी, क्षीणाध्यां नितम्बनीम् ।

स्त्रोत

प्रथम दुर्गा त्वंहि भवसागर तारणीम।
धन ऐश्वर्य दायिनी शैल पुत्री, प्रणमाम्यहम्।
त्रिलोक जननी त्वंहि परमानंद प्रदायनीम|
सौभाग्य आरोग्य दायनी, शैलपुत्री प्रणामाम्यहम् 
चराचरेश्वरी त्वंहि महामोह विनाशिनि।
भुक्ति मुक्ति दायिनी, शैल पुत्री प्रणामाम्यहम्।

कवच

ओमकारः में शिरः पातु मूलाधार निवासिनी। ह्रींकारः पातु ललाटे बीजरूपा महेश्वरी श्री कारः पातु वदना, लावण्यरूपा महेश्वरी । हं कारः पातु हृदये तारिणी शक्ति स्वधृता । फटकारे पातु सर्वांगे सर्व सिद्धि फलप्रदा । (शैलपुत्री के पूजन से 'मूलाधार चक्र' जाग्रत होता है।)

2. द्वितीया ब्रह्मचारिणी

उमा भगवती दुर्गा की नौ शक्तियों का दूसरा स्वरूप ब्रह्मचारिणी का है। ब्रह्म का अर्थ है तपस्या । तप का आचरण करने वाली भगवती को ब्रह्मचारिणी कहा गया। इनके दाहिने हाथ में अप की माला और बायें हाथ में कमण्डल रहता है। सृष्टि का विस्तार इन्हीं की कृपा से हुआ।

ध्यान

वन्दे वांच्छित लाभाय चन्द्रार्धकृत शेखराम्।
जयमाला कमण्डलु धरां, ब्रह्म चारिणी शुभाम्।
गौरवर्णाम स्वाधिष्ठान स्थिता, द्वितीय दुर्गा त्रिनेत्राम्।
धवल परिधानां ब्रह्मरूपां पुष्पालंकार भूषिताम्।।
पद्मवंदना पल्लवाधरा, कातंकपोलां पीन पयोधराम्।
कामनीयां लावण्यां स्मेरमुखी, निम्ननाभि नितम्बनीम् ।।

स्त्रोत

तपश्चारिणीं त्वंहि तापत्रय निवारणीम्।
ब्रह्मरूप धरां ब्रह्म चारिणी, प्रणमाम्यहम्।।
नवचक्र भेदनी त्वंहि, नवऐश्वर्य प्रदायनीम।
धनदा सुखदा ब्रह्म चारिणी, प्रणमाम्यहम्।।
शंकरप्रिया त्वंहि भुक्ति मुक्तिप्रदायिनी।
शान्तिदा मानदा ब्रह्म चारिणीं प्रणमाम्यहम्।।

कवच

त्रिपुरा में हृदये पातु, ललाटे पातु शंकर भामिनी अपर्णा सदापातु नेत्री, अधरो च कपोलो पंचदशी कण्ठे पातु मध्यदेशे पातु माहेश्वरी षोडशी सदापातु नाभी गुह्येच पादयो । अंग प्रत्यंग सतत पातु ब्रह्म चारिणी।
भगवती ब्रह्मचारिणी का ध्यान स्तोत्र और कवच का पाठ करने से स्वाधिष्ठान चक्र जाग्रत होता है और मनुष्य में तप त्याग वैराग्य, सदाचार तथा संयम की वृद्धि होती है।

बीज मंत्र

ॐ ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे
ॐ ब्रह्म ब्रह्मचारिणी देव्यै नमः ।

3. तृतीयं चन्द्रघंटा

भगवती दुर्गा का तृतीय स्वरूप 'चन्द्रघंटा' का है। इनके मस्तक में घंटे के आकार का अर्धचन्द्र है। इनके शरीर का रंग स्वर्ण के समान चमकीला है। इनके 10 हाथ हैं जिनमें खड्ग आदि शस्त्र विभूषित हैं। इनका वाहन सिंह है। इनकी मुद्रा युद्ध के लिये उद्यत रहने वाली है। इनकी घंटे की भयानक चण्डध्वनि से अत्याचारी दानव दैत्य सदैव प्रकम्पित रहते हैं।

