पूर्णिमा और अमावस्या क्या है | कैसे शुरू हुई अमावस्या और पूर्णिमा | Purnima and Amavasya

ब्रह्मांड मे हमारी पृथ्वी सूर्य के चारों ओर लगातार परिक्रमा लगाती है और उसे ऐसा करने मे 365 दिवसों की समय अवधि लगती है। इसके साथ ही पृथ्वी का उपग्रह, चंद्रमा पृथ्वी के लगातार चक्कर लगाता है। इस कार्य को पूरा करने के लिए चन्द्रमा को 27 दिनों और 7 घंटों का समय लगता है। इस अवधि में जब तीनों पिंड चंद्रमा, सूर्य और पृथ्वी एक सीध मे हो जाते है तो एक स्थिति यह आती है जब पृथ्वी,सूर्य और चंद्रमा के मध्य आ जाती है परन्तु सीधी रेखा मे नहीं। इस स्थिति मे सूर्य का प्रकाश चंद्रमा पर पड़ता है और सीधी रेखा मे न होने के कारण हमे पृथ्वी से सम्पूर्ण प्रकाशित चंद्रमा दिखाई देता है, जिसे हम पूर्णिमा कहते है। पूर्णिमा का अर्थ है अपना पूर्ण आकार धारण करना। मान्यताओं अनुसार पूर्णिमा के दिन व्रत करने से शरीर, आत्मा, व मस्तिष्क पर कई सकारात्मक प्रभाव पड़ते हैं। पूर्णिमा के शुभ दिन भगवान सुब्रह्मण्य, दत्तात्रेय, बुद्ध, और गुरु नानक जैसी कई पुण्यात्माएं अवतरित हुयी हैं। 

वहीँ दूसरी स्थिति में जब चंद्रमा, सूर्य और पृथ्वी के मध्य होता है परन्तु सीधी रेखा मे नहीं। इस स्थिति मे सूर्य से चंद्रमा पर जो प्रकाश पड़ता है वह पृथ्वी से दिखाई नहीं देता। इस कारण चंद्रमा हमे काला दिखाई देता है और इस काल रात्रि को हम अमावस्या कहते है।      

हिन्दू मान्यताओं के चलते अमाव्यस्या का अपना अलग महत्त्व है। जिसमे सोमवार के दिन पड़ने वाली अमावस्या को सोमवती अमावस्या कहा जाता है। इसके अतिरिक्त कार्तिक अमावस्या के दिन दीपावली का पर्व अत्यंत धूम-धाम से समस्त भारत में मनाया जाता है। पूर्णिमा और अमावस्या के बीच मे 15 दिन का अंतर होता है, जिसे हम पक्ष या पखवाड़ा भी कहते है। हमारे पंचांग में दो प्रकार के पक्षों का उल्लेख है कृष्णपक्ष और शुक्लपक्ष। अमावस्या से पूर्णिमा तक बढ़ते चाँद के पखवाड़े यानि समय को शुक्लपक्ष कहते है तथा पूर्णिमा से अमावस्या तक घटते चाँद के पखवाड़े यानि समय को कृष्णपक्ष कहते है। ये तो हुई खगोलीय जानकारी, अब हम चर्चा करते हैं एक पौराणिक कथा कि - पौराणिक ग्रंथों के अनुसार प्रजापति दक्ष ने अपनी 27 पुत्रियों का विवाह चंद्रमा से संपन्न किया था। ये 27 पुत्रियाँ 27 स्त्री नक्षत्र है और अभिजीत नामक एक पुरुष नक्षत्र भी है। परन्तु चंद्र मात्र रोहणी से प्रेम करते थे। ऐसी स्थिति मे बाकी स्त्री नक्षत्रों ने अपने पिता से अपनी व्यथा व्यक्त की और उन्हें सूचित किया कि चंद्र उनके साथ पति का कर्तव्य नहीं निभाते। दक्ष प्रजापति के समझाने के पश्चात भी चंद्र ने रोहिणी का साथ नहीं छोड़ा और बाकी पत्नियों कि अवहेलना करते गए। चंद्र पर क्रोधित होकर दक्ष ने उन्हे क्षय रोग से ग्रसित होने का श्राप दिया। क्षय रोग के कारण चंद्रमा का तेज धीरे-धीरे काम होता गया और यहीं से कृष्णपक्ष का आरम्भ हुआ... और शुरू हुआ कृष्णपक्ष। कहते है क्षय रोग से चंद्र का अंत निकट आता गया तब वे ब्रह्मा जी के पास गए और उनसे सहायता मांगी। ब्रम्हा जी और इन्द्र ने चंद्र से महादेव की आराधना करने को कहा। चंद्र की आराधना से प्रसन्न होकर शिव जी ने चंद्र को अपनी जटाओं मे स्थान दिया। ऐसा करने से चंद्र का तेज फिर से लौटने लगा। इससे शुक्लपक्ष का आरम्भ हुआ। चूंकि दक्ष प्रजापति थे इस कारण वश चंद्र उनके श्राप से संपूर्णतः मुक्त नहीं हो सकते थे, मात्र श्राप मे परिवर्तन आ सकता था। अतः चंद्रमा को बारी-बारी से कृष्णपक्ष और शुक्लपक्ष मे जाना पड़ता है। इस तरह से दक्ष ने कृष्णपक्ष का आरम्भ किया और महादेव ने शुक्लपक्ष का।             

वर्ष में 12 पूर्णिमा और 12 अमावस्या होती हैं... और सभी का अलग-अलग महत्व होता है। हिन्दू पंचांग से जुड़ी अन्य पवित्र तिथियों और प्रमुख जानकारियों के लिए subscribe करें Bharat Mata चैनल।   

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