आत्म भाव देना | Aatm Bhav Dena | Bharat Mata
कर्म के कंधों पर थी, पापों को पोटली
अच्छा हुआ, किसी ने छूट ली, खसोट ली ।
जितना बढ़ता बोझ, उतना ही दबाता
कैसे फिर मेरे नाथ ! उसे उठा पाता ।
बड़ी कृपा की, फिर रोग दे डाला
पुण्य के शरीर पर पड़ा था एक छाला
बंद होता ईश द्वार पड़ जाता ताला
छूट जाती पोथी, फिर गिर जाती माला ।
व्याधि की उपाधि ने फिर से सँभाला
मङ्गलमय विधान प्रभु! आपका निराला ।
कटे कुछ तन्तु नहीं, कर्म भोग काटे हैं
आपने अन्तर के, विवर्त सब पाटे हैं।
वेदना अवश्य, किन्तु वैद्य साथ बना रहा
करुणा विज्ञान दिव्य, मुझ पर तो तना रहा।
पीड़ा बरसती रही किन्तु मैं न भीग पाया
कृपाछत्र बना रहा, तभी मुस्कराया।
कितनी सहानुभूति, प्रीति मिली बिना मांगे
कैसे आभार मानू, विनत मूर्ति आगे ।
लेना न देना शेष रहा, न अधूरा
सत्ताइस अप्रैल तक हिसाब हुआ पूरा
अब न चढ़ाना ऋण, मुझे मुक्त रखना
बार बार दीनानाथ ! अब न परखना ।
सेवा में सुख मिले, वह स्वभाव देना
'देना शरणागति, औ' आत्म भाव देना ।
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