Bhagwad Geeta | Chapter 15 | पुरुषोत्तम योग: आत्मा और परमात्मा को समझने का सही मार्ग | Geeta Gyan
पुरुषोत्तम योग: गीता का सार तत्व
श्रीमद्भगवद्गीता का पंद्रहवाँ अध्याय, जिसे पुरुषोत्तम योग कहा गया है, गीता के सबसे गूढ़ और सारगर्भित अध्यायों में से एक है। इस अध्याय में भगवान श्रीकृष्ण ने संसार की प्रकृति, जीवात्मा और परमात्मा के संबंध, तथा मोक्ष की प्राप्ति के रहस्य को अत्यंत सरल एवं प्रभावशाली भाषा में प्रस्तुत किया है। अध्याय के आरंभ में भगवान श्रीकृष्ण संसार की तुलना एक उल्टे अश्वत्थ वृक्ष से करते हैं। वे कहते हैं कि यह संसार एक ऐसा वृक्ष है जिसकी जड़ें ऊपर की ओर अर्थात् परमात्मा में स्थित हैं और इसकी शाखाएँ नीचे की ओर फैली हुई हैं। इस वृक्ष के पत्ते वेद हैं, जिनसे ज्ञान प्राप्त कर मनुष्य अपने जीवन को शुद्ध और अनुशासित बना सकता है। यह वृक्ष नित्य नहीं है; इसकी शाखाएँ, पत्ते और फल बदलते रहते हैं, परंतु इसकी जड़ – परमात्मा – शाश्वत है। मनुष्य इस संसार रूपी वृक्ष के मोह में फँसा रहता है, परंतु जो व्यक्ति इसके अस्थिर और क्षणिक स्वरूप को समझ लेता है, वह इसके मोह से मुक्त हो जाता है।
जीवन-मरण के चक्र से मुक्ति
श्रीकृष्ण आगे बताते हैं कि प्रत्येक जीवात्मा परमात्मा का ही अंश है, जो संसार में विभिन्न योनियों में जन्म लेकर अपने कर्मों के अनुसार भोग करता है। जीवात्मा शरीर में रहते हुए मन, इंद्रियों और बुद्धि के माध्यम से संसार का अनुभव करता है, किंतु उसका वास्तविक स्वरूप परमात्मा से अभिन्न है। जीवात्मा का यह संसार में आना-जाना, जन्म-मरण का चक्र, उसकी अज्ञानता और मोह का परिणाम है। जब वह अपने शुद्ध स्वरूप को पहचान लेता है, तब वह परम शांति को प्राप्त कर लेता है। इस अध्याय में भगवान ने स्पष्ट किया है कि जो व्यक्ति इस संसार रूपी वृक्ष की अस्थिरता और क्षणभंगुरता को समझ लेता है, वह उसके मोह से मुक्त हो जाता है। ऐसे व्यक्ति को वैराग्य उत्पन्न होता है और वह पुरुषोत्तम – परम पुरुष – की शरण में जाता है। पुरुषोत्तम योग का तात्पर्य है, उस परम तत्व का ज्ञान प्राप्त करना, जो क्षर (नश्वर), अक्षर (अविनाशी) और उनसे भी परे है। भगवान श्रीकृष्ण ने स्वयं को उस पुरुषोत्तम के रूप में प्रस्तुत किया है, जो समस्त सृष्टि का आधार है और जिससे सब कुछ उत्पन्न होता है।
आत्मा, परमात्मा और संसार का संबंध
इस अध्याय में आत्मा की तीन अवस्थाओं का उल्लेख है: क्षर पुरुष, अक्षर पुरुष और पुरुषोत्तम। क्षर पुरुष वे हैं जो नश्वर हैं, अर्थात् समस्त जीवधारी। अक्षर पुरुष वे हैं जो अविनाशी हैं, अर्थात् परमात्मा का अव्यक्त स्वरूप। पुरुषोत्तम वह है जो इन दोनों से परे है, सर्वश्रेष्ठ है, वही परमात्मा का परम स्वरूप है। भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं कि वे स्वयं पुरुषोत्तम हैं, और जो भक्त इस रहस्य को जान लेता है, वह जीवन-मरण के चक्र से मुक्त होकर परम शांति को प्राप्त करता है। पुरुषोत्तम योग केवल दार्शनिक विचार नहीं है, बल्कि यह मनुष्य के जीवन में व्यावहारिक रूप से भी अत्यंत महत्वपूर्ण है। यह योग हमें सिखाता है कि संसार की नश्वरता को समझकर हमें अपने कर्तव्यों का पालन निष्काम भाव से करना चाहिए। साथ ही, आत्मा और परमात्मा के संबंध को जानकर, अपने जीवन को उच्च आदर्शों की ओर ले जाना चाहिए। जब मनुष्य अपने भीतर के दिव्य तत्व को पहचान लेता है, तब उसके जीवन में सच्चा सुख, शांति और संतोष आता है। भगवान श्रीकृष्ण ने यह भी बताया कि वे ही सूर्य और चंद्रमा के प्रकाश हैं, वे ही अग्नि से परिपक्व होने वाले अन्न की पाचन शक्ति हैं, वे ही वेदों के शब्दों में, ज्ञान में, ऋचाओं में, सबमें व्याप्त हैं। जिनमें एक मात्र इच्छा, ज्ञान और क्रिया शक्ति है, वही आत्मा सदा रहती है। सम्पूर्ण सृष्टि में स्थित होकर सबमें मैं ही निवास करता हूँ। मेरे साथ मिलने वाला भक्त मुझमें ही लीन हो जाता है, मैं ही जानने योग्य हूँ और वेदों का भी मैं ही विषय हूँ। जानने के बाद ज्ञातव्य का अन्त भी मैं ही हूँ। इसलिए भगवान कहते हैं कि क्षर और अक्षर से परे जो पुरुष है, वही मुझे पुरुषोत्तम कहा जाता है। इस प्रकार श्रीकृष्ण ने अपने की पुरुषोत्तम, अर्थात् अलौकिक समग्र रूप के गूढ़ ज्ञान के शास्त्र की कथा अर्जुन को सुनाई, जिससे भक्त को ज्ञान योग तथा कर्म योग दोनों का फल प्राप्त हो जाता है। गीता का यह ज्ञान न केवल धार्मिक, बल्कि व्यावहारिक जीवन के लिए भी अत्यंत उपयोगी है, जो हमें सच्चे अर्थों में मानवता और दिव्यता की ओर अग्रसर करता है।
पंद्रहवाँ अध्याय – पुरुषोत्तम योग – गीता का सार तत्व है, जिसमें भगवान श्रीकृष्ण ने आत्मा, परमात्मा और संसार के रहस्यों को अत्यंत सुंदर और सरल भाषा में समझाया है। यह अध्याय हमें सिखाता है कि हम अपने वास्तविक स्वरूप को पहचानें, संसार के मोह से ऊपर उठें और परम पुरुष – पुरुषोत्तम – की शरण में जाकर मोक्ष की प्राप्ति करें। गीता ज्ञान की यह धारा जीवन को दिशा देने वाली है, जो प्रत्येक व्यक्ति को अपने कर्तव्यों के साथ-साथ आत्मज्ञान और परमात्मा की ओर प्रेरित करती है। यही कारण है कि पुरुषोत्तम योग का यह संदेश आज भी उतना ही प्रासंगिक है जितना महाभारत काल में था। श्रीमद्भगवद्गीता के पुरुषोत्तम योग नामक पंद्रहवें अध्याय का यही विस्तृत सार है, जो हर साधक के लिए मार्गदर्शक और प्रेरणादायक है।
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