शुचितम स्नेह - Swami Satyamitranand Giri Ji Maharaj

जिससे कभी स्नेह बंधा हो, आ जाता है याद, स्वर तो होता बंद किंतु आंखें करती फरियाद। 

मन मस्तिष्क के सभी में भर जाता है अंतर्नाद, गति में प्रगति ना हो पाती छा जाता अवसाद । 

नख शीश अंग-अंग उसके नैनों में नाचा करते, चितवनि, बोलनि मिलन परस्पर दोनों बांधा करते। 

मीठी एक गुदगुदी दिल को सहलाया करती है, इस दुनिया से दूर दुबक कर दुलराया करती है। 

सब रस फीके इसके आगे ऐसा अद्भुत स्वाद, उचित अनुचित विस्मृति होता है ढहती  दृढ़ मर्याद । 

लोकोत्तर आनंद नेह का तभी न ईह परिभाषा, दो से एक रूप होने की बढ़ती है अभिलाषा। 

द्वैत कल्पना जीव लुप्त कर ब्रह्म चाहता बनना, परंपरागत सहज भाव से इच्छित नहीं विचलाना।

केवल स्नेह नह के हित जो सचमुच है अभिवंद्य, शुचितम स्नेह देव प्रतिमा शत-शत बार प्रणाम।। 

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