श्री कृष्ण ने बताया ज्ञान का सच्चा स्वरूप | Bhagwad Geeta Chapter - 13 | Geeta Gyaan Series

श्रीमद्भगवद्गीता का "क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग" अध्याय आत्मा और शरीर के गहरे संबंध को उजागर करता है। यह अध्याय न केवल आध्यात्मिक दृष्टि से महत्वपूर्ण है, बल्कि जीवन के रहस्यों को समझने की कुंजी भी है। गीता के सिद्धांत समय, स्थान और परिस्थिति से परे हैं और हर युग में प्रासंगिक हैं, क्योंकि वे मनुष्य को सही दिशा और संतुलन की प्रेरणा देते हैं।

क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ की परिभाषा

"क्षेत्र" क्या है?

भगवान श्रीकृष्ण ने अर्जुन को समझाया कि "क्षेत्र" से तात्पर्य शरीर और उसकी समस्त भौतिक संरचना से है-जिसमें पंचमहाभूत (पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, आकाश), इंद्रियाँ, मन, बुद्धि, अहंकार, और इंद्रियों के विषय सम्मिलित हैं।

यह शरीर कर्मों का क्षेत्र है, जिसमें अच्छे-बुरे संस्कारों के बीज बोए जाते हैं और फलस्वरूप जीवन में सुख-दुख, आशा-निराशा, तृष्णा-वासना आदि का अनुभव होता है।

"क्षेत्रज्ञ" कौन है?

"क्षेत्रज्ञ" वह चेतन तत्व है, जो इस शरीर को जानता, अनुभव करता और संचालित करता है। गीता के अनुसार, क्षेत्रज्ञ आत्मा है-जो शरीर के भीतर रहते हुए भी उससे परे, अविनाशी और शाश्वत है। श्रीकृष्ण कहते हैं कि परमात्मा स्वयं सभी शरीरों के क्षेत्रज्ञ हैं, अर्थात् प्रत्येक जीवात्मा में परमात्मा का अंश विद्यमान है।

शरीर और आत्मा का अंतर

इस अध्याय में श्रीकृष्ण स्पष्ट करते हैं कि शरीर (क्षेत्र) नश्वर और परिवर्तनशील है, जबकि आत्मा (क्षेत्रज्ञ) अमर और अपरिवर्तनीय है। आत्मा का स्वभाव चेतना, ज्ञान और आनंद है, जो प्रकृति के गुणों (सत्व, रज, तम) से परे है।

आत्मा की उपमा

श्रीकृष्ण आत्मा की तुलना आकाश और सूर्य से करते हैं-जैसे आकाश सर्वत्र व्याप्त होते हुए भी किसी वस्तु से लिप्त नहीं होता, वैसे ही आत्मा शरीर में रहते हुए भी कर्मों से लिप्त नहीं होती। जैसे सूर्य सम्पूर्ण संसार को प्रकाशित करता है, वैसे ही आत्मा सम्पूर्ण शरीर को चेतना से प्रकाशित करती है।

ज्ञान का महत्व

क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ का भेद जानना ही सच्चा ज्ञान है। श्रीकृष्ण बताते हैं कि जो व्यक्ति इस भेद को अपने "ज्ञान नेत्रों" से देखता है, वही वास्तव में जीवन के उद्देश्य को समझता है और मोक्ष की ओर अग्रसर होता है। यह ज्ञान व्यक्ति को भौतिक बंधनों से मुक्त कर आत्मा के शाश्वत स्वरूप की अनुभूति कराता है।

आध्यात्मिक साधना और व्यवहारिक शिक्षा

यह अध्याय केवल दार्शनिक चर्चा तक सीमित नहीं है, बल्कि जीवन में संतुलन, शांति और आत्म-उन्नति का मार्ग भी दिखाता है। श्रीकृष्ण बताते हैं कि जब मनुष्य अपने शरीर, मन, इंद्रियों और इच्छाओं की सीमाओं को समझकर आत्मा के स्वरूप को पहचानता है, तब वह सच्ची साधना में प्रवृत्त होता है। यही साधना उसे परमात्मा से मिलन की ओर ले जाती है।

सारांश

"क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग" अध्याय हमें यह सिखाता है कि हमारा शरीर एक साधन है, और आत्मा उसका स्वामी है। आत्मा का परमात्मा से संबंध ही जीवन का सर्वोच्च सत्य है। जो इस भेद को समझ लेता है, वही जीवन के असली उद्देश्य और शांति को प्राप्त करता है। गीता का यह ज्ञान हमें भौतिकता से ऊपर उठकर आत्मा की शाश्वतता का बोध कराता है, जिससे जीवन में संतुलन, शांति और मोक्ष की प्राप्ति संभव होती है।

और अध्याय पढ़ने के लिए देखें:  गीता ज्ञान शृंखला - Bharat Mata

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