पेशवा बाजीराव | एक भी युद्ध न हारने वाला योद्धा | 41 युद्ध, 0 हार! | Maratha History | Bharat Mata
आज से 300 साल पहले की बात है, जब मुगल साम्राज्य का सूर्य अस्त हो रहा था और एक नया सितारा भारत के आकाश में चमकने लगा था। ये बात है उस समय की, जब दिल्ली के मुगल बादशाह के दरबार में एक युवा योद्धा का नाम सुनाई देता था और सभी दरबारी घबरा जाते थे। ये वही योद्धा था जिसने अपने जीवन में 41 युद्ध लड़े और एक भी युद्ध नहीं हारा।
यह वही परमवीर था जो मात्र 20 साल की उम्र में दुनिया की सबसे शक्तिशाली सेना का नेतृत्व करने लगा था। आज हम बात करेंगे उस महान व्यक्ति की, जिसने अपने 20 साल के शासनकाल में पूरे भारत का नक्शा बदल दिया। जिसकी एक आवाज़ से हज़ारों योद्धा अपनी जान न्योछावर करने को तैयार हो जाते थे। आइए जानते हैं उस अपराजित योद्धा की कहानी, जिसका नाम था - पेशवा बाजीराव प्रथम।
पेशवा बाजीराव प्रथम का प्रारंभिक जीवन
18 अगस्त 1700 को जन्मे बाजीराव बल्लाल भट्ट के जीवन की शुरुआत एक साधारण परिवार से हुई। उनके पिता बालाजी विश्वनाथ मराठा साम्राज्य के पहले पेशवा थे। बचपन से ही 'राऊ' के नाम से प्रसिद्ध बाजीराव में कुछ खास बात थी। जब अन्य बच्चे खेल-कूद में व्यस्त थे, तब वे तलवारबाजी और घुड़सवारी सीख रहे थे। उन्होंने संस्कृत और मराठी का गहरा अध्ययन किया था। उनके पिता ने उनमें न केवल एक योद्धा के गुण डाले थे, बल्कि एक कुशल रणनीतिकार भी बनाया था। जब वे केवल 16 साल के थे, तब उन्होंने अपना पहला युद्ध जीता था। यह वह समय था जब मुगल साम्राज्य चरमराने लगा था और भारत में नई शक्तियां उभर रही थीं।
पेशवा की उपाधि और महान निर्णय
1720 में जब उनके पिता का देहांत हुआ, तो छत्रपति शाहू राजे भोंसले ने मात्र 20 साल के बाजीराव को पेशवा बनाया। यह एक ऐसा फैसला था जिसने भारत के इतिहास की दिशा बदल दी। पेशवा बनते ही बाजीराव ने अपनी पहली घोषणा की - "हिंदवी स्वराज्य का विस्तार करना हमारा लक्ष्य है।" उन्होंने पेशवा के पद को न केवल एक मंत्री का पद बनाया, बल्कि उसे राजा के बराबर का दर्जा दिया। वे पहले पेशवा थे जिन्होंने इस पद को वंशानुगत बनाया और भविष्य की पीढ़ियों के लिए एक मजबूत आधार तैयार किया।
बाजीराव की सफलता का रहस्य उनकी अनूठी सैन्य रणनीति में छुपा था। जब दुनिया भर की सेनाएं पैदल सैनिकों और हाथियों पर निर्भर थीं, तब बाजीराव ने घुड़सवार सेना की शक्ति पहचानी। उनकी रणनीति बेहद सरल लेकिन घातक थी। उनके प्रत्येक दो सवारों के पास तीन घोड़े होते थे। जब एक घोड़ा थक जाता था, तो दूसरे का इस्तेमाल करते थे। इससे उनकी सेना दिन में 40 मील तक की यात्रा कर सकती थी और दुश्मन को घेरने से पहले ही उनकी आपूर्ति लाइन काट देती थी। यह रणनीति इतनी प्रभावी थी कि दुश्मन को पता भी नहीं चलता था कि हमला कहां से आया। बाजीराव कहते थे - "सबसे पहले मारो, फिर सवाल पूछो।" यह उनकी युद्ध नीति का मूल सिद्धांत था।
