Bhagwad Geeta Chapter 16 | दैवासुर संपद विभाग योग | Gita Gyaan Series | Bharat Mata

श्रीमद्भगवद्गीता का सोलहवाँ अध्याय “दैवासुर सम्पद् विभाग योग” मनुष्य की प्रकृति और उसके गुणों के दो मुख्य प्रकारों पर प्रकाश डालता है। इस अध्याय में श्रीकृष्ण अर्जुन को समझाते हैं कि संसार में मनुष्यों के स्वभाव दो प्रकार के होते हैं: एक दैवी (देवताओं जैसा) और दूसरा आसुरी (असुरों जैसा)। ये दोनों ही सम्पदाएँ मनुष्य के हृदय में विद्यमान रहती हैं और उसके कर्म, विचार और व्यवहार को निर्धारित करती हैं।

दैवी सम्पदा: लक्षण और महत्व

दैवी सम्पदा वह है जो मनुष्य को मुक्ति, शांति और आत्मिक उन्नति की ओर ले जाती है। श्रीकृष्ण ने इस अध्याय में दैवी सम्पदा के छब्बीस मुख्य गुणों का वर्णन किया है, जिनमें से कुछ प्रमुख इस प्रकार हैं:

·         अभय (निर्भयता): भय का सर्वथा अभाव, जो आत्मविश्वास और आध्यात्मिक बल का प्रतीक है।

·         सत्त्वसंशुद्धि (अन्तःकरण की पवित्रता): मन, वचन और कर्म की पवित्रता।

·         ज्ञानयोगव्यवस्थिति (ज्ञान और योग में स्थिरता): तत्त्वज्ञान के लिए ध्यानयोग में दृढ़ता।

·         दान (सात्त्विक दान): निस्वार्थ भाव से देना।

·         दम (इन्द्रियों का संयम): इन्द्रियों पर नियंत्रण।

·         यज्ञ (देवताओं की पूजा): भगवान, देवता और गुरुजनों की पूजा।

·         स्वाध्याय (वेद-शास्त्रों का अध्ययन): ज्ञानार्जन की लालसा।

·         तप (कष्टसहन): स्वधर्म-पालन के लिए कष्ट सहना।

·         आर्जव (सरलता): मन, वचन और कर्म की सरलता।

·         अहिंसा: किसी को भी मन, वचन या कर्म से नुकसान न पहुँचाना।

·         सत्य: सत्य बोलना और सत्य का पालन करना।

·         अक्रोध: क्रोध का त्याग।

·         त्याग: स्वार्थ का त्याग।

·         शान्ति: मन की शांति।

·         अपैशुन (परनिंदा न करना): दूसरों की निंदा न करना।

·         दया: सभी प्राणियों के प्रति दया भाव।

·         अलोलुप्त्वं (लालच का अभाव): संग्रह की प्रवृत्ति का त्याग।

·         मार्दव (कोमलता): विनम्रता और कोमलता।

·         ह्री (लज्जा): अनुचित कार्यों में लज्जा।

·         अचापल (चंचलता का अभाव): मन की स्थिरता।

इन सभी गुणों के विकास से मनुष्य का चरित्र निर्मल होता है और वह परमात्मा की ओर अग्रसर होता है।

आसुरी सम्पदा: लक्षण और परिणाम

आसुरी सम्पदा वह है जो मनुष्य को बंधन, अशांति और अधोगति की ओर ले जाती है। श्रीकृष्ण ने आसुरी सम्पदा के मुख्य विकारों का वर्णन किया है, जिनमें शामिल हैं:

·         अभिमान (घमंड): स्वयं को श्रेष्ठ समझना।

·         दम्भ (दिखावा): झूठी प्रशंसा पाने की इच्छा।

·         क्रोध: छोटी-छोटी बातों पर क्रोधित होना।

·         कठोरता: दूसरों के प्रति क्रूरता।

·         अज्ञान: ज्ञान का अभाव।

·         दर्प (अहंकार): स्वयं को महान समझना।

आसुरी सम्पदा वाले मनुष्य भोग, मोह, लोभ, काम, क्रोध और अज्ञान में फँसे रहते हैं। वे संसार को ही सर्वस्व मानते हैं और अपने स्वार्थ के लिए ही जीते हैं। ऐसे लोगों का अंततः विनाश ही निश्चित है और वे नरक की ओर अग्रसर होते हैं।

मनुष्य जीवन पर दैवी और आसुरी सम्पदा का प्रभाव

श्रीकृष्ण ने स्पष्ट किया है कि दैवी सम्पदा मनुष्य को मुक्ति और परमपद की प्राप्ति की ओर ले जाती है, जबकि आसुरी सम्पदा बंधन और अधोगति का कारण बनती है। जब मनुष्य के स्वभाव में दैवी गुणों का बाहुल्य होता है, तो वह देवताओं के समान हो जाता है और जब आसुरी गुणों का बाहुल्य होता है, तो वह असुरों के समान हो जाता है।

यह अध्याय हमें यह भी सिखाता है कि हमें अपने जीवन में क्या करना चाहिए और क्या नहीं। शास्त्रों के अनुसार ही हमें अपने कर्मों का निर्णय लेना चाहिए और उनके अनुसार ही अपने दायित्वों का निर्वहन करना चाहिए।

अध्याय का सार

श्रीमद्भगवद्गीता के सोलहवें अध्याय में श्रीकृष्ण ने दैवी और आसुरी सम्पदा का विस्तार से वर्णन किया है। इस अध्याय में कुल 24 श्लोक हैं, जिनमें दैवी सम्पदा के छब्बीस गुण और आसुरी सम्पदा के मुख्य विकारों का उल्लेख किया गया है। श्रीकृष्ण ने अर्जुन को समझाया है कि दैवी सम्पदा मुक्ति और परमात्मा की प्राप्ति का मार्ग है, जबकि आसुरी सम्पदा बंधन और अधोगति का कारण है। अंत में श्रीकृष्ण ने यह निर्णय दिया है कि हमें अपने जीवन में दैवी गुणों को अपनाना चाहिए और आसुरी गुणों का त्याग करना चाहिए।

निष्कर्ष

श्रीमद्भगवद्गीता का सोलहवाँ अध्याय “दैवासुर सम्पद् विभाग योग” मनुष्य जीवन के लिए एक महत्वपूर्ण दिशा-निर्देश है। यह हमें सिखाता है कि हमारे गुण और स्वभाव ही हमारे भविष्य का निर्धारण करते हैं। दैवी सम्पदा को अपनाकर हम मोक्ष, शांति और आत्मिक उन्नति प्राप्त कर सकते हैं, जबकि आसुरी सम्पदा हमें बंधन और अशांति की ओर ले जाती है। अतः हमें अपने जीवन में दैवी गुणों को विकसित करने का प्रयास करना चाहिए और आसुरी गुणों का त्याग करना चाहिए।

इस प्रकार श्रीमद्भगवद्गीता का सोलहवाँ अध्याय “दैवासुर सम्पद् विभाग योग” हमें सद्गुणों को अपनाने और दुर्गुणों का त्याग करने की प्रेरणा देता है, जिससे हमारा जीवन सार्थक, शांत और सफल बन सके।

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