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परमात्मा का स्मरण कठिन नहीं, संसार का विस्मरण कठिन है। Swami Satyamitranand ji Maharaj | Pravachan

इस आध्यात्मिक प्रवचन में मानव जीवन की शुद्धता, साधना और भक्ति के वास्तविक स्वरूप पर गहन प्रकाश डाला गया है। यहां बताया गया है कि दर्शन और श्रवण को पवित्र रखना क्यों आवश्यक है। भगवान के विग्रहों के दर्शन और सत्संग के श्रवण से हृदय शुद्ध होता है और मनुष्य के संस्कार सुदृढ़ होते हैं।

जब जीवन में तूफान आते हैं, कुविचारों की आंधियां चलती हैं और वासनाओं का प्रकोप बढ़ता है, तब भक्ति का आश्रय ही हमारे भीतर के पवित्र वृक्षों की रक्षा करता है। यही भक्ति सुप्त शक्ति को जागृत कर व्यक्ति से लेकर समाज, राष्ट्र और अंततः विश्व जागरण का मार्ग प्रशस्त करती है।

परिस्थितियाँ, संकट और साधना का निरंतर पथ

वक्ता स्पष्ट करते हैं कि जीवन की परिस्थितियां कभी स्थिर नहीं होतीं। संकट और परिवर्तन मानव जीवन का स्वाभाविक हिस्सा हैं। यदि मनुष्य यह सोचकर आध्यात्मिकता को टालता रहे कि परिस्थितियां शांत हों तब साधना करूंगा, तो यह क्षण कभी नहीं आता।

इतिहास साक्षी है कि संतों, महापुरुषों और क्रांतिकारियों ने अत्यंत कठिन परिस्थितियों में भी अपने मूल्य, संस्कृति और साधना को बनाए रखा। उनके त्याग और बलिदान आज भी हमें प्रेरणा देते हैं। उनकी तपश्चर्या और दृढ़ संकल्प के सामने हमारी व्यक्तिगत कठिनाइयाँ अत्यंत छोटी प्रतीत होती हैं।

हृदयग्रंथि, भक्ति-भाव और विश्व कल्याण की भावना

इस प्रवचन में एक महत्वपूर्ण सत्य उजागर होता है—संपन्नता और विपन्नता, दोनों ही मन में ग्रंथियां उत्पन्न कर सकती हैं। भारतीय संस्कृति इन ग्रंथियों के विनाश और हृदय को सात्विक जीवन की ओर मोड़ने का संदेश देती है। उपनिषदों का मंत्र “विद्यते हृदयग्रन्थि…” जीवन के संशयों को मिटाकर सत्य और ईश्वर के प्रति अटूट श्रद्धा स्थापित करने का आह्वान करता है।

आज की विडंबना यह है कि जहां श्रद्धा होनी चाहिए वहां संशय है, और जहां संशय होना चाहिए वहां अंध श्रद्धा। वक्ता बताते हैं कि परमात्मा को अर्पण करना आसान है, लेकिन यह पूछ पाना कठिन है—“हे प्रभु, क्या आप इससे प्रसन्न हैं?”
भक्ति केवल कर्म नहीं, भाव है। भगवान के निकट बैठकर शांति, विनय और एकाग्रता के साथ की गई पूजा ही वास्तविक आध्यात्मिकता है।

प्रवचन के अंत में संदेश अत्यंत स्पष्ट है—प्रार्थना स्वयं के लिए हो सकती है, लेकिन परमात्मा के सामने किसी भी जीव के प्रति शत्रुता रखना भारतीय संस्कृति के विरुद्ध है। परमात्मा विश्व का रक्षक है; उसके सामने विश्व कल्याण की भावना रखना ही सच्चे भक्त का लक्षण है।

निष्कर्ष

यह प्रवचन हमें भीतर झांकने, जीवन को पवित्र बनाने और भक्ति को भावपूर्ण ढंग से जीने की प्रेरणा देता है। जगत का विस्मरण और परमात्मा का स्मरण—यही साधना का सार है, और यही मानव जीवन की सच्ची दिशा।