गोवर्धन महात्म्य : जब श्रीकृष्ण ने तोडा देवराज इंद्र का घमंड |Govardhan Mahatmya | Bharat Mata

सत्य सनातन धर्म और संस्कृति में शुरू से ही कंकर कंकर शंकर की अवधारणा रही है। ऐसा माना जाता है कि सृष्टि के हर कण और स्वयं मनुष्य के हृदय में भी ईश्वर विद्यमान रहते हैं। कंकर कंकर शंकर की इसी अवधारणा के फलस्वरूप इस संस्कृति में प्रकृति के सम्मान, संरक्षण और पूजन  की विशेष परंपरा रही है। इस महान परंपरा में वृक्षों, नदियों, और पर्वतों को भी प्रकृति मानकर पूजा जाता है। प्रकृति की पूजा की इस गौरवमयी परंपरा में गोवर्धन पूजा का भी विशेष महत्व रहा है। यह त्योहार हिंदुओं के पवित्र पर्व दीपावली के अगले दिन कार्तिक माह के शुक्लपक्ष की प्रतिपदा के दिन बड़े ही उत्साह के साथ मनाया जाता है। देश के अलग अलग हिस्सों में इस पर्व को अन्नकूट, बलि प्रतिपदा जैसे विभिन्न नामों से जाना जाता है। ऐसी मान्यता है कि इस त्योहार को सबसे पहले द्वापर युग में मनाया गया था, धार्मिक ग्रंथों में इसके कई उल्लेख और साक्ष्य भी मिलते है। गोवर्धन पूजा की शुरुआत कैसे हुई इसके पीछे की एक रोचक कथा भगवान श्रीकृष्ण की लीला से जुड़ी हुई है।

बृजवासी देवराज इन्द्र की विशेष पूजा किया करते थे, जिससे इन्द्र भगवान उनपर प्रसन्न होकर वर्षा करें और उनकी फसल अच्छी हो। एक दिन देवराज इन्द्र को स्वयं पर अभिमान हो गया, भगवान श्रीकृष्ण ने देवराज के इसी घमंड को तोड़ने के लिए एक लीला रची। उन्होंने देवराज इन्द्र की पूजा कर रहे बृज वाससियों से कहा कि यदि उन्हें अच्छी फसल चाहिए तो उन्हें इन्द्र की नहीं बल्कि गोवर्धन पर्वत की पूजा करनी चाहिए, क्योंकि गोवर्धन पर्वत की उपजाऊ मिट्टी और घास के कारण ही उनकी गायों का पेट भरता है तथा उनकी फसल भी अच्छी होती है। सभी लोग भगवान श्रीकृष्ण की बात से सहमत हुए और देवराज इन्द्र की पूजा छोड़कर गोवर्धन पर्वत की पूजा करने लगे। अपनी उपेक्षा होते देख देवराज इन्द्र के अभिमान को चोट पहुंची और वे अत्यंत कुपित हो गए, उन्होंने बृजवासियों और श्रीकृष्ण को सबक सिखाने का निश्चय किया और मेघों को घनघोर वर्षा करने का आदेश दिया। देवराज की आज्ञा पाकर मेघों ने भयंकर गर्जना की और बृज में घनघोर वर्षा प्रारंभ हो गई। निरंतर वर्षा सम्पूर्ण बृज के समक्ष एक बड़ी समस्या बनकर खड़ी थी। वर्षा इतनी घनघोर थी कि  सबकुछ जलमग्न होता जा रहा था। जब किसी को कोई उपाय ना सूझा तो सब कृष्ण के पास पहुंचे, भगवान श्रीकृष्ण ने सभी से गोवर्धन पर्वत की शरण में चलने को कहा। इसके बाद सभी गोवर्धन पर्वत के पास पहुंचे, तत्पश्चात श्रीकृष्ण ने अत्यंत विशाल गोवर्धन को अपनी कनिष्ठा उंगली पर धारण किया और सभी लोग उसके नीचे खड़े हो गए। इधर देवराज इन्द्र के आदेश पर मेघ अनवरत सात दिनों तक जल वर्षा करते रहे लेकिन बृजवासी और भगवान श्रीकृष्ण गोवर्धन पर्वत की छाया में हर प्रकार से सुरक्षित थे। इस घटना से चकित होकर इन्द्र देव ब्रम्हा जी के पास पहुंचे और सारी घटना कह सुनाई। ब्रम्हा जी ने देवराज इन्द्र को स्मरण कराया कि कृष्ण कोई और नहीं बल्कि भगवान विष्णु के ही अवतार हैं। इसके बाद इन्द्र देव भगवान श्रीकृष्ण के समक्ष प्रकट हुए और उनसे क्षमा मांगी, इस प्रकार भगवान श्रीकृष्ण ने अपनी लीला के माध्यम से देवराज इन्द्र का मानमर्दन कर गोवर्धन पर्वत का मान बढ़ाया था। ऐसी मान्यता है कि इसी घटना के बाद से गोवर्धन पूजा का पर्व मनाया जाने लगा।

