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दुस्संग का दुष्परिणाम और सत्संग की महिमा | Swami Satyamitranand Giri ji Maharaj | Pravachan

भारत माता की इस प्रस्तुति में स्वामी सत्यमित्रानंद गिरी जी महाराज कहते हैं कि सच्ची कुशलता और सुख तभी संभव है जब मनुष्य भगवान की शरण में जाए।
बिना राम-नाम और भक्ति के जीवन में स्थिरता, शांति और संतोष नहीं पाया जा सकता।

गोस्वामी तुलसीदास जी के अनुसार —

“जाग्रत अवस्था में सुख मिल जाना अच्छा है, लेकिन यदि मनुष्य अपने स्वप्न में भी सच्चा सुख नहीं अनुभव कर पा रहा, तो इसका कारण है कि उसने अपने मन को राम-भक्ति में नहीं लगाया।”

मनुष्य की इच्छाएँ अत्यंत चंचल और अस्थिर होती हैं — वे बार-बार हमें भ्रमित करती हैं और दुख का कारण बनती हैं।

सत्संग का महत्व और दुस्संग का त्याग

सत्संग का सबसे बड़ा लाभ यही है कि जब हम संतों और ज्ञानी जनों के संग में रहते हैं, तो हमारी इच्छाएँ नियंत्रित होती हैं, मन में संयम और विवेक की भावना जागृत होती है, और बुरे संग से बचने की शक्ति मिलती है।

अजामिल की कथा इसका जीवंत उदाहरण है — एक अच्छा व्यक्ति भी जब गलत संगति में पड़ गया, तो उसे भयंकर दुखों का सामना करना पड़ा।
इसी कारण देवर्षि नारद ने कहा है —

“दुस्संग सर्वथा त्याज्यः” — बुरे संग का पूर्ण रूप से त्याग करना चाहिए।

बुरे संग का परिणाम केवल वर्तमान जीवन में नहीं, बल्कि आने वाले जन्मों तक असर डालता है।
इस विषय पर विस्तार से जानें: आदि शंकराचार्य कथा

मानसरोवर की कथा और दुस्संग का परिणाम

मानसरोवर की कथा भी इसी बात को स्पष्ट करती है। वहाँ के सुंदर हंसों के बीच एक कौआ आ गया, और बुरे संग के प्रभाव से हंस का जीवन संकट में पड़ गया।
जब राजा के तीर से हंस घायल हुआ, तो उसने कहा —

“नीच संग प्रसादेन जातं जन्म निरर्थकम्”
(दुष्ट संग के कारण ही मेरा जीवन व्यर्थ हो गया।)

यह घटना बताती है कि बुरे संग का परिणाम कितना घातक होता है।

तुलसीदास जी का उपदेश – दुष्ट संग से बचना ही सच्ची बुद्धिमानी

तुलसीदास जी का कहना था कि थोड़े समय के लिए नरक का वास मिल जाए, यह भी सहन किया जा सकता है,
पर दुष्ट का संग किसी भी कीमत पर नहीं करना चाहिए।

क्योंकि दुष्ट संग आपके मन में शंका और संदेह उत्पन्न करता है,
भक्ति और श्रद्धा को कमजोर करता है, और धीरे-धीरे आपकी आध्यात्मिक संपत्ति को नष्ट कर देता है।

इसलिए जीवन में यह बहुत आवश्यक है कि हम सोच-समझकर निर्णय लें कि हमें किन लोगों का साथ स्वीकार करना है।

परमात्मा का निःस्वार्थ प्रेम और मानव जीवन का उद्देश्य

परमात्मा ही एकमात्र ऐसा है जो बिना किसी स्वार्थ के हमसे प्रेम करता है।
उसी ने अपनी करुणा से हमें यह दुर्लभ मानव जीवन दिया है।
यह जीवन केवल भोग के लिए नहीं, बल्कि भक्ति और आत्मोन्नति के लिए मिला है।

भगवान श्रीराम का आदर्श राज्य – सच्चे धर्म की पहचान

भगवान श्रीराम का रामराज्य इस बात का उदाहरण है कि जब मनुष्य संयम, सत्य और धर्म के मार्ग पर चलता है,
तो प्रकृति भी उसका साथ देती है।

रामराज्य में न अतिवृष्टि होती थी, न अकाल, न अन्याय।
सभी लोग शांत, संतुलित और नैतिक जीवन जीते थे क्योंकि उनके शासक तपस्वी, निष्पक्ष और चरित्रवान थे।

भरत जी का संयमित जीवन – सच्चे नेतृत्व का आदर्श

भरत का तपस्वी जीवन इसका साक्षात उदाहरण था।
उन्होंने राम की पादुकाओं की पूजा करते हुए राज्य का संचालन किया और स्वयं को किसी अहंकार से दूर रखा।

उनके संयमित जीवन ने पूरे राज्य को प्रभावित किया, जिससे लोग भी धर्ममय और सात्विक जीवन जीने लगे।

एक श्रेष्ठ राज्य केवल कानून और दंड से नहीं चलता,
बल्कि ऐसा वातावरण बनाकर चलता है जहाँ अच्छाई स्वाभाविक बन जाए और बुराई पनप ही न सके।

निष्कर्ष

यही सच्चे धर्म, सच्चे समाज और सच्चे जीवन की पहचान है —
जहाँ भक्ति, विवेक और प्रेम का सामंजस्य हो।

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दुस्संग का दुष्परिणाम और सत्संग की महिमा | स्वामी सत्यमित्रानंद गिरी जी महाराज

Category: प्रवचन
Source: भारत माता ऑनलाइन
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