विष अमृत मिश्रित जीवन | Vish Amrit Mishrit Jeevan | Swami Satyamitranand Giri Ji Maharaj | Kavita

विष-अमृत-मिश्रित है जीवन, किन्तु इसे तो पीना है 

स्ववश – विवश हो, रूदन-हास्य हो, जैसे भी हो जीना है 

लाखों जन्म घोंटकर इसको, मानव-तन मे ढाला है 

कर्मजाल संस्कार वासना की स्वचारित ये हाला है 

कोई विषयासक्त बना भौतिकता मे मतवाला है 

कोई राम-नाम का रस भीगा लिए हाथ मे माला है 

कहीं भीम का स्वाभिमान है कहीं द्रौपदी दीना है 

विष-अमृत-मिश्रित है जीवन, किन्तु इसे तो पीना है

आयु छीजती पनघट जैसी, देह गगरिया रिसती जाती 

विजय पराजय मिलन विरह की घटनाएं इतिहास बनाती 

रोके रुकती नहीं परिस्थिति रंगमंच के पट बदलाती 

काभी मचलती सरिता जैसी काभी सरोवर-सी थम जाती 

काभी निनादित युद्ध बिगुल सी , काभी मधुर सी वीणा है 

विष-अमृत-मिश्रित है जीवन, किन्तु इसे तो पीना है

प्रभु का आशीर्वाद कहीं है, कहीं दुखद साभार है 

कहीं हिमालय कहीं नदी की गिरती हुई कगार है 

बालक का पावित्र कहीं है वधुओं का शृंगार है 

कहीं शांति योग-आश्रम जैसी कहीं शाक बाज़ार है 

बादल मे चपला जैसी है कहीं शिथिल गतिहीना है 

विष-अमृत-मिश्रित है जीवन, किन्तु इसे तो पीना है

जीवन-तरु की धूप छाँव है, कहीं फूल कहीं काटें हैं 

प्रत्यावर्तित प्राप्त हो रहा जो भी हमने बांटे हैं 

स्वार्थ – वृतिवश भूमि देश सब मानव ने ही बांटे हैं 

काभी ना उसने धर्म-सेतु से टूटे पाटे हैं 

जीवन की अनमोल सुई से संबंधों को सीना है 

जीवन की अनमोल सुई से संबंधों को सीना है

विष-अमृत-मिश्रित है जीवन, किन्तु इसे तो पीना है

स्ववश – विवश हो, रूदन-हास्य हो, जैसे भी हो जीना है

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