गोवर्धन का अर्थ है गायों की वृद्धि, इस दिन गाय के गोबर से गोवर्धन पर्वत तथा पेड़ आदि की आकृति बनाकर उनकी और गायों की विशेष रूप से पूजा की जाती है। ब्रज क्षेत्र में इस त्योहार की छटा देखते ही बनती है, देश के हर हिस्से से लोग गोवर्धन पर्वत की परिक्रमा करने के लिए आते हैं।

गोवर्धन पर्वत की एक कथा त्रेता युग से भी जुड़ी है। इस कथा के माध्यम से इस बात का प्रमाण भी मिलता है कि श्रीकृष्ण से पहले बजरंगबली ने गोवर्धन पर्वत को उठाया था। इस कथा के अनुसार रामसेतु के निर्माण के लिए जब पत्थरों की आवश्यकता पड़ी तो बजरंगबली हिमालय से पर्वतों को उठा उठाकर समुद्र तट पर ले जाने लगे जिससे सेतु निर्माण के लिए पत्थर उबलब्ध हो सकें। इसी कड़ी में हनुमान जी जब गोवर्धन पर्वत को उठाकर समुद्र तट पर ले जाने लगे तो मार्ग में उन्हें सूचना मिली की सेतु निर्माण का कार्य पूरा हो चुका है। सेतु निर्माण का कार्य पूरा हुआ जानकर हनुमान जी ने उस पर्वत को वहीं रख दिया। जब हनुमान जी वहाँ से जाने लगे तो गोवर्धन ने हनुमान जी से कहा कि आप तो श्रीराम के परम भक्त हैं, ऐसा कहा जाता है कि बिना आप तक पहुंचे बिना श्रीराम तक पहुंचना असंभव है। फिर ऐसा क्यों हुआ कि मैं आप तक तो पहुँच गया पर प्रभु श्रीराम से दूर हूँ। मैं भी राम कार्य में अपना सहयोग देना चाहता हूँ। गोवर्धन पर्वत की बात सुनकर हनुमान जी ने अत्यंत विनम्रता से उनसे कहा कि चूंकि सेतु निर्माण का कार्य पूरा हो चुका है इसलिए मैं आपको प्रभु के पास तो लेकर नहीं जा सकता लेकिन मैं आपकी प्रार्थना प्रभु तक अवश्य पहुंचाऊँगा और प्रभु का जो भी आदेश होगा उसे भी आकर आपको बताऊँगा। गोवर्धन को आश्वासन देकर हनुमान जी प्रभु के पास पहुंचे और उन्हें गोवर्धन की सारी व्यथा सुनाई। इस पर प्रभु श्रीराम ने हनुमान जी से कहा कि गोवर्धन पर्वत से जाकर कहना कि वो मुझे अत्यंत प्रिय है, मैं वचन देता हूँ कि जब द्वापर युग में मैं श्रीकृष्ण के रूप में अवतार लूँगा तब उन्ही की सहायता से मैं स्वयं की और बृजवासियों की रक्षा करूंगा। द्वापर युग में उन्हें मेरा पावन सानिध्य अवश्य प्राप्त होगा और बृज में वे मेरी कई लीलाओं के साक्षी बनेंगे। अपने इसी वचन की पूर्ति करते हुए भगवान श्रीकृष्ण ने गोवर्धन पर्वत की सहायता से बृजवासियों की रक्षा और देवराज इन्द्र का मानमर्दन किया था। इसलिए गोवर्धन पर्वत को साक्षात भगवान कृष्ण का ही प्रतिरूप माना जाता है।

गोवर्धन का त्योहार मानवों और प्रकृति के बीच के अनोखे संबंध को दर्शाता है। प्रकृति के बिना मानव जीवन की कल्पना कर पाना भी असंभव है। अतः प्रकृति के दोहन पर विराम लगाना और उसका संरक्षण करना मानव जीवन के अस्तित्व की रक्षा के लिए आवश्यक है।

भारत समन्वय परिवार का प्रयास है कि प्रकृति के सम्मान और संरक्षण के महत्वों को दर्शाने वाले ऐसे पर्वों की मूल भावना जन जन तक पहुंचे जिससे सम्पूर्ण जनमानस इनसे प्रेरित एवं लाभनन्वित हों।

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