ध्यान

वन्दे वांछित लाभाय चन्द्रार्धकृत शेखराम।
सिंहारूढ़ाम दशभुजां चन्द्रघंटा यशस्वनीम्।।
कंचनाभां मणिपुर स्थितां तृतीयं दुर्गा त्रिनेत्राम्।
खड्ग, गदा, त्रिशूल, चापशेर, पद्म, कमंडल, 
माला बरामीत कराम्।। पटाम्बर 
परिधानां मृदुहास्यां नानालंकार भूषिताम्।
मंजीर हार केयूर किंकिणि रत्नकुंडल मण्डिताम्।।
प्रफुल्ल वदना विम्बाधरां, कांत कपोलाम् तुंग कुचाम्।
कमनीयां, लावाण्यां, क्षीणा कटि, नितम्बनीम् ।।

स्त्रोत

आपदद्वारिणी त्वंहि, आद्या शक्तिः शुभा पराम्।
अणिमादि सिद्धिदात्री, चन्द्रघंटे प्रणामाम्यहम्||
चन्द्र मुखी इष्टदात्री इष्ट मंत्र स्वरूपिणीम्।
धनदात्री, आनंद दात्री, चन्द्रघंटे, प्रणामाम्यहम्।।
नाना रूप धारिणीं, इच्छामयी ऐश्वर्य दायिनी।
सौभाग्य आरोग्य दायिनी, चन्द्र घंटे प्रणामाम्यहम् ।।

कवच 

रहस्यम श्रृणु वक्ष्यामि, शैवेशी कमलानने। श्री चन्द्र घंटास्य कवचं सर्व सिद्धि दायकम् ।। बिना न्यासं, बिना विनियोगं, बिना शापोद्धारं, बिना होमं । स्नान शौचादिकं नास्ति, श्रद्धामात्रेणा सिद्धिदाम कुशिष्याम, कुटिलाय, वंचकाय निन्दकाय च। न दातव्यं, न दातव्यं, न दातव्यं कदाचितम् ।। भगवती चंद्र घंटा का ध्यान, स्तोत्र तथा कवच का पाठ करने से मणिपुर जाग्रत होता है।

4. चतुर्थ कूष्माण्डा

भगवती दुर्गा के चतुर्थ स्वरूप का नाम कूष्माण्डा है। अपनी मंद हंसी के द्वारा अण्ड अर्थात ब्रह्माण्ड को उत्पन्न करने के कारण इन्हें 'कूमाण्डा' नाम से अभिहित किया गया है। जब सृष्टि का अस्तित्व नहीं था चारों ओर अंधकार ही अंधकार था तब इन्हीं देवी ने अपने इर्षत हास्य से ब्रह्माण्ड की रचना की। अतः यही सृष्टि की आदि स्वरूपा आदि शक्ति हैं।
इनकी 8 भुजाएं हैं अतः यह अष्टभुजा देवी के नाम से विख्यात हैं। इनके 7 हाथों में क्रमशः कमंडलु, धनुष, बाण, कमल, पुण्य अमृत पूर्ण कलश, चक्र तथा गदा है। आठवें हाथ में सभी सिद्धियों तथा निधियों को देने वाली जयमाला है। इनका वाहन सिंह है। संस्कृत में कुम्हड़े को कुष्माण्डा कहा जाता है अतः कुम्हड़े की बलि इन्हें प्रिय है।

ध्यान

वन्दे वांछित कामार्थे, चन्द्रार्धकृत शेखराम्। 

सिंहारूढां अष्टभुजां कूष्माण्डां यशस्वनीम् ।।

भास्वर भानु निभां अनाहत स्थितां चतुर्थ दुर्गा त्रिनेत्राम 

कमण्डलु, चाप, वाण, पद्म, सुधाकलश, चक्र, गदा जपवटी धराम।।

पाटाम्बर परिथानां कमनीयां, मृदुहास्या नानालंकार भूषिताम् ।

मंजीर कार केयूर किंकिण रत्न कुण्डल मंडिताम् ।।

प्रफुल्ल वंदनाचारू चिबुकां, कांत कपोलां, तुंग कुचाम।

कोमलांगी, स्मेरमुखी, श्री कंठि, निम्ननाभि, नितम्बनीम् ।।

स्तोत्र

दुर्गति नाशिनी त्वंहि, द्वारिद्रादि विनाशनीम।
जपदा धनदा कुष्माण्डेः प्रणामाम्यहम्।।
जगतमात जगत्कर्त्री जगदाधार रूपणीम।
चराचरेश्वरी कूष्माण्डे, प्रणामाम्यहम् ।।
त्रैलोक्य सुंदरी त्वंहि, दुःख शोक निवारिणीम।
परमानंदमयी कूष्माण्डे प्रणामाम्यहम् ।।

