आर्य समाज प्रवर्तक स्वामी दयानंद सरस्वती | Life History of Swami Dayanand Saraswati | Bharat Mata

आर्य समाज के संस्थापक और एक सन्यासी योद्धा के विशेषण से अलंकृत स्वामी दयानंद सरस्वती का जन्म 12 फरवरी 1824 को गुजरात में हुआ था। उनके बचपन का नाम मूल शंकर था। शिव भक्त परिवार में जन्म लेने के कारण सत्य अन्वेषण का भाव उन्हें संस्कार स्वरूप ही प्राप्त था। उनकी प्रारंभिक शिक्षा उन्हें घर पर ही प्राप्त हुई थी। मात्र 12 वर्ष की अल्पायु में ही उन्हें संस्कृत शिक्षा का अच्छा ज्ञान प्राप्त हो गया था। वैराग्य का भाव तो उन्हें बचपन से ही दृष्टिगत हो रहा था। परंतु अपनी बहन और चाचा की असामयिक मृत्यु से यह वगैरा के भाव और अधिक बढ़ गया और वह और अधिक विरक्त होते गए। गुरु स्वामी विरजानंद जी के सानिध्य और मार्गदर्शन में उन्होंने वेदों और उपनिषदों का गहन अध्ययन किया। गुरु की आज्ञा अनुसार वे धर्म के प्रचार प्रसार। सुधार के लिए देश भ्रमण के लिए अग्रसारित हुए। ईश्वर एक है कि वैश्विक सिद्धांत के अनुसार उन्होंने मूर्ति पूजा का विरोध किया और जनमानस तक वेद ज्ञान का उपदेश दिया एवं शास्त्रों हिंदुओं को ईसाई और इस्लाम धर्म परिवर्तन से रोका। स्वामी दयानंद सरस्वती का आविर्भाव 19वीं सदी के उस कालखंड में हुआ जब देश परतंत्रता की बेड़ियों से झगड़ा हुआ था। भारतीय जीवन दर्शन पाश्चात्य विचारधारा से संक्रमित हो रहा था। सच तो यह है कि योजनाबद्ध तरीके से भारतीय संस्कृति के विनाश की पटकथा लिखी जा रही थी। ऐसे कठिन समय में स्वामी दयानंद सरस्वती नहीं। हिंदू समाज के रक्षक के रूप में आर्य समाज की स्थापना की और भारतीय संस्कृति को एक श्रेष्ठ संस्कृति के रूप में पुनः स्थापित किया। उनका स्पष्ट संदेश था कि वेद ही परमात्मा द्वारा प्रदत्त ज्ञान है। वेद ही ज्ञान का शाश्वत स्त्रोत है और ईश्वरीय प्रेरणा से यही एकमात्र मानव कल्याण का मार्ग है। उन्होंने तत्कालीन समाज।कुरीतियों, पाखंड एवं अंध विश्वासों का खंडन और विरोध किया। उन्होंने विशेष रूप से 3 शिक्षा का प्रसार बाल विवाह का विरोध सती प्रथा का खंडन विधवाओं का पुनर्विवाह, जाति पाति का कड़ा। विरोध में बलि प्रथा और बहुविवाह का विरोध आदि विषयों पर समाज को जागरूक करने का सफल प्रयास किया। स्वामी दयानंद ने संस्कृत भाषा के महत्व को पुनः स्थापित किया। उन्होंने चरित्र निर्माण की दृष्टि से प्राचीन गुरुकुल प्रणाली के द्वारा छात्रों को शिक्षित करने की परंपरा को पुनः जागृत किया। हिंदी भाषा और साहित्य को प्रोत्साहन प्रदान कर उन्होंने हिंदी भाषा के ग्रंथों की रचना कर मातृभूमि के राष्ट्रीय गौरव को पढ़ाया। उनके द्वारा रचित कुछ प्रमुख ग्रंथ हैं। सत्यार्थ प्रकाश, वेदांग प्रकाश संस्कार, विधि विधान, टी निवारण और व्यवहार भानु आदि सत्यार्थ प्रकाश को वैचारिक क्रांति का शंखनाद माना जाता है। अपने विचारों से उन्होंने कुरीतियों और अंधविश्वासों में डूबे जनमानस को ज्ञान के प्रकाश से आलोकित किया।स्वामी दयानंद सरस्वती जी के जीवन में यथार्थवादी मार्ग अपनाने की सहज प्रवृत्ति थी। उन्होंने अपने जीवन में उच्च आदर्शवाद की भावना को सर्वोच्च प्राथमिकता दी। उन्होंने जीवन पर्यंत भारतीय जनमानस में अपने गौरवमई अतीत के प्रति निष्ठा जगाने का अथक प्रयास किया। राष्ट्रप्रेम पुरातन संस्कृति और राष्ट्रभाषा उत्थान के अग्रदूत स्वामी दयानंद का शरीर 1583 में मात्र 59 वर्ष की आयु में पंचतत्व में विलीन हो गया। किंतु उनकी चेतना इन शब्दों में कृण्वंतो विश्वमार्यम् अर्थात सारे संसार को श्रेष्ठ मानव बनाओ। सदा सर्वदा की अमर रहेगी। उनके अंतिम शब्द जो अंतिम प्रार्थना के रूप में प्रभु चरणों को समर्पित हैं। प्रभु तूने अच्छी लीला कि आपकी इच्छा पूर्ण हो। सरदार वल्लभ भाई पटेल जी ने कहा था। स्वतंत्रता की नींव वास्तव में स्वामी दयानंद ने डाली। श्रीमती एनी बेसेंट के शब्दों में स्वामी दयानंद पहले व्यक्ति थे जिन्होंने भारत भारतीयों के लिए की उद्घोषणा की और विशाल। कर के अनुसार महर्षि दयानंद स्वतंत्रता संग्राम के सर्वप्रथम योद्धा थे। जिस आदर्श को उन्होंने अपने जीवन में समर्पित किया था, वह था आर्यावर्त उठ जाग आगे बढ़ समय आ गया है। नए युग में प्रवेश कर भारत समन्वय परिवार की ओर से उनके जन्म दिवस के अवसर पर इस युगपुरुष को शत शत नमन।

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