समुंद्र मंथन और 14 रत्नों का अनसुना रहस्य |Story Of Samudra Manthan

हिन्दू धर्म में समुद्र मंथन की कथा खूब प्रसिद्ध है, इसी समुद्र मंथन से हलाहल विष और अमृत समेत कुल 14 रत्नों की प्राप्ति हुई थी। आज हम समुद्र मंथन से निकले 14 रत्नों और उनके महत्व को आपके साथ साझा करेंगे। 

समुद्र मंथन शुरू होने के बाद समुद्र से सबसे पहले कालकूट नामक विष निकला, यह इतना विषैला था कि इसके प्रभाव से पूरी सृष्टि का विनाश हो सकता था। जब इस विष से बचने का किसी को कोई उपाय नहीं सूझा तब सभी देवता और दैत्य भगवान शिव की शरण में पहुंचे और उनसे रक्षा करने की विनती की। देवताओं और असुरों की पुकार पर भगवान शिव ने विषपान कर सम्पूर्ण सृष्टि की रक्षा की थी। विषपान करने से भगवान शिव का कंठ नीला पड़ गया इसलिए उन्हे नीलकंठ कहा गया। 

कालकूट विष के बाद समुद्र से कामधेनु नामक एक दिव्य गाय की उत्पत्ति हुई, लोगों के कल्याण  को ध्यान में रखते हुए इस गाय को ऋषियों को सौंप दिया गया। समुद्र मंथन से उत्पन्न होने के कारण ही हिन्दू धर्म में गाय को माता माना जाता है। 

कालकूट विष और कामधेनु गाय के बाद तीसरे स्थान पर उच्चैश्रवा नामक घोड़ा प्राप्त हुआ, सफेद रंग वाले इस घोड़े के सात मुख थे। इस अश्व को दैत्यों के राजा बलि ने अपने पास रख लिया. 

समुद्र मंथन में चौथे स्थान पर ऐरावत नामक हाथी निकला जो सफेद रंग का था, इस हाथी के चार दांत थे जो लोभ, मोह, वासना और क्रोध का प्रतीक थे। यही ऐरावत हाथी देवराज इन्द्र का वाहन भी है। 

इसके पश्चात समुद्र मंथन से कौस्तुभ मणि प्राप्त हुई। इस मणि को स्वयं भगवान विष्णु ने धारण किया था। 

कल्पवृक्ष समुद्र मंथन से उत्पन्न होने वाला छठा रत्न था, इस वृक्ष में सभी इच्छाओं को पूर्ण करने की शक्ति थी। इस वृक्ष को स्वर्गलोक में स्थापित किया गया था। 

समुद्र मंथन में सातवें स्थान पर रंभा नामक एक अत्यंत सुंदर अप्सरा उत्पन्न हुई। यह अप्सरा भी देवताओं को ही प्राप्त हुई थी। 

समुद्र मंथन से आठवें रत्न के रूप में स्वयं मां लक्ष्मी प्रकट हुई थी, देवताओं और दैत्यों ने मां लक्ष्मी को प्राप्त करने का खूब प्रयास किया लेकिन मां लक्ष्मी ने श्रीहरि विष्णु का वरण किया। 

समुद्र मंथन से नौवें स्थान पर वारुणी देवी प्रकट हुईं, वारुणी का अर्थ है मदिरा या नशा अतः यह बुराई का प्रतीक है इसलिए इसे दैत्यों ने ग्रहण किया। 

चंद्र देव समुद्र मंथन से उत्पन्न होने वाले 10वें रत्न थे, जिन्हें स्वयं देवाधिदेव महादेव ने अपने मस्तक पर धारण किया था। 

समुद्र मंथन से 11वें रत्न के रूप में पारिजात वृक्ष की उत्पत्ति हुई थी, यह वृक्ष भी देवताओं को प्राप्त हुआ था। ऐसा कहा जाता है मां लक्ष्मी को पारिजात के पुष्प अत्यंत प्रिय हैं। 

समुद्र मंथन के 12वें क्रम में समुद्र से पांचजन्य शंख निकला था, सभी की सहमति के बाद इसे भगवान विष्णु को समर्पित कर दिया गया। हिन्दू धर्म में शंख की ध्वनि को अत्यंत शुभ माना गया है, शंख की ध्वनि से नकारात्मक शक्तियों और विचारों का नाश होता है। 

इसके बाद समुद्र से भगवान धन्वंतरि अपने हाथ में अमृत कलश लेकर प्रकट हुए थे। भगवान धन्वंतरि को समुद्र मंथन से प्राप्त हुआ 13वां रत्न जबकि अमृत को 14वां रत्न माना गया। भगवान धन्वंतरि को ही आयुर्वेद का जनक कहा जाता है। समुद्र मंथन से प्राप्त हुए अमृत को लेकर जब देव और दानव पक्ष में विवाद शुरू हुआ तो भगवान विष्णु ने मोहिनी का रूप धारण कर असुरों को सम्मोहित कर लिया और उनसे अमृत कलश लेकर देवताओं को अमृतपान कराया था। 

समुद्र मंथन की पूरी प्रक्रिया आज भी उतनी ही प्रासंगिक है जितनी तब थी। मनुष्य को अमृत यानि परमात्मा की प्राप्ति के लिए सबसे पहले आत्ममंथन करना पड़ता है। मनुष्य जब आत्ममंथन करता है तो सबसे पहले कालकूट विष के समान उसके सभी बुरे विचार बाहर निकलते हैं। इसके बाद उत्पन्न होने वाली कामधेनु मन की निर्मलता और उच्चैश्रवा मन की गति का प्रतीक है। परमात्मा तक पहुँचने के लिए मन को नियंत्रण में रखना आवश्यक है। आत्ममंथन की प्रक्रिया पूरी करनी के बाद ही जीव को परमात्मा रूपी अमृत की प्राप्ति होती है। भारत समन्वय परिवार का प्रयास है कि समुद्र मंथन व इससे प्राप्त हुए रत्नों का महत्व जन जन तक प्रेषित हो और सम्पूर्ण जनमानस विष रूपी कुविचारों को त्यागकर परमात्मा रूपी अमृत को प्राप्त करने की दिशा में अग्रसर हों।  

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