धरती माता | Dharti Mata | Bharat Mata
धरती पर बैठे हैं, धरती पर सोना है
कुटिया, प्रासाद भवन धरती का कोना है
धरती ने जन्म दिया धरतो दुलराती है
धरती से खोंच गन्ध, पुष्प राशि लाती है।
हरी भरी धरती, वनराजी बन जाती है
कैसा नादान जीव, धरती ना भाती है ।
देखता आकाश-कुसुम, जिन्हें छू न पाता है।
चन्दा को तोड़ लाऊँ, भ्रम यह सताता है।
उपमा में सारे, नक्षत्र याद आते हैं
धरती के तारे तो मरे नजर आते हैं।
गङ्गा आकाश की, न जलधारा देती है।
धरती की गङ्गा से, सिचती यह खेती है ।
धरती वरदानी है, धरती तो माता है।
प्रभु को, धरा का अपमान न सुहाता है।
बातें आकाश की हों, आना तो नीचे
धरती आकर्षण तो, खींचती है नीचे
छोड़ो अन्तरिक्ष राग, धरती सजाओ
करुणा, स्नेह, प्रेम, समता जगाओ
धरतो यदि जागो, तो मानवता जागेगो
धरती की सुषमा से, पशुता भी भागेगी
पाया जो धरती ने दे दिया प्रसादी में
कितने दुष्काल सहे दुःख में, बरबादी में
मानव ने खोद खोद कितना सताया
फिर भी भू माता को क्रोध नहीं आया।
रूठ जाएगी यदि, घृणा खाद पायेगी
हिंसा की नदियों से रक्त भरा पायेगी
माता को न रोने दें, माता तो माता है।
माता न बोले भला, दुःख तो सताता है।
धरती विभाजन की रेखा न खींचे
रेखायें धूमिल हो, प्रेम वारि सींचें
जैसे अनन्त प्रभु धरती अनन्त है
कहीं शरद, कहीं शिशिर, कहीं वसंत है ।