क्या अश्वत्थामा आज भी जीवित है? | Ashwatthama in Mahabharata

वो महारथी एक अद्भुत मणि का स्वामी था। उसकी मृत्यू के झूठ से उसके पिता का वध कर दिया लेकिन वो आज भी जिंदा है। वो 5000 सालों से भटक रहा है। कृष्ण ने उसे ऐसा श्राप दिया जिससे वो अमर तो हुआ लेकिन उसकी दुर्दशा का अनुमान नहीं लगाया जा सकता।

अश्वत्थामा: द्रोणाचार्य और कृपी की तपस्या

द्रोणाचार्य और कृपी महादेव जैसा पुत्र चाहते थे। उनकी इच्छा थी की जितना तेज और ज्ञान भगवान शिव मे है, वैसा ही उनके पुत्र मे हो। इसलिए उन दोनों ने हिमालय पर्वत पर तमसा नदी के तट पर घोर तपस्या की। फिर क्या भोलेनाथ ने उन्हे दर्शन दिए और कहा, “मांगों वत्स क्या इच्छा है तुम्हारी?”

प्रभु मुझे आपसे एक ऐसे पुत्र का वरदान चाहिए जिसमे आपके गुण विद्यमान हो। जिसे अनंत ज्ञान हो। जो युद्ध मे निपुण हो। जो पूरे संसार पर राज करे।”

तथास्तु”

फिर कृपी ने एक ऐसे बालक को जन्म दिया जिसके मुख पर बहुत तेज था और उसके माथे पर एक अद्भुत मणि थी जो उसे दैत्य, दानव, शस्त्र, व्याधि, देवता, नाग आदि से निर्भय रखती थी। । जन्म लेने के कुछ समय बाद ये बालक एक घोड़े की तरह रोने लगा और इसलिए इस बालक का नाम अश्वत्थामा रखा गया।

पिछले विडिओ मे भारत माता ने बताया द्रोणाचार्य के बारे आज जानिए उनके पुत्र अश्वत्थामा की कहानी

अश्वत्थामा: महाभारत के अमर योद्धा की कहानी | अश्वत्थामा का जन्म और प्रारंभिक जीवन

अश्वत्थामा कोई आम बालक नहीं था। उसका जन्म स्वयं महादेव के वरदान से हुआ था, उसके गुरु स्वयं उसकी पिता थे जिन्होंने उसे सभी अस्त्र शस्त्र और ग्रंथों का ज्ञान दिया था। लेकिन जब अश्वत्थामा छोटा था तब द्रोणाचार्य की आर्थिक स्थिति ठीक नहीं थी, सहायता के लिए वो अपने मित्र द्रुपद के पास गए थे लेकिन जब भरी सभा मे अश्वत्थामा ने अपने पिता का अपमान होते हुए देखा तो उसके मन मे प्रतिशोध की भावना विकसित हो गई।

फिर द्रोणाचार्य हस्तिनापुर के गुरु बन गए। और फिर अश्वत्थामा की मित्रता दुर्योधन से हुई। शिक्षा पूरी होने के पश्चात जब बात गुरु दक्षिणा की आई तो द्रोणाचार्य ने द्रुपद को बंदी बनाने का आदेश दिया और अपने पुत्र को सिंहासन पर बैठा दिया।

महाभारत युद्ध में अश्वत्थामा की भूमिका

अश्वत्थामा मे वो शक्ति थी की सम्पूर्ण महाभारत को अकेले दम पर जीत सकता था। जब महाभारत का युद्ध आरंभ हुआ तो अश्वत्थामा ने कुरुक्षेत्र मे हाहाकार मचा दिया था। पिता-पुत्र की जोड़ी ने महाभारत युद्ध में पाण्डव सेना को तितर-बितर कर दिया। पांडवों की सेना की पराजय देख़कर श्रीकृष्ण ने युधिष्ठिर को एक योजना अपनाने का परामर्श दिया। इस योजना के अंतर्गत यह सूचना प्रसारित कर दी गई कि "अश्वत्थामा" का वध हो गया है। जब गुरु द्रोणाचार्य ने धर्मराज युधिष्ठिर से सच जानना चाहा तो उन्होने उत्तर दिया-" अश्वत्थामा हतो नरो वा कुंजरो " अर्थात अश्वत्थामा मारा गया लेकिन हाथी। परन्तु उन्होंने बड़े धीमे स्वर में " वा कुंजरो " कहा, और मिथ्या वचन से भी बच गए। श्रीकृष्ण ने उसी समय शन्खनाद कर दिया, जिसके कारण गुरु द्रोणाचार्य अंतिम शब्द सुन ही नहीं पाए। अपने प्रिय पुत्र की मृत्यु का समाचार सुनकर अपने शस्त्र त्याग दिये और युद्धभूमि में नेत्र बन्द कर शोक ग्रस्त अवस्था में विराजित हो गये। गुरु द्रोणाचार्य जी को नि:शस्त्र देखकर द्रोपदी के भाई धृष्टद्युम्न ने तलवार से उनका सर काट दिया।

