श्री राम भक्त भरत || भरत सम नहीं दुजा कोई त्यागी | Bharat: रामायण का सबसे बड़ा नायक
जहाँ रामायण है, वहाँ राम हैं, सिया हैं, और पवनपुत्र हनुमान हैं।
इन पात्रों के बिना रामकथा अधूरी है। हम सभी ने लक्ष्मण जी के भ्रातृ प्रेम की असंख्य गाथाएँ सुनी हैं, जिसने निःस्वार्थ सेवा और समर्पण की पराकाष्ठा को परिभाषित किया।
लेकिन क्या आपने कभी उस भाई के बारे में सोचा है, जिसने न तो राम के साथ वनगमन किया, न ही युद्ध भूमि में अस्त्र उठाया — परंतु जिसका त्याग, प्रेम और समर्पण लक्ष्मण से कम नहीं, बल्कि कुछ दृष्टिकोणों में और भी महान प्रतीत होता है?
भरत जी कौन थे?
हम बात कर रहे हैं श्रीराम के अनुज भरत जी की —
भरत, जिन्होंने राज्य की समस्त सुख-सुविधाएं ठुकराकर राम के चरणों में जीवन अर्पित कर दिया।
भरत, जिन्होंने वनवासी राम को ही अपना राजा माना और स्वयं एक तपस्वी का जीवन चुना।
भरत, जिनकी कथा सुनते ही हृदय प्रश्न करता है — क्या आज भी ऐसा त्याग और ऐसा प्रेम संभव है?
कैकेयी के वरदान और भरत का आघात
जब माता कैकेयी ने महाराज दशरथ से दो वरदान माँगे —
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राम का वनवास
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भरत का राज्याभिषेक,
तब भरत अपने ननिहाल में थे।
समाचार मिलते ही वे अयोध्या लौटे और जैसे ही सच्चाई का सामना किया, वैसे ही उन्होंने अपनी माता से कहा —
“माता! तूने मुझे राज्य नहीं दिया,
न कोई वरदान,
तूने मुझे विष का प्याला दिया है!”
यह शब्द उस पुत्र के थे, जो अपनी माँ के स्वार्थ से व्यथित था और अपने भाई की पीड़ा को स्वयं के हृदय पर अनुभव कर रहा था।
कौशल्या और भरत का मिलन
राम के वनवास से शोकाकुल कौशल्या माता ने भरत को ही इस दुःख का कारण माना।
लेकिन भरत ने उनके चरणों में गिरकर सैकड़ों शपथें खाईं, अपनी निष्ठा और निर्मल प्रेम का प्रमाण दिया।
कौशल्या का अंतःकरण पिघल गया — उन्होंने भरत को गोद में बिठाकर अश्रुपूरित आशीर्वाद दिया।
चित्रकूट की यात्रा: भरत की भक्ति की परीक्षा
भरत ने अयोध्या की सेना और प्रजा के साथ राम को मनाने के लिए चित्रकूट की यात्रा की।
मार्ग में निषादराज ने भरत की निष्ठा की परीक्षा ली —
“यदि तुम्हारा मन शुद्ध है, तो मैं तुम्हारी सेना को गंगा पार कराऊँगा।
परंतु यदि तुम्हारे मन मे पाप है, तो तुम्हारा मार्ग यहीं रुकेगा।”
भरत की भक्ति ने निषादराज को भी भावविभोर कर दिया।
वे स्वयं इस राम-भक्त की सहायता करने आगे बढ़े।
चरण पादुकाएँ: भरत का सर्वोच्च त्याग
चित्रकूट में, भरत ने श्रीराम से लौट चलने का अनुरोध किया।
परंतु जब राम अपने धर्म और वचन से विचलित नहीं हुए, तब भरत ने उनका एक प्रतीक माँगा —
चरण पादुकाएँ।
“भरतु बैठे नंदीग्राम।
रामु भगति भरतु अति बिस्रामा॥”
भरत अयोध्या लौटे, पर स्वयं महलों में नहीं रहे।
उन्होंने राम की पादुकाओं को राजसिंहासन पर प्रतिष्ठित किया,
और स्वयं नंदीग्राम में एक तपस्वी का जीवन जीने लगे —
जैसे राम के लिए वनवास अयोध्या बन गया हो, वैसे ही भरत के लिए अयोध्या वन बन गई।
भरत का आदर्श: प्रेम, निष्ठा और धर्म का संगम
भरत का जीवन केवल एक भाई का प्रेम नहीं था —
वह एक ऐसा आदर्श था जो भक्ति, शक्ति और मर्यादा का संगम बन गया।
भरत ने कभी सिंहासन की कामना नहीं की, उन्होंने केवल राम को ही राजा माना।
“भरत राम के चरनन्हि ध्यावा,
मन, कर्म, वचन सब काज सुधावा॥”
भरत हमें सिखाते हैं कि —
सच्चा प्रेम न सत्ता चाहता है, न स्वार्थ।
सच्चा समर्पण न पहचान चाहता है, न प्रतिफल।
निष्कर्ष: भरत — एक नाम नहीं, एक जीवन शैली
भरत की कथा हमें यह एहसास कराती है कि —
जहाँ त्याग है, वहाँ शक्ति है;
जहाँ प्रेम है, वहाँ राम हैं;
और जहाँ राम हैं, वहाँ धर्म की अखंड ज्योति जलती रहती है।
भरत — एक नाम नहीं, एक जीवन शैली हैं।
वे हमें आज भी प्रेरणा देते हैं कि जब कर्तव्य और प्रेम के बीच द्वंद्व हो,
तो हृदय से चुनो वही जो भरत ने चुना — Ram