हरि में जग है | Hari Mai Jag Hai | Bharat Mata
हरि में जग है, जग में हरि है, कर ले मन विश्वास रे
प्रकृति नटी नर्तन करती है, प्रभु मिलन की आस रे
प्रभु की करुणा विगलित होती, तब सरिता बनकर आ जाती
लहर लहर में, मन्दित स्वर में निर्माता के गीत सुनाती
कहीं कभी साकार दीखती निराकार बनकर छिप जाती
अलख अलखनन्दा की ध्वनि में, हिम आच्छादित रूप दिखाती
हर थिरकन लेती अँगड़ाई, कैसे पहुँचू पास रे
हरि में जग है, जग में हरि है, कर ले मन विश्वास रे
चरण पखारू दर्शन पा लूँ, मन में निशिदिन यही चाव है
पथिक सदा विश्राम चाहता, सरिता का भी यही भाव है
आज नहीं तो कल मिल जाए, मेरा सागर ही पड़ाव है
। अति आतप व्याकुल जीवन की, परमेश्वर ही सुखद छाँव है
अन्धकार को चीर चला चल मिलता अभी उजास रे
हरि में जग है, जग में हरि है, कर ले मन विश्वास रे
कंकर ने शङ्कर को चाहा, लगा बढ़ाने काया
प्रतिपल ऊर्ध्वगति धारण को, तब हिमगिरि कहलाया
अविचल अचल समाधि मग्न-सा, छोड़ी जग को सारी माया
महिमा खोज - खोज कर हारा, कहीं हिमालय तब बन पाया
सरिता ने सागर को मापा, हिमगिरि ने आकाश रे
हरि में जग है, जग में हरि है, कर ले मन विश्वास रे
प्रकृति नटी नर्तन करती है, प्रभु मिलन की आस रे
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