श्रीमद्भगवद्गीता का सत्रहवाँ अध्याय, श्रद्धात्रय विभाग योग, मानव जीवन में श्रद्धा के महत्व और उसके तीन स्वरूपों — सात्त्विक, राजसिक और तामसिक — का गहन विश्लेषण प्रस्तुत करता है। यह अध्याय न केवल श्रद्धा के प्रकारों को स्पष्ट करता है, बल्कि यह भी बताता है कि श्रद्धा का स्वरूप व्यक्ति के स्वभाव, कर्म, आहार, यज्ञ, तप और दान पर किस प्रकार प्रभाव डालता है। इस अध्याय में भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन के प्रश्नों का उत्तर देते हुए श्रद्धा के विविध आयामों को उजागर करते हैं, जिससे मनुष्य अपने जीवन को श्रेष्ठता की ओर ले जा सकता है।

श्रद्धा का स्वरूप: जैसा अंतःकरण, वैसी श्रद्धा

भगवान श्रीकृष्ण के अनुसार, प्रत्येक मनुष्य की श्रद्धा उसके अंतःकरण की वृत्तियों के अनुसार होती है। जैसा मन, वैसी श्रद्धा — और जैसी श्रद्धा, वैसा ही उसका जीवन। गीता में कहा गया है कि श्रद्धा तीन प्रकार की होती है — सात्त्विक, राजसिक और तामसिक। सात्त्विक श्रद्धा शुद्ध, निर्मल और कल्याणकारी होती है। राजसिक श्रद्धा में दिखावा, महत्वाकांक्षा और भौतिक सुख की प्रधानता होती है। तामसिक श्रद्धा अंधविश्वास, अज्ञान और हानिकारक प्रवृत्तियों से युक्त होती है। व्यक्ति की जैसी श्रद्धा होती है, वह उसी प्रकार के कर्म करता है और उसी प्रकार के फल प्राप्त करता है। सात्त्विक कर्म से सात्त्विक फल, राजसिक कर्मों से राजसिक फल और तामसिक कर्मों से तामसिक फल की प्राप्ति होती है। इसलिए मनुष्य को चाहिए कि वह निष्काम भाव से कर्म करे और अपने सभी कर्मों तथा उनके फलों को परमात्मा को समर्पित कर दे।

इस अध्याय में श्रद्धा के प्रभाव को जीवन के विविध क्षेत्रों में विस्तार से समझाया गया है। सबसे पहले, आहार या भोजन की बात करें तो सात्त्विक व्यक्ति सात्त्विक भोजन पसंद करता है, जो स्वास्थ्यवर्धक, रसयुक्त, हल्का और पवित्र होता है। राजसिक व्यक्ति तीखा, खट्टा, नमकीन, अधिक मसालेदार भोजन पसंद करता है, जबकि तामसिक व्यक्ति बासी, सड़ा-गला, स्वादहीन या हानिकारक भोजन ग्रहण करता है। भोजन की यह प्रवृत्ति न केवल शारीरिक स्वास्थ्य को प्रभावित करती है, बल्कि मानसिक और आध्यात्मिक स्थिति को भी दर्शाती है।

यज्ञ के तीन रूप: उद्देश्य के अनुसार भिन्नता

यज्ञ या कर्म के संदर्भ में, सात्त्विक यज्ञ बिना किसी फल की इच्छा के, शास्त्रानुसार और श्रद्धा से किया जाता है। राजसिक यज्ञ दिखावे, मान-सम्मान या किसी स्वार्थ के लिए किया जाता है, जबकि तामसिक यज्ञ बिना विधि-विधान, बिना श्रद्धा या गलत उद्देश्य से किया जाता है। इसी प्रकार, तप या आत्मिक साधना के भी तीन प्रकार बताए गए हैं। शरीर का तप अहिंसा, ब्रह्मचर्य और पवित्रता में निहित है। वाणी का तप सत्य, प्रिय और हितकर वचन बोलने में है, जबकि मन का तप शांति, सौम्यता, मौन, आत्मसंयम और ईश्वर-चिंतन में है। सात्त्विक तप निष्काम भाव से, राजसिक तप दिखावे के लिए और तामसिक तप अज्ञान या हठ से किया जाता है।

दान और श्रद्धा – जीवन को देने की भावना

दान के क्षेत्र में भी श्रद्धा की भूमिका महत्वपूर्ण है। सात्त्विक दान योग्य व्यक्ति को, उचित समय और स्थान पर, बिना किसी अपेक्षा के दिया जाता है। राजसिक दान मान-सम्मान या प्रतिफल की इच्छा से किया जाता है, जबकि तामसिक दान अनुचित व्यक्ति को, अपमानजनक ढंग से या बिना श्रद्धा के किया जाता है। इस प्रकार, श्रद्धा का स्वरूप हमारे जीवन के प्रत्येक क्षेत्र को गहराई से प्रभावित करता है।

भगवान श्रीकृष्ण स्पष्ट करते हैं कि मनुष्य को अपने सभी कर्म — यज्ञ, तप, दान — श्रद्धा और निष्काम भाव से करना चाहिए। जब मनुष्य अपने कर्मों और उनके फलों को परमात्मा को समर्पित कर देता है, तभी वह कर्मबंधन से मुक्त हो सकता है। ॐ तत् सत् — यह मंत्र परमात्मा का प्रतीक है, जिसे अंतःकरण में धारण करना ही जीवन की सफलता है। शास्त्रों के अनुसार किया गया कर्म ही श्रेष्ठ है। जो व्यक्ति शास्त्रविधि से रहित, केवल मनमाने ढंग से यज्ञ, तप या दान करता है, वह न तो इस जन्म में और न ही अगले जन्म में कोई लाभ प्राप्त कर सकता है। अतः श्रद्धा के साथ शास्त्रानुसार कर्म करना ही जीवन का सर्वोत्तम मार्ग है।

निष्कर्ष: श्रद्धा के साथ कर्म ही मोक्ष का मार्ग है

श्रद्धात्रय विभाग योग हमें यह सिखाता है कि श्रद्धा का स्वरूप हमारे जीवन, विचार, आहार, व्यवहार, साधना और दान को गहराई से प्रभावित करता है। सात्त्विक श्रद्धा ही मुक्ति का मार्ग है, जबकि राजसिक और तामसिक श्रद्धा बंधन की ओर ले जाती है। इस अध्याय का सार यही है कि मनुष्य को अपने अंतःकरण को शुद्ध रखते हुए, निष्काम भाव से, श्रद्धा और भक्ति के साथ अपने सभी कर्म परमात्मा को समर्पित करने चाहिए। यही जीवन की सच्ची सफलता और मोक्ष का मार्ग है।

इस प्रकार, श्रीमद्भगवद्गीता का सत्रहवाँ अध्याय, श्रद्धात्रय विभाग योग, न केवल श्रद्धा के स्वरूपों का विवेचन करता है, बल्कि यह भी सिखाता है कि जीवन में सच्ची श्रद्धा, शुद्ध अंतःकरण और निष्काम कर्म ही मनुष्य को परमात्मा की ओर ले जाते हैं। जब मनुष्य अपने जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में सात्त्विक श्रद्धा को अपनाता है, तो वह न केवल स्वयं का कल्याण करता है, बल्कि समाज और समूचे विश्व के लिए भी प्रेरणा का स्रोत बनता है। यही गीता का संदेश है — श्रद्धा, समर्पण और शुद्धता के साथ कर्म करते हुए जीवन को सार्थक बनाना।

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