कवच

हंसैर में शिरः पातु कुष्माण्डे भयनाशिनीम् । हसलकरीं नेंत्रं च हंसरोश्च ललाटकम् । कौमारी पातु सर्वांगम, बाराही उत्तरे तथा पूर्वं पातु वैष्णवी, इन्द्राणी दक्षिणो मम । दिग्वेिदक्षु सर्वत्रैव लूं बीजं सर्वदावतु भगवती कूष्माण्डा का ध्यान, स्तोत्र तथा कवच का पाठ करने से 'अनाहत चक्र' जाग्रत होता है जिससे समस्त रोग तथा शोक नष्ट होते हैं आयु, यश, बल और अरोग्य की वृद्धि होती है।

5. पंचम (स्कन्द माता)

भगवती दुर्गा के पंचम स्वरूप को स्कन्दमाता के रूप में जाना जाता है। स्कन्द कुमार अर्थात कार्तिकेय की माता होने के कारण इन्हें स्कंद माता कहां जाता है। सिंह तथा मयूर इनका वाहन है। इनके विग्रह में कुमार स्कन्द बाल रूप में इनकी गोद में बैठे हैं। इनकी चार भुजायें हैं। वर्णा पूर्णाति शुभ्र है। यह कमल के फूल पर विराजमान रहती हैं इस कारण इनको पदमासना कहां जाता है।

ध्यान

वन्दे वांछित कामर्थे चन्द्रार्ध कृत शेखराम्।
सिंहारूढ़ा, चतुर्भुजा स्कन्दमाता यशस्वनीम्।।
धवल वर्णा, विशुद्ध चक्रस्थितो, पंचम दुर्गा त्रिनेत्राम अभय, पद्म युग्म करां, दक्षिण उरु पुत्र धराम।।
पटाम्बर परिधाना, मृदुहास्या नानालंकार भूषिताम् मंजीर, हार, केयूर, किंकिणि, रत्न कुण्डल धारिणीम।।
प्रफुल्ल वदनां, पल्लवाधरां, कांत कपोलां, पीन पयोधराम । कमनीया, लावण्यां चारू त्रिवली नितम्बनीम् ।।

स्तोत्र

नमामि स्कन्द माता, स्कन्धधारिणीम|
समग्र तत्व सागरम पार पार गहराम ।।
शिवा प्रभा समुज्ज्वला स्फुरच्छ शाग शेरवराम।
ललाट रत्न भास्करां, जगत्प्रीन्ति भास्कराम।।
महेन्द्र कश्यपार्चितां सनत्कुमारसंस्तुताम।
सुरा सुरेन्द्र वन्दितां यथार्थ निर्मलादभुताम।।
अतर्क्य रोचि रुविजां विकार दोष वर्जिताम्।
मुमुक्षु भिर्वि, चिन्तता विशेष तत्वमूचिताम्।।
नानालंकार भूषिताम् मृगेन्द्र वाहनाग्र जाम।
सुशुद्ध तत्व तोषणां त्रिदेव मार भूषिताम।
शुधामकायकारिणी सुरेन्द्रकौरि घातिनीम्।।
शुभां पुष्प मालिनीं, सुकर्ण कल्प शाखिनीम।
तमोन्धकार यामिनीं शिव स्वभाव कामिनीम्।
सहस्त्र सूर्य राजिकां घनज्जयोग कारिकाम।
सुशुद्ध काल कन्दलां सुभद्ध वृन्द मंजुलाम।।
प्रजायनी, प्रजावती नमामि मातरं सतीम्।
स्वकर्म कारणी गति हरि प्रयाव पार्वतीम्।
अनन्त शक्ति कान्तिदां यशोऽर्थ भुक्ति मुक्तिदाम् पुनः पुनर्जगद्वितां नमाम्यहम सुरार्चिताम्।
जयेश्वरी त्रिलोचने, प्रसीद देवि पाहिमाम् ।

