कर्ण की जगह भगवान कृष्ण ने अर्जुन को ही क्यों चुना ? | Arjun vs Karna | Mahabharat

अर्जुन: देवराज इंद्र का पुत्र और योद्धा

देवराज इंद्र की कृपा से जन्म लेने वाला, कुरुवंशीय महाराज पांडू एवं महारानी कुंती का पुत्र, राजसी परिवेश में पालित-पोषित अर्जुन। अर्जुन – एक ऐसा अद्भुत योद्धा, जिसका यश सम्पूर्ण पृथ्वी पर गुंजायमान था! जिसके पराक्रम पर उसके पितामह, स्वयं गंगापुत्र भीष्म को गर्व था! जिसकी अनुपम धनुर्विद्या का उदाहरण, उसके गुरु, स्वयं द्रोणाचार्य समस्त संसार को दिया करते थे! जिसके सामर्थ्य के कारण, उसे पांडवों की शक्ति का प्रतीक माना जाता था!

कर्ण: सूर्यपुत्र और सूतपुत्र की पीड़ा

सूर्यदेव के प्रताप से जन्म लेने वाला, राजकुमारी कुंती का पुत्र कर्ण, जिसे राजसी कुल में जन्म लेने के पश्चात भी तथा सूर्यपुत्र होते हुए भी, आजीवन सूतपुत्र की उपाधि का दंश सहना पड़ा! कर्ण – एक ऐसा महावीर, जो क्षत्रीय होते हुए भी, गुरु द्रोणाचार्य द्वारा शिक्षा अर्जित नहीं कर सका! जिसने गंगापुत्र भीष्म तथा द्रोणाचार्य के गुरु, स्वयं प्रभु परशुराम से शिक्षा का प्रसाद तथा श्राप की व्यथा प्राप्त की! जिसके सामर्थ्य के होते हुए भी, कौरवों की शक्ति पर संशय विद्यमान था! जिसके पिता सूर्य थे, माता कुंती सती कुमारी, उसका पलना हुआ धार पर बहती हुई पिटारी, सूत वंश में पाला, चखा भी नहीं जननी का क्षीर, निकला कर्ण सभी युवकों में तब भी अद्भुत वीर।

श्रीकृष्ण का चयन: अर्जुन बनाम कर्ण

यदि आपको कहा जाता कि इन दोनों महायोद्धाओं में से किसी एक का चयन करना है, तो आप किसका चयन करते? यही विराट प्रश्न, श्रीहरि विष्णु के अलौकिक अवतार, कर्मयोगी एवं दार्शनिक युगपुरुष, प्रभु श्रीकृष्ण के समक्ष था! संभवतः साधारण मनुष्य इस प्रश्न के भ्रम-जाल में फंसकर, कभी भी ये निर्णय न ले पाता कि अर्जुन अथवा कर्ण में से उसे किसका चुनाव करना है, किन्तु कृष्ण तो भगवान थे। सर्वज्ञाता तथा समस्त जग के स्वामी ने कर्ण के स्थान पर अर्जुन को अपनी कृपा के योग्य माना।

तेजस्वी सम्मान खोजते नहीं गोत्र बतलाते,

पाते हैं जग में प्रशस्ति अपना करतब दिखलाके,

हीन मूल की ओर देख, जग गलत कहे या ठीक,

वीर खींच कर ही रहते हैं इतिहासों में लीक।

कर्ण का त्याग और श्रीकृष्ण की सहानुभूति

कर्ण भले ही जन्म से अपने यथोचित सम्मान से वंचित रहा, अपने जन्म के सत्य की अनभिज्ञता के कारण, भले ही उसे श्राप तथा अपमान का विष ग्रहण करना पड़ा, भले ही उस दानवीर कर्ण ने अपनी अनुपम दानशीलता का परिचय देते हुए, अपने दिव्य कवच एवं कुंडल देवराज इंद्र को दान कर दिए, किन्तु तब भी सूर्यपुत्र कर्ण को प्रभु श्रीकृष्ण से केवल हृदयस्पर्शी सहानुभूति की ही प्राप्ति हुई, वो कभी भी श्रीकृष्ण की कृपा का अधिकारी नहीं हो सका।

तन से समरशूर, मन से भावुक, स्वभाव से दानी,

जाति गोत्र का नहीं, शील का, पौरुष का अभिमानी,

ज्ञान, ध्यान, शास्त्रार्थ, शस्त्र का कर सम्यक अभ्यास,

अपने गुण का किया कर्ण ने आप स्वयं सुविकास।

अंतिम निर्णय: धर्म और अधर्म के बीच चयन

प्रभु श्रीकृष्ण का कर्ण का चुनाव न करने का एकमात्र कारण, कर्ण की दुर्योधन के प्रति निष्ठा तथा प्रेम था। कर्ण भली-भाँती जानता था कि उसका मित्र दुर्योधन अधर्म का प्रतीक है, किन्तु फिर भी उसने दुर्योधन का साथ नहीं छोड़ा तथा इस प्रकार अधर्म के प्रति ही निष्ठावान रहा। उसने कभी भी दुर्योधन को अधर्म के मार्ग पर चलने से नहीं रोका, अपितु स्वयं उसके पापों में उसका साथ देता रहा।
अपनी उपेक्षाओं एवं अपमानों के घाव से रक्त-रंजित कर्ण ने, अधर्म के साथ मित्रधर्म के पालन को धर्म के पालन से सर्वोपरि माना, किन्तु दुर्योधन की मित्रता के ऋण से दबा कर्ण, वास्तविक मित्रधर्म का भी पालन नहीं कर सका, क्यूंकि वास्तविक मित्रता तो वो होती है, जो मित्र को सत्य-असत्य तथा उचित-अनुचित का भेद स्पष्ट करे, जो मित्र को अधर्म के मार्ग पर चलने से न केवल रोके अपितु मित्र को जीवन में धर्म के मार्ग पर लेकर आगे बढ़े।
यही वास्तविक अनुपम मित्रता थी प्रभु श्रीकृष्ण एवं अर्जुन की। जब-जब अर्जुन विचलित सा अपने कर्तव्यपथ से दिग्भ्रमित होता था, तब-तब प्रभु श्रीकृष्ण, अर्जुन के सारथी के रूप में, उसे धर्म के ज्ञान से आलोकित करते थे तथा इस प्रकार अपने भक्त को कभी भी असहाय नहीं छोड़ते थे।

पांडवों पर हुए असंख्य अन्याय के उपरान्त भी, कृष्णभक्त अर्जुन धर्म के मार्ग पर अडिग रहा, क्यूंकि उसकी श्रद्धा तथा निष्ठा धर्म की संस्थापना के लिए अवतरित भगवान श्रीकृष्ण में निहित थी।

श्रीकृष्ण का धर्म-पथ और अर्जुन का विजय मार्ग

वास्तव में सुदर्शनचक्रधारी प्रभु श्रीकृष्ण ने अर्जुन अथवा कर्ण में से किसी एक का चुनाव नहीं किया, अपितु कर्ण ने दुर्योधन रूपी अधर्म का चुनाव किया तथा अर्जुन ने धर्म रूपी प्रभु कृष्ण की आराधना, जिस कारण से अर्जुन को श्रीकृष्ण का सानिध्य अपने सखा एवं सारथी के रूप में प्राप्त करने का सौभाग्य प्राप्त हुआ तथा अंततः वो ही महाभारत का नायक कहलाने का गौरव प्राप्त कर सका।
Bharat Mata, प्रभु श्रीकृष्ण द्वारा प्रदिष्ट धर्म-पथ को शत-शत नमन करता है।

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