Swami Ramkrishna Paramhans| स्वामी रामकृष्ण परमहंस | ईश्वरीय साक्षात्कार के मार्गदर्शक | Bharat Mata

स्वामी रामकृष्ण परमहंस का जीवन और योगदान

भारतवर्ष की पवित्र पावन आध्यात्मिक धरती पर समय-समय पर कुछ ऐसे महान संतों का प्रभाव होता रहा है जिन्होंने पथ से विचलित मानव को धर्म और सत्कर्म का मार्ग दिखाकर संपूर्ण विश्व को सही दिशा में चलने के लिए प्रेरित किया, प्रभु प्रेम और भक्ति को जीवन का आदर्श बनाया और जीवन को आवागमन से मुक्ति दिलाकर मोक्ष का मार्ग प्रशस्त किया। ऐसे ही एक आध्यात्मिक गुरू, संत और विचारक इस श्रृंखला में स्वामी रामकृष्ण परमहंस का नाम न केवल श्रद्धा और सम्मान से लिया जाता है, बल्कि उनके जीवन ने स्वयं यह सिद्ध किया है कि वह ईश्वरीय अवतार का ही स्वरूप थे। ईश्वरप्राप्ति के दृढ़ विश्वास से उन्होंने कठोर साधना, तपस्या और भक्ति का जीवन बिताया। विभिन्न धर्मों और मतों में बिखरे हुए समाज को उनका स्पष्ट संदेश था कि संसार के सभी धर्म सत्य हैं और वे ईश्वर तक पहुंचने के भिन्न-भिन्न साधन मात्र हैं। इस प्रकार से उन्होंने भारतीय संस्कृति के समन्वयक दृष्टिकोण को ही प्राण प्रतिष्ठित किया। उनका कहना था, "परमपिता परमेश्वर हर एक कोण में समाया है और ईश्वर का स्वरूप इंसानों में आसानी से देखा जा सकता है। इसलिए इंसान की सेवा करना ही ईश्वर की सेवा है।" पानी और उसका बुलबुला एक ही चीज है, इसी तरह आत्मा और परमात्मा भी एक ही हैं। जब हम सत्य बोलते हैं, तो हमें उस समय बहुत ही एकाग्र और विनम्र होना चाहिए, क्योंकि सत्य के माध्यम से ही ईश्वर की अनुभूति भी की जा सकती है।

स्वामी रामकृष्ण परमहंस का जन्म और जीवन की शुरुआत

स्वामी रामकृष्ण परमहंस जी का जन्म सन 1836 में बंगाल के नदिया जिले के पास कामारपुकुर नामक गांव में हुआ था। उनके पिता का नाम खुदीराम चट्टोपाध्याय और माता का नाम चंद्रमणि था। उनके बचपन का नाम गदाधर था। उनका विनम्र स्वभाव और मधुर वाणी उनका ईश्वर प्रदत्त गुण था। बचपन से ही कृष्ण चरित्र और लीलाओं में उनकी अभिरुचि थी। कभी-कभी तो भक्तिभाव की तन्मयता में वह चेतक हो जाते थे।

स्वामी रामकृष्ण परमहंस का शिक्षा और आध्यात्मिक जीवन

विद्यालय प्रदत्त शिक्षा में उनकी कोई विशेष अभिरुचि नहीं थी। उन्होंने अपने बड़े भाई रामकृष्ण से कहा था, "मुझे तो ऐसी शिक्षा चाहिए जो ईश्वर की शरण में ले जाए।विभिन्न स्तरों के माध्यम से रामकृष्ण के जन्म के पूर्व हुई एक कथा प्रचलित है। उनके पिता ने गया प्रवास के दौरान एक स्वप्न देखा था कि भगवान विष्णु उनके घर में जन्म लेंगे। वहीं उनकी माता को अनुभव हुआ कि शिव मंदिर के ऊपर उनके घर पर प्रकाश की किरण पड़ी, जिससे यह आभास हुआ कि भगवान विष्णु के रूप में गंधार का जन्म हुआ। रामकृष्ण के बड़े भाई राम कुमार कोलकाता के विश्वविद्यालय में प्राध्यापक थे और उन्होंने रामकृष्ण को अपने साथ कोलकाता ले आए। किंतु अनेक प्रयासों के बाद भी रामकृष्ण शिक्षा में नहीं लगे और उन्होंने धार्मिक कर्मकांड करने का निर्णय लिया।

रानी रासमणि ने दक्षिणेश्वर में काली मंदिर का निर्माण कराया और सन 1855 में बड़े भाई राम कुमार को उसका मुख्य पुजारी नियुक्त किया। किंतु विधाता के रचनाक्रम के अनुसार, सन 1856 में राम कुमार जी की मृत्यु हो गई और इस मंदिर में पूजा का कार्यभार रामकृष्ण परमहंस को सौंपा गया। रामकृष्ण जी के जीवन का यह निर्णायक पल था। मां काली की मूर्ति उनके लिए एक जीवंत प्रतिमा बन गई, जिसे वह अपने हाथ से खाना खिलाते थे और उनके साक्षात दर्शन करते थे। यह माया और संसार को त्याग कर एक अनासक्त जीवन का उदाहरण था। उनके जीवन को परम तत्त्व की ओर प्रेरित करने में उनके गुरु स्वामी तोता परी जी का भी महत्वपूर्ण योगदान था। स्वामी तोता परी जी ने अद्वैत वेदांत और अद्वैत तत्व का ज्ञान दिया। रामकृष्ण ने उन्हें अपना गुरु माना और स्वामी तोता परी जी ने उन्हें अपना शिष्य माना।

स्वामी रामकृष्ण परमहंस का विवाह और संन्यास

सन 1869 में, 23 वर्ष की आयु में, रामकृष्ण का विवाह 5 वर्ष की शारदामणि से हुआ। विवाह के बाद शारदामणि अपने परिवार के साथ जयराम वटी में रहती रही और 18 वर्ष की आयु होने के बाद वह दक्षिणेश्वर काली मंदिर में रहने लगी। किंतु रामकृष्ण अपने आध्यात्मिक जीवन में बहुत आगे बढ़ चुके थे और उन्होंने संन्यासी जीवन अपनाने का संकल्प लिया। उनका जीवन भक्तिमार्ग का एक आदर्श बना।

जगत प्रसिद्ध स्वामी विवेकानंद श्री रामकृष्ण परमहंस जी के प्रिय एवं प्रधान शिष्य थे। विवेकानंद जी ने अपने ज्ञान और गुणों का आश्रय सदा अपने गुरु को दिया और अपनी कमियों के लिए स्वयं को दोषी माना। एक बार जब स्वामी विवेकानंद ने तपस्या हेतु हिमालय जाने की आज्ञा मांगी, तब परमहंस ने उनसे कहा, "हमारे समाज में चारों ओर अज्ञान का अंधकार है और लोग दुखी एवं पीड़ित हैं। ऐसी अवस्था में तुम्हें मानव कल्याण की दिशा में कार्य करना चाहिए।" इस वक्त ने स्वामी विवेकानंद के दृष्टिकोण को पूर्ण रूप से मानव सेवा की ओर उन्मुख किया और उन्होंने अपना सारा जीवन मानव सेवा और समाजोत्थान को समर्पित किया।

स्वामी रामकृष्ण परमहंस ने 16 अगस्त 1886 को महासमाधि ली। उनके दिखाए गए आध्यात्मिक मार्ग और त्याग को भारत समन्वय परिवार की ओर से कोटि-कोटि नमन। उनका जीवन एक आदर्श बन गया और उनके योगदान को सदा याद रखा जाएगा।