कवच

ऐं बीजालिंका देवी पदयुग्म धरा परा । हृदयं पातु सा देवी कार्तिकेय युता ।। श्री ह्रीं हुं ऐं देवी पर्व स्यांपातु सर्वदा । सर्वांगं में सदा पातु स्कंध माता पुत्रप्रदा । वाणंव पर्ण मृते हूं फट बीज समन्विता । उत्तरस्या तथाग्ने च वारुणो नैऋतो अवतु ।। इन्द्राणां भैरवी चैवासितांगी च संहारिणी। सर्वदा पातु मां देवी चान्या न्यासु हि दिक्षुवै । स्कन्द माता का ध्यान स्तोत्र तथा कवच पाठ करने से विशुद्ध चक्र जाग्रत हो जाता है। मनुष्य की सभी इच्छाओं की पूर्ति होती है। परम शांति तथा सुख का अनुभव होता है।

6. षष्टम कात्यायनी

भगवती दुर्गा के छठे स्वरूप का नाम कात्यायनी है। यह महर्षि कात्यायन के यहां पुत्री रूप में उत्पन्न हुई थीं। अश्विन औष्ण चतुर्दशी को जन्म लेकर, आश्विन शुक्ल सप्तमी, अष्टमी तथा नवमी 3 दिनों तक इन्होंने कात्यायन ऋषि की पूजा ग्रहण कर दशमी को महिषासुर का वध किया। इनका स्वरूप अत्यंत भव्य तथा दिव्य है। इनका वर्ण स्वर्ण के समान चमकीला और भास्वर है। इनकी चार भुजाएं है। माता जी का दाहिनी तरफ का ऊपर वाला हाथ अभय मुद्रा में उठा है तथा नीचे वाला हाथ वरमुद्रा में। वायी ओर के ऊपर वाले हाथ में तलवार तथा नीचे वाले हाथ में कमल है इनका वाहन सिंह हैं।

ध्यान

वन्दे वांछित मनोरथार्थ, चन्द्रार्दाकृत शेखराम्।
सिंहारूढां चतुर्भुजां कात्यायनीं यशस्वनीम।।
स्वर्ण वर्णां, आज्ञाचक्रस्थिताम षष्टम दुर्गा त्रिनेत्राम्।
वराभीत करां षड़पद धरान कात्यायन सुतों भजामि।।
पटाम्बर परिधानां स्मेर मुखी नानालंकार भूषिताम्।
रत्नं मंडिताम । मंजीर हार केयूर किंकिण, कुण्डल
प्रसन्न वदना, पद्मबाथरां कातंकपोलां तुंग कुचाम।
कमनीयां, लावण्यां, त्रिवलीभूषितं निम्ननाभिम्।।

स्तोत्र 

कंचनाभां वरामयं दमधरां मुकुटोज्जवला।
स्मेरमुखीं, शिवपत्नीं कात्यायन सुते नमोऽस्तुते।।
परिधानां नानालंकारभूषिताम ।
पटाम्बर सिंहास्थतां, पद्महस्तां, कात्यायन सुते नमोऽस्तुते ||
परमानंद मयी देवि परंब्रह्म परमात्मा।
परमशक्ति, परम भक्ति कात्यायनसुते नमोऽस्तुते ।।
विश्वकर्ता, विश्वभर्ता, विश्वहर्ता, विश्वप्रीता।
विश्वर्चिता, विश्वातीता, कात्यायन सुते नमोऽस्तुते।।
"कां बीजा, कां जपानंदा, कां बीज जप तोषिते।
कां का बीज जपदासत कां कां संतुष्टा।।
कांकर हर्षिणी कां धनदा, धनमासना।
कां बीज जय कारिणी का बीज तप मानसा।
कां कारिणी का मंत्र पूजिता, कां बीज धारिणी।
कां को कूं, के कः, छः ठः स्वाहा रूपिणी ।।

कवच

कात्यायनी मुखं पातु, कां कां सिंहस्वरूपिणी । ललाटे विजया पातु मालिनी नित्य सुंदरी । काल्याणी हृदयं पातु जंघा भग मालिनी। भगवती कात्यायनी का ध्यान, स्तोत्र और कवच का पाठ करने से "आज्ञाचक्र" जाग्रत होता है। रोग, शोक, संताप तथा भय से मुक्ति होती है।

