श्रीमद भगवत गीता सार- अध्याय 3 | कर्म योग | गीता ज्ञान श्रृंखला
कर्मयोग: श्रीमद भगवद गीता का तीसरा अध्याय
श्रीमद भगवद गीता का तीसरा अध्याय "कर्मयोग" पर आधारित है, जिसमें भगवान श्री कृष्ण अर्जुन को कर्म करने के महत्व और उसके सही आचरण के बारे में उपदेश देते हैं। इस अध्याय में कुल 43 श्लोक हैं, जिनमें से श्लोक 4 से 29 तक भगवान ने नियत कर्मों के आचरण की आवश्यकता पर जोर दिया है।
कर्म करने का महत्व और आवश्यकता
भगवान श्री कृष्ण कहते हैं कि प्रत्येक व्यक्ति को अपने निर्धारित कर्तव्यों को निभाना चाहिए, क्योंकि कर्म ही जीवन का आधार है। श्लोक 30 में भगवान श्री कृष्ण ने भक्ति प्रधान कर्मयोग के सिद्धांत को स्पष्ट करते हुए कहा कि अर्जुन, तुम मुझमें विश्वास रखकर और अपनी क्रिया को मुझे अर्पित करके कार्य करो। यह कर्म योग का महत्वपूर्ण सिद्धांत है, जिसका उद्देश्य न केवल कर्म करना है, बल्कि उसे भगवान के प्रति समर्पित करना है।
कर्म और भक्ति का संयोग:
भगवान श्री कृष्ण का कहना है कि कर्म को बिना किसी ममता और संताप के, बिना फल की इच्छा किए, केवल स्वधर्म के अनुसार करना चाहिए। यह स्थिति तब संभव होती है जब व्यक्ति परमात्मा के प्रति समर्पित होकर कर्म करता है। यही भक्ति प्रधान कर्मयोग का मुख्य सिद्धांत है।
काम और क्रोध के बारे में:
अर्जुन के पूछने पर कि मनुष्य किससे प्रेरित होकर कर्म करता है, भगवान कहते हैं कि यह कर्म रजोगुण (सक्रियता) से उत्पन्न होने वाले काम और क्रोध के कारण होता है। काम (इच्छा) ही क्रोध का कारण बनता है, और क्रोध से ज्ञान की प्राप्ति में बाधा आती है। भगवान श्री कृष्ण ने यह स्पष्ट किया कि काम, इंद्रियों, मन और बुद्धि के माध्यम से व्यक्ति के ज्ञान को ढकता है, जिससे वह सही निर्णय नहीं ले पाता।
काम को पराजित करने का उपाय: भगवान श्री कृष्ण आगे कहते हैं कि शरीर में इंद्रियों के परे मन, मन के परे बुद्धि और बुद्धि से परे आत्मा है। यदि व्यक्ति आत्मा के स्वरूप को पहचान लेता है और बुद्धि के द्वारा मन को नियंत्रित करता है, तो वह काम के रूप में उत्पन्न होने वाले शत्रु को पराजित कर सकता है। इस प्रकार, कर्मयोग में आत्मा के श्रेष्ठ स्वरूप को जानकर और अपने कार्यों को नियंत्रित करके ही मनुष्य सही दिशा में कार्य कर सकता है।
कर्म करने का महत्व:
भगवान श्री कृष्ण का यह उपदेश है कि कर्म को छोड़ना कोई समाधान नहीं है, क्योंकि सृष्टि भी एक कर्म है। सूर्य, चंद्रमा, और अन्य सभी प्राकृतिक शक्तियाँ कर्मों में संलग्न हैं, और वे कभी भी कर्म त्याग नहीं सकते। मनुष्य को भी अपने कर्तव्यों का पालन करते हुए निष्काम भाव से कर्म करना चाहिए। कर्म का फल भगवान के प्रति निष्ठा से जुड़ा होता है, और कर्म को त्यागने की बजाय उसे भगवान को समर्पित करके कर्म करना चाहिए।
निष्काम कर्म:
कर्मयोग का सबसे महत्वपूर्ण सिद्धांत यह है कि कार्यों में फल की इच्छा न रखकर कर्म किया जाए। भगवान श्री कृष्ण ने कहा कि कर्म बिना किसी अहंकार और ममता के, केवल लोक कल्याण के लिए किया जाए। यही तपस्या से कम नहीं है, चाहे वह कर्म युद्ध में हो या सामान्य जीवन के कार्यों में। महाभारत के युद्ध में अर्जुन को यही उपदेश दिया गया कि यदि वह युद्ध नहीं करता, तो भी उसे वही फल मिलेगा जो किसी सन्यासी को मिलेगा, क्योंकि यह भी कर्म का ही एक रूप है।
कर्म के बारे में भगवान का उपदेश:
भगवान श्री कृष्ण के इस उपदेश में यह स्पष्ट किया गया कि कर्म करने से कोई भी भाग नहीं सकता। यह जीवन के सत्य को स्वीकार करने की बात है कि हर व्यक्ति को अपने निर्धारित कर्तव्यों का पालन करना ही होता है, और वह उसे भगवान को समर्पित करके करता है।
समाप्ति:
इस प्रकार, श्रीमद भगवद गीता के तीसरे अध्याय में भगवान श्री कृष्ण ने कर्मयोग के सिद्धांत को विस्तार से समझाया। कर्म करने के कारणों, उसके नियमों और उद्देश्य को जानकर एक व्यक्ति अपने जीवन को उच्चतम दिशा में ला सकता है। भगवान श्री कृष्ण के इस उपदेश से यह सिद्ध होता है कि कर्म ही जीवन का आधार है, और कर्म को सही दिशा में, बिना किसी फल की आशा के, भगवान को अर्पित करके करना चाहिए। कर्मयोग का यह संदेश न केवल अर्जुन के लिए, बल्कि समग्र मानवता के लिए एक अमूल्य मार्गदर्शन है।
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