28 फरवरी 1728 को पलखेड़ गांव में हुआ युद्ध बाजीराव की सैन्य प्रतिभा का सबसे बेहतरीन उदाहरण था। हैदराबाद का निज़ाम आसफ जाह एक विशाल सेना लेकर आया था। उसे लगता था कि यह युवा पेशवा उसके अनुभव के सामने टिक नहीं पाएगा। लेकिन बाजीराव ने उसे गलत साबित कर दिया। उन्होंने अपनी तेज़ घुड़सवार सेना से निज़ाम को घेर लिया और उसकी आपूर्ति लाइन काट दी। निज़ाम को समझ नहीं आया कि वह कैसे इतनी तेज़ी से घिर गया। अंततः उसे संधि करनी पड़ी और दक्कन में मराठों की सर्वोच्चता स्वीकार करनी पड़ी। यह जीत बाजीराव के लिए केवल एक युद्ध की जीत नहीं थी, बल्कि यह संदेश था कि अब मराठा शक्ति भारत की सबसे बड़ी शक्ति बन गई है।
लेकिन बाजीराव की सबसे बड़ी जीत 1737 में भोपाल में हुई। कल्पना कीजिए उस स्थिति की जब मुगल सम्राट मुहम्मद शाह, हैदराबाद का निज़ाम, राजपूताना के राजा और अवध का सुल्तान - सभी मिलकर 2 लाख की संयुक्त सेना लेकर आए थे। उनका लक्ष्य था बाजीराव की 70,000 की सेना को हमेशा के लिए खत्म कर देना। यह भारत के इतिहास में पहली बार हुआ था कि चार अलग-अलग शासकों ने मिलकर एक व्यक्ति के खिलाफ युद्ध की घोषणा की हो। लेकिन बाजीराव ने इसे अपने लिए अवसर बनाया। उन्होंने अपनी सेना को चार भागों में बांटा और दुश्मन की सेना को घेर लिया। फिर उन्होंने एक ऐसी रणनीति अपनाई जो युद्ध के इतिहास में अमर हो गई। उन्होंने दुश्मन के पानी के स्रोतों में जहर मिलवा दिया और उनकी खाद्य आपूर्ति बंद कर दी। कुछ ही दिनों में 2 लाख की सेना भूख और प्यास से बिलखने लगी। अंततः सभी शासकों को अपनी हार मानकर वापस जाना पड़ा। इस जीत के बाद बाजीराव का नाम पूरे भारत में गूंजने लगा।
1737 में बाजीराव ने सबसे साहसिक कार्य किया। उन्होंने दिल्ली पर आक्रमण किया। जब मुगल सम्राट मुहम्मद शाह को पता चला कि बाजीराव दिल्ली के बाहरी इलाकों में पहुंच गया है, तो वह घबरा गया। दिल्ली में हाहाकार मच गया। बाजीराव ने बिना किसी बड़े युद्ध के मुगल साम्राज्य की कमर तोड़ दी थी। उन्होंने साबित कर दिया कि अब मुगल शक्ति केवल दिल्ली की दीवारों तक सीमित रह गई है। यह अभियान इतिहास में इसलिए भी महत्वपूर्ण है क्योंकि इसके बाद मुगल साम्राज्य कभी भी अपनी पुरानी शक्ति वापस नहीं पा सका।
बुंदेलखंड के महाराजा छत्रसाल जब मुगलों से घिर गए, तो उन्होंने बाजीराव से सहायता मांगी। बाजीराव ने तुरंत अपनी सेना भेजी और छत्रसाल को बचाया। इस कार्य से न केवल छत्रसाल को स्वतंत्रता मिली, बल्कि उत्तर भारत में मराठों की स्थिति मजबूत हो गई। छत्रसाल ने आभार स्वरूप अपनी संपत्ति का एक तिहाई हिस्सा बाजीराव को दे दिया। इस घटना से पूरे भारत में यह संदेश गया कि जो भी न्याय और धर्म के लिए लड़ेगा, बाजीराव उसके साथ खड़ा रहेगा।
एक कुशल योद्धा और संस्कृति प्रेमी शासक
बाजीराव केवल एक योद्धा नहीं थे, बल्कि एक महान शासक भी थे। उन्होंने अपने 20 साल के शासनकाल में मराठा साम्राज्य का विस्तार गुजरात से लेकर राजस्थान तक और मध्य भारत से लेकर दक्कन तक किया। उनके शासनकाल में व्यापार फला-फूला, किसानों की स्थिति सुधरी और कला-संस्कृति को नया जीवन मिला। प्रसिद्ध संगीतकार बैजू बावरा को उनका संरक्षण प्राप्त था। उन्होंने शास्त्रीय संगीत और कला को बढ़ावा दिया। इससे पता चलता है कि वे न केवल एक योद्धा थे, बल्कि एक संस्कृति-प्रेमी व्यक्ति भी थे।
1740 में, दिल्ली के रास्ते में पुणे के पास रावेरखेड़ी में 28