7. सप्तम काल रात्रि

माँ दुर्गा की सातवीं शक्ति काल रात्रि के नाम से जानी जाती है। इनके शरीर का वर्ण घने अंधकार की तरह एकदम काला है। सिर के बाल बिखरे हुये हैं गले में विद्युत की तरह चमकने वाली माला है। इनके 3 नेत्र हैं। तीनों नेत्र ब्रह्माण्ड के समान गोल है। इनके नेत्रों से विद्युत की तरह चमकीली किरणें निःस्वृत होती हैं। इनकी नासिका के श्वास प्रश्वास से अग्नि की तरह भयंकर ज्वालाएं निकलती हैं। इनका वाहन गर्दभ अर्थात गया है। इनका दाहिना हाथ ऊपर को करमुद्रा में तथा नीचे वाला दाया हाथ अभय मुद्रा में उठा हुआ है। ऊपरी बायें हाथ में लोहे का कांटा थमा रहता है तथा निचले बाये हाथ में खड्ग रहता है। मां कालरात्रि का स्वरूप देखने में अत्यंत भयंकर है लेकिन वे हमेशा फल ही देने वाली हैं। इसी कारण इनका नाम शुभकरी भी है। अतः भक्तों को इनसे भयमीत होने की आवश्यकता नहीं है।

ध्यान

एक वेणी जपाकर्णपुरा नाना खरास्थिता।
लम्बोष्ठी कर्णिकार्णी तैलाभ्यक्त शरीरणि।।
वाम पदोल्लसल्लोह, लता कण्टक भूषिता।
वर्धन मूर्ध ध्वजां कृष्णां कालरात्रिर्भयकरीं।
कराल वदनां घोरां मुक्तकेशी चतुर्भुजां।।
काल रात्रि करालिकादिव्यां विद्युतमाला, विभूषिताम।
दिव्य लौह बज्र खड्ग वोमोधर्ध्नि कराम्बुजाम् अभय वरदा चैव दक्षिणो ध्वाधः पाणिकाम् महामेघ प्रभां ध्यामां तक्षा चैन गर्दभारूढ़ा।
घोर दंश करालस्यां पीनोन्नत पयोधराम।।
सुख प्रसन्न वदना स्मेरान सरोसहाम।
एवं सचिन्तयेत काल रात्रि सर्वकाम समृद्धिदाम ।

स्तोत्र

ही कालरात्रि श्री कराली च क्ली कल्याणी कलावतीमा।
काल माता कलि दर्पनी कमदशि कुपान्विता।।
काम बीज जपाब्दा काम बीज स्वरूपिणी।
कुमविघ्नी, कुलीनीर्ति नाशिनी कुल कामिनी।
क्लीं ह्रीं श्रीं मंत्र वाणेन, काल कण्टक कपातिनी।
कृपा मयी, कृपा धारा, कृपा धारा कृपा गया।

कवच

ॐ क्लीं में हृदयं पातु पादौ श्री काल रात्रि । ललाटे सततः पातु, दुष्ट ग्रह निवारिणी।। रसनां पातु कौमारी, भैरवी चक्षुषोर्भम् । कटि पुष्टे महेशानी, कर्णो शंकर भामिनी ।। वर्जितानी तु स्थानाभि, यानि च कवचेन हि। तानि सर्वाणि में देवी, सततंपातु स्तुम्भिनी।।
भगवती कालरात्रि का ध्यान, स्तोत्र तथा कचव पाठ करने से 'भानू चक्र' जाग्रत होता है। इनकी कृपा से अग्नि भय, आकाश मय तथा भूत प्रेत पिशाच स्मरण मात्र से भाग जाते हैं। यह माता भक्तों को अभय दान देने वाली हैं।

8. अष्टम (महागौरी)

वृषभ की भगवती दुर्गा का अष्टम स्वरूप महागौरी है। भगवती महागौरी है। क्षणिकांति पीठ पर विराजमान हैं जिनके मस्तक पर चन्द्र का मुकुट मणि के समान कांति वाली अपनी 4 भुजाओं में शंख चक्र धनुष और बाण धारण किये हुये हैं। इनके कानों में रत्न जटित कुण्डल झिलमिलाते हैं, ऐसा है भगवती महागौरी का स्वरूप ।

ध्यान

वन्दे वांछित कामार्थे, चन्द्रार्धकृत शेखराम।
वृषभारूढ़ां चतुर्भुजां महागौरी यशस्वनीम्।।
पूर्णेन्दु निभां गौरीं सोमचक्रस्थितां अष्टम दुर्गा त्रिनेत्राम्।
वरा भीति करां त्रिशूल डमरूधरां महागौरीं भजेम्।
पटाम्बर परिधानां मृदुहास्या नानालंकारभूषिताम्।
मंजीर हार केयूर किंकिणिरत्नकुण्डल मंडिताम्।
प्रसन्नवदनां पल्लवधरां कांत कपोलां त्रैलोक्यमोहनम्।
कमनीयां लावण्यां मृणाल चंदनगन्ध लिप्तम् ।।

