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एकता के सूत्र में बांधने वाले आदि शंकराचार्य | Swami Satyamitranand ji Maharaj | Pravachan

भारत माता की इस प्रस्तुति में स्वामी सत्यमित्रानंद गिरी जी महाराज कहते हैं की भगवान आदि शंकराचार्य अत्यंत तेजस्वी और विलक्षण बुद्धि के बालक थे। बचपन से ही उनके मन में संसार के कल्याण का भाव था। उनकी माँ उन्हें सन्यास लेने की अनुमति नहीं देती थीं।

भगवान आदि शंकराचार्य: अद्वैत वेदांत के महान प्रवर्तक और भारत की एकता के प्रेरणास्रोत

एक दिन वे नदी में स्नान करने गए और देर तक वापस नहीं आए। जब माँ चिंतित होकर पहुँचीं, तो उन्होंने देखा कि शंकराचार्य पानी में ध्यानमग्न हैं। अचानक वे चिल्लाए — “अम्मा, मेरे पैर में मगरमच्छ ने पकड़ लिया है! वह कह रहा है कि अगर आप मुझे सन्यास लेने की आज्ञा देंगी तो मुझे छोड़ देगा।” माँ ने भावुक होकर कहा — “ठीक है बेटा, मैं तुम्हें सन्यास लेने की आज्ञा देती हूँ।”
इतना कहते ही मगरमच्छ ने उन्हें छोड़ दिया। इस तरह मात्र सात वर्ष की आयु में शंकराचार्य सन्यासी बन गए।

उन्होंने एक वर्ष में चारों वेद कंठस्थ कर लिए और आठ वर्ष की आयु में ग्रंथों पर भाष्य लिखना प्रारंभ किया। 16 वर्ष की आयु तक उन्होंने उपनिषद, ब्रह्मसूत्र, न्याय और मीमांसा जैसे अनेक ग्रंथों पर टीकाएँ लिख डालीं।

इसके बाद वे अपने गुरु गोविंदपादाचार्य से मिलने ओंकारेश्वर पहुँचे, जिन्होंने उन्हें विधिवत् सन्यास दिया। वहीं से वे “शंकराचार्य” नाम से प्रसिद्ध हुए।

केवल 16 वर्ष की उम्र में ही उन्होंने यह संकल्प लिया कि भारत को एकता के सूत्र में बाँधना है। उस समय पूरा समाज बौद्ध दर्शन से प्रभावित था — अशोक जैसे सम्राट भी बौद्ध धर्म के अनुयायी बन चुके थे। शंकराचार्य ने वैदिक परंपरा के पुनरुद्धार के लिए पूरे भारत की यात्रा की।

आदि शंकराचार्य का जीवन संदेश: आत्मसंयम, ज्ञान और भक्ति से राष्ट्र उत्थान

स्वामी सत्यमित्रानंद गिरी जी महाराज बताते हैं कि वे मानते थे कि सच्ची शक्ति का प्रदर्शन नहीं किया जाता — वह अपने कर्मों में झलकती है। जैसे रामकृष्ण परमहंस ने विवेकानंद को समझाया था — “तुम कमल की तरह समाज में खिले रहो, भौंरे अपने आप आएँगे।” शंकराचार्य का भी यही दृष्टिकोण था — व्यक्ति पहले अपने जीवन और चरित्र को श्रेष्ठ बनाए, तभी समाज और राष्ट्र में परिवर्तन संभव है।

उन्होंने कहा था कि मनुष्य का स्वभाव नीचे की ओर बहने वाली नदी जैसा होता है — उसे सही दिशा देने के लिए संयम और साधना की आवश्यकता है। जैसे इंजीनियर बाँध बनाकर नदी के जल से विद्युत उत्पन्न करते हैं, वैसे ही जब मन और इंद्रियाँ भगवान की भक्ति से संयमित होती हैं, तो भीतर से प्रकाश और शांति उत्पन्न होती है।

इसलिए भगवान आदि शंकराचार्य का जीवन हमें सिखाता है कि आत्मसंयम, ज्ञान और भक्ति से ही समाज और राष्ट्र का उत्थान संभव है। पूरे प्रवचन को सुनने के लिए Bharat Mata YouTube Channel पर जाएँ।