Adi Shankaracharya | केरल से केदारनाथ तक — कैसे एक संन्यासी ने जोड़ा पूरा भारत | आदि शंकराचार्य
जब सनातन धर्म संकट के द्वार पर खड़ा था… जब अज्ञान का अंधकार भारतीय संस्कृति की रोशनी को निगलने को तैयार था… और जब संप्रदायों के विभाजन ने हिंदू समाज को कमजोर कर दिया था—तभी भगवान शिव के अंशरूप में एक युगपुरुष अवतरित हुए, जिनका 32 वर्ष का अल्प जीवन आज भी युगों-युगों तक मार्गदर्शक बना हुआ है। यह गाथा है आदि शंकराचार्य की।
सन् 788 ईस्वी में केरल के कलाड़ी में जन्मे शंकर ने बचपन से ही अलौकिक प्रतिभा का परिचय दिया। तीन वर्ष में पिता का देहांत, पाँच वर्ष में संस्कृत में प्रवीणता, और आठ वर्ष की आयु तक वेद-उपनिषदों का ज्ञान—यह सब किसी महान आत्मा का ही संकेत था। उनकी स्मृति इतनी अद्भुत थी कि एक बार सुना गया श्लोक कभी विस्मृत नहीं होता था।
संन्यास का चमत्कार और गुरु-दीक्षा
नदी में स्नान करते समय मगरमच्छ द्वारा पकड़े जाने की घटना उनके संन्यास का निर्णायक क्षण बनी। मृत्यु के निकट क्षणों में माता ने उनका संन्यास स्वीकार किया और चमत्कार हुआ—मगरमच्छ ने उन्हें छोड़ दिया। यह एक संन्यासी के जन्म की उद्घोषणा थी।
ओंकारेश्वर में नर्मदा तट पर गुरु गोविंदपाद मिले। उनके प्रश्न “मैं कौन हूँ?” का उत्तर—
“तू न जन्मा है न मरेगा; तू ब्रह्म है”—
अद्वैत वेदांत के बीज की स्थापना थी।
गुरु ने आदेश दिया—
“हे शंकर, सनातन धर्म की रक्षा करो।”
अद्वैत वेदांत का प्रसार और शास्त्रार्थों की विजय
12 से 16 वर्ष की अल्प आयु में शंकराचार्य ने समस्त भारत में भ्रमण कर 72 संप्रदायों से शास्त्रार्थ किया।
मिथिला के मंडन मिश्र और उभयभारती के साथ 17 दिनों तक चला शास्त्रार्थ ऐतिहासिक है। कुमारिल भट्ट से लेकर अनेक बौद्ध आचार्य उनके ज्ञान, तर्क और आध्यात्मिक अनुभूति से प्रभावित हुए।
उनका संपूर्ण दर्शन इस महान वाक्य में निहित है—
"ब्रह्म सत्यम्, जगत् मिथ्या, जीवो ब्रह्मैव नापरः"
उनकी रचनाएँ—
भज गोविंदम्, सौंदर्य लहरी, शिवानंद लहरी, विवेकचूडामणि, आत्मबोध, और उपदेशसाहस्री—आज भी वेदांत की आत्मा हैं।
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चार मठों की स्थापना और समाज-सुधार
भारत की आध्यात्मिक और सांस्कृतिक एकता को जीवित रखने हेतु उन्होंने चार दिशाओं में चार मठ स्थापित किए—श्रृंगेरी, द्वारका, जोशीमठ और पुरी। मठों और महान विभूतियों की और कहानियाँ पढ़ें:
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वे समाज-सुधारक भी थे। उन्होंने कहा—
“ब्राह्मण वह है जो ब्रह्म को जानता है, न कि वह जो केवल जन्म से ब्राह्मण है।”
उन्होंने स्त्री को ज्ञान की अधिष्ठात्री माना, शूद्रों को संन्यास दिया, अंधकर्मकांडों और हिंसा का खंडन किया, और भक्ति–ज्ञान का संतुलन स्थापित किया। काशी में भगवान शिव चांडाल रूप में प्रकट हुए और वहीं शंकर ने “मनीषा पंचकम्” की रचना की।
केदारनाथ में समाधि और अमर संदेश
सन् 820 ईस्वी में उन्होंने केदारनाथ में शरीर त्याग दिया। पर उनका अद्वैत दर्शन आज भी भारत की आत्मा में ध्वनित है। योग, ध्यान, आत्मचिंतन, मानसिक शांति—सब उनकी शिक्षाओं से ही फलित होते हैं। विस्तृत लेख, आध्यात्मिक सामग्री और भारत के महापुरुषों के जीवन यहाँ देखें:
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उनकी अमर वाणी आज भी प्रेरित करती है—
“भज गोविंदम् भज गोविंदम्… संप्राप्ते सन्निहिते काले, नहि नहि रक्षति डुकृञ्करणे।”