Dwarka Nagri | कैसे डूबी द्वारिका नगरी? | The Submerged City of Lord Krishna - Dwarka

देवकी नंदन कृष्ण द्वारा बसायी गयी द्वारका नगरी, विष्णु जी के चार धामों मे से एक है। 
श्रीमद्भागवत के पवित्र पाठ के अनुसार, द्वारका का निर्माण मगध के सम्राट जरासंध के कारण किया गया था, जो लगातार मथुरा पर आक्रमण कर रहा था। भगवान कृष्ण ने अपने वंश पर अतिरिक्त हमलों पर विराम लगाने के लिए भारत के पश्चिमी तट पर एक नया शहर बनाने का निर्णय लिया। यह विचार प्रसिद्ध वास्तुकार विश्वकर्मा की सहायता से साकार हुआ। प्राचीन ग्रंथों के अनुसार कि कृष्ण ने कुशस्थली के निकट  द्वारका का निर्माण किया था। 
महाभारत के युद्ध में पांडवों की विजयी हुई। श्रीकृष्ण ने युधिष्ठिर का राज्याभिषेक किया, उन्हे राजगद्दी पर बैठाया और राज्य से संबंधित सभी  नियम-कानून समझाकर वे कौरवों की माता गांधारी से मिलने चले गए। श्री कृष्ण के आने पर गांधारी विलाप करने लगीं और फिर क्रोधित होकर उन्हें श्राप दिया कि जिस प्रकार तुम्हारी सहायता के कारण मेरे समस्त कुल का नाश हुआ है, उसी प्रकार तुम्हारे कुल का नाश भी निश्चित है। श्रीकृष्ण साक्षात ईश्वर थे, वे इस श्राप को निष्फल कर सकते थे। परंतु उन्होंने मानव रूप में लिए अपने अवतरण का मान रखा और गांधारी को प्रणाम करके वहाँ से प्रस्थान किया। 
धार्मिक पुस्तकों की माने तो, महाभारत युद्ध समाप्त होने के 36वें वर्ष में द्वारका नगरी मे अनेक दुर्भाग्यपूर्ण घटनाएं होने लगीं थी। गोविंद ने सभी यदुवंशी पुरुषों से तीर्थ पर जाने का अनुरोध किया था। इस पर सभी लोग द्वारका नगरी से तीर्थ के लिए निकल गए। प्रभास क्षेत्र में आने पर विश्राम अवधि मे सभी लोगों के मध्य विवाद आरंभ हो गया। उपहास व अनादर इतना बढ़ गया की कुछ समय पश्चात यह विवाद युद्ध मे परिवर्तित हो गया। 
इस दौरान ऋषियों का शाप इस तरह सत्य हुआ कि साम्ब ने जिस मूसल को उत्पन्न किया था उसके प्रभाव से मैदान में मौजूद खड़ी एरका घास को लड़ाई के दौरान को भी उखड़ता उससे एक मूसल उत्पन्न होने लगता।  इस युद्ध मे श्री कृष्ण के पुत्र प्रद्युम्न की भी मृत्यू हो गई। यह सूचना मिलते ही कान्हा प्रभास क्षेत्र गए। 
अंत में सिर्फ श्रीकृष्ण, उनके सारथी दारुक और बलराम शेष रहे। इस पर श्रीकृष्ण ने दारुक से कहा कि हस्तिनापुर जाकर अर्जुन को यहां ले आओ। फिर बलराम को वहीं रुकने को कहा और स्वयं अपने पिता को इस संहार के बारे में सूचित करने द्वारका चले गए। कान्हा ने वासुदेवजी को इस नरसंहार के बारे में बताया और कहा कि जल्द यहां अर्जुन आएंगे। 
जब श्रीकृष्ण वापस प्रभास क्षेत्र गए तब बलराम जी ध्यानावस्था में बैठे थे। कृष्ण के पहुंचते ही बलराम की देह से शेषनाग निकले और समुद्र में चले गए। अब श्रीकृष्ण अपने जीवन और गांधारी के श्राप के विषय में विचार करने लगे और फिर एक वृक्ष की छांव में बैठ गए। इसी समय जरा नामक एक शिकारी का वाण उनके पैर में आकर लगा, जिसने दूर से उनके पैर के अंगूठे को हिरण का मुख समझकर वार किया था। जब वह शिकारी शिकार उठाने गया तो श्रीकृष्ण के देखकर क्षमा मांगने लगा। कान्हा ने उसे अभय दान देकर देह त्याग दी।
जब अर्जुन द्वारिका पहुंचे तो उन्होंने प्रभास क्षेत्र जाकर सभी यदुवंशियों और वासुदेव जी का अंतिम संस्कार किया। फिर वो सभी महिलाओं और बच्चों को लेकर द्वारका से निकल गए। जैसे ही उन लोगों ने नगर छोड़ा द्वारका का राजमहल और नगरी समुद्र में समा गई।
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