गीता का कृष्ण अध्यात्म का परब्रह्म है | Swami Satyamitranand Ji Maharaj | Bhagwad Geeta | Pravachan
भारत माता की इस प्रस्तुति मे स्वामी सत्यमित्रानंद गिरी जी महाराज बताते हैं कि भगवान श्री कृष्ण ने श्रीमद्भगवद गीता के पांचवे अध्याय के तीसरे श्लोक में कहा है कि मैंने तुम्हें सांख्य और कर्मयोग दोनों की शिक्षा दी है। अब ध्यान देने वाली बात यह है कि कई बार गृहस्थ जीवन जीने वाले लोग संन्यासियों को बड़े आदर से देखते हैं, क्योंकि उनके पास एक विशेष सम्मान और शांति होती है।
संन्यास और गृहस्थ जीवन की वास्तविकता
हम जैसे लोग, जो सामान्य जीवन जीते हैं, अक्सर अपने घरों में दो-तीन बार बुलाए जाते हैं और तरह-तरह के पकवान मिलते हैं। हालांकि, मेरी स्वास्थ्य स्थिति की वजह से मैं इन चीजों का आनंद नहीं ले पाता, फिर भी संन्यास के बारे में बहुत लोग यही सोचते हैं कि अगर वे संन्यासी बन जाएं, तो उनका जीवन कितना सुखमय होगा।
लेकिन भगवान श्री कृष्ण ने इस बारे में स्पष्ट रूप से कहा कि संन्यास केवल भगवा वस्त्र पहनने से नहीं आता। संन्यास का मतलब है अपने भीतर के संसार से मुक्त हो जाना, बिना किसी आकांक्षा या द्वेष के कर्म करना। गीता में कहा गया है, "गच्छ स नित्य संन्यासी यो न द्वेष न कांति", जिसका अर्थ है कि जो व्यक्ति किसी से द्वेष नहीं करता और किसी से आकांक्षा नहीं रखता, वही असली संन्यासी होता है।
संन्यास और कर्मयोग: भगवान श्री कृष्ण का सन्देश
अब, संन्यास का यह विचार सभी के लिए नहीं है, परंतु भगवान श्री कृष्ण ने यह भी कहा कि जिन लोगों को संन्यास की इच्छा है, वे उसे प्राप्त कर सकते हैं। जब हम किसी उद्देश्य के लिए काम करते हैं, तब हम खुद को बंधन से मुक्त कर सकते हैं।
वीर सावरकर: कर्म और त्याग का सजीव उदाहरण
उदाहरण के लिए, वीर सावरकर का जीवन। वह अंडमान निकोबार की जेल में 21 वर्षों तक कठोर परिश्रम करते रहे, लेकिन उन्होंने अपने उद्देश्य को कभी नहीं छोड़ा। जब उनसे कहा गया कि माफी मांगने पर उन्हें रिहा कर दिया जाएगा, तो सावरकर जी ने जवाब दिया कि उनके शब्दकोश में अन्याय से माफी मांगने का कोई स्थान नहीं था। वह जानते थे कि उनका कष्ट उनके उद्देश्य का हिस्सा था, और इस कष्ट को उन्होंने पूरी तरह से स्वीकार किया।
कर्म का फल भगवान पर छोड़ देना ही सच्चा योग
भगवान श्री कृष्ण का संदेश यही है कि हमें कर्म करना चाहिए, लेकिन उसका फल भगवान पर छोड़ देना चाहिए। किसी भी कार्य को करने के बाद, यह सोचने की कोई आवश्यकता नहीं है कि फल क्या होगा। हम अपना कर्म भगवान को समर्पित कर सकते हैं और अपने जीवन में शांति और संतुलन पा सकते हैं। भगवान कहते हैं कि हमें केवल कर्म करने की स्वतंत्रता है, लेकिन कार्य के परिणाम पर हमारा कोई अधिकार नहीं है।
संन्यास का वास्तविक स्वरूप
कभी-कभी हम देख सकते हैं कि जीवन में कोई व्यक्ति अत्यधिक दुख भोग रहा है, और हमें यह लगता है कि हम यह दुख नहीं सह सकते। भगवान श्री कृष्ण ने कहा कि यदि हम अपने जीवन में संन्यास की स्थिति में आ जाएं, तो हम बिना किसी द्वेष के जीवन जी सकते हैं और किसी भी परिस्थिति में शांति पा सकते हैं। जैसे अगर हम किसी सर्जरी के दौरान चाकू के घाव को स्वीकार कर सकते हैं, तो संसार के दुखों को भी स्वीकार करना हमारी शक्ति होनी चाहिए।
भगवान श्री कृष्ण ने यह भी बताया कि कर्म करने से कोई पाप नहीं लगेगा, अगर हम उसे भगवान को समर्पित कर दें। जैसे किसी व्यक्ति को अनजाने में पाप का स्पर्श हो जाता है, लेकिन अगर उसका मन पवित्र है, तो पाप उसके भीतर प्रवेश नहीं करेगा। गीता का यह संदेश हमें यह सिखाता है कि जीवन में कर्म करते हुए भी, यदि हम भगवान के प्रति अपने कर्मों को समर्पित करते हैं, तो हम मोक्ष की ओर बढ़ सकते हैं, न कि बंधन में फंसे रहेंगे।
भगवान श्री कृष्ण ने गीता में जिस प्रकार से कर्म और संन्यास का महत्व बताया है, वह हमें जीवन के हर पहलू में संतुलन और शांति प्राप्त करने की दिशा में मार्गदर्शन करता है।
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