पिता की मृत्यू की खबर सुनते ही अश्वत्थामा ने अपना आपा खो दिया, “जिस गुरु ने इन पांडवों को शिक्षा दी, उसे इस निर्दयिता से मार दिया। मै द्रोण पुत्र अश्वत्थामा प्रतिज्ञा लेता हूँ इन पांडवों के पूरे वंश का सर्वनाश कर दूंगा।” फिर उसने धृष्टद्युम्न का वध कर दिया।

फिर अश्वत्थामा और अर्जुन के बीच भीषण युद्ध आरंभ हुआ। कहते हैं अगर उस दिन सूर्यास्त ना होता तो अश्वत्थामा अर्जुन का वध कर देता। लेकिन फिर अश्वत्थामा ने वो किया जिसकी कल्पना नहीं की जा सकती थी। उसने छुप कर पांडवों के शिविर में घुसकर और नियमों के विरुद्ध आधी रात में कृपाचार्य तथा कृतवर्मा की सहायता से पांडवों के शेष वीर महारथियों का वध कर डाला। केवल इतना ही नहीं, उसने पांडवों और द्रौपदी के सभी पांच पुत्रों का भी वध कर दिया था। उसने वो कर्म किये जिसकी निंदा दुनिया आज भी करती है।

अगले दिन युद्ध मे अर्जुन के शोक और क्रोध की कोई सीमा नहीं थी, लेकिन इतने दुष्कर्मों के बाद भी अश्वत्थामा नहीं माना और ब्रह्मास्त्र चला दिया, फिर कृष्ण की आज्ञा पर अर्जुन ने भी अश्वत्थामा पर ब्रह्मास्त्र चला दिया लेकिन फिर वेद व्यास जी प्रकट हुए और उन्होंने ब्रह्मास्त्र वापस लेने का आदेश दिया। आज्ञानुसार अर्जुन ने ब्रह्मास्त्र वापस ले लिया लेकिन अश्वत्थामा को यह विधि नहीं आती थी तो उसने ब्रह्मास्त्र को अभिमन्यु की विधवा उत्तरा के गर्भ की ओर मोड़ दिया और पांडवों का वंश गर्भ मे ही नष्ट होगया।

लेकिन ये देखने के बाद कृष्ण ने अपने सुदर्शन चक्र से अश्वत्थामा की मणि को निकाल लिया उसे वो श्राप दिया जिससे वो अमर होगया। श्री कृष्ण ने कहा, “जिस प्रकार तूने पतित कर्म कर द्रोपदी की ममता को सदा के लिए शोक संतप्त कर दिया है उसी तरह तू भी अपने इस अमूल्य मणि से विच्छेदित किए जाने से हुए घाव के साथ जीवित रहेगा, तु मृत्यु मांगेगा किन्तु तेरी मृत्यु नहीं होगी । तू शारीरिक और मानसिक आघातों की पीड़ा भोगता हुआ उस दुःख को अनुभव कर सकेगा जो तूने दूसरों को दिए हैं और कभी शांति को प्राप्त नहीं होगा।”

ये सुनते ही अश्वत्थामा ने श्री कृष्ण ने क्षमा मांगी और इस श्राप का उपाय पूछा, जब श्री कृष्ण का क्रोध शांत हो गया तब उन्होंने कहा, ‘कलियुग मे कली के नाश के लिए मै कल्कि रूप मे आऊँगा और तब तुम मेरी रक्षा करोगे और मै तुम्हारा उद्धार।’

तो ये थी अश्वत्थामा की कहानी जो सृष्टि के अंत तक भटकता रहेगा।

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