स्तोत्र

सर्व संकट हंत्री त्वंहि धन ऐश्वर्य प्रदायनीम् ।
ज्ञानदां चतुर्वेदमयी महागौरीं प्रणामाम्यहम् ।।
सुखं शांति दात्री, धन धान्य प्रदायनीम् ।
डमरू वाद्य प्रियां अद्यां गौरीं प्रणामाम्यहम् ।।
त्रैलोक्य मंगला त्वहिं, तापत्रय हरिणीम्।
वरदाचेतन्य मयी, महागौरीं प्रणामाम्यहम् ।

कवच

ओंकार पातु शीष मां, हीं बीजं मां हृदयो । क्लीं बीजं सदापातु नमो गृहो च पादयो ।। ललाट गर्णी हूँ बीजं पातु महागौरी मां नेत्रं प्राणी । कपोल चिबुको फट स्वाहा, मां सर्ववदनो ।
भगवती महागौरी का ध्यान, स्तोत्र तथा कवच पाठ करने से सोम चक्र जाग्रत होता है जिससे चले आ रहे संकट से मुक्ति होती है। पारिवारिक दायित्व की पूर्ति होती है और आर्थिक समृद्धि बढ़ती है।

9. नवम सिद्धिदात्री

आदि शक्ति भगवती का नवम स्वरूप सिद्धिदात्री है। इनको कमला अर्थात महालक्ष्मी भी कहते हैं। इनका आसान कमल है। इनके निचले दाहिने हाथ में कमल है और ऊपर वाले हाथ में गदा है। वायीं ओर नीचे वाले हाथ में शंख है और ऊपर वाले हाथ में कमल पुष्प है। यही भगवती सिद्धदात्री का स्वरूप है।

ध्यान

वन्दे वांछित मनोरथार्थे चन्द्रार्धकृत शेखराम।
कमल स्थिता चतुर्भुजां सिद्धिदात्री यशस्वनीम।।
स्वर्णवर्णा निर्वाण चक्र स्थितां नवम दुर्गा त्रिनेत्राम।
शंख चक्र गदा पद्म धरां सिद्धिदात्री भजेम्।।
पटाम्बर परिधानां सुहास्या नानालंकार मंजीर हार केंयूर किंकिरिम रत्नं कुण्डलं प्रफुल्लं वदनां पल्लव धरां कांत कपोलाम पीन पयोधराम् भूषिताम् मंडिताम् ।
कमनीयां लावण्यां श्री कटि निम्ननाभि नितम्बनीम्।।

स्तोत्र

कंचनामा, शंखचक्रगदापद्म धरां मुकुटोज्ज्वलां स्मेरमुखी विष्णुपत्नीं सिद्धिदात्रीं नमोऽस्तुते।
पटाम्बर परिधानां नानालंकार भूषिताम नलिस्थितां, नलनार्थी सिद्धिदात्री नमोऽस्तु ते।
परमानंद मयी देवि पर ब्रह्म परमात्मा।
परम शक्ति परमभक्ति सिद्धिदात्री नमोऽस्तुते।।
विश्वकर्ती विश्वभर्ती, विश्वहर्ती विश्व प्रिया।
विश्वार्चिता विश्वातीता सिद्धिदात्री नमोऽस्तु ते।। भुक्तिमुक्तिकारिणी भक्त कष्ट निवारिणी।
भवसागर तारिणी सिद्धि दात्री नमोऽस्तुते।।
धर्मार्थ काम प्रदायनी, महामोह विनाशिनी।
मोक्षदायनी सिद्धिदायनी सिद्धिदात्री नमोऽस्तु ते।।

कवच

ओंकार पातु शीर्षो मां, ऐं बीजं मां हृदयो । ह्रीं बीजम सदापातु नमो, ग्रहो च पादयो ।। ललाट कर्णो श्री बीजं पातु, क्लीं बीजं मां नेत्र घ्राणो। कपोल चिबुकौ हसौः पातुं, जगत्प्रसत्यै मां सर्ववदनो।। (भगवती सिद्धिदात्री का ध्यान, स्तोत्र और कवच का पाठ करने से निर्वाण चक्र जाग्रत होता है। इससे ऋद्धि- सिद्धि प्राप्त होती है। कार्यों में चले आ रहे व्यवधान दूर हो जाते हैं और कामनाओं की पूर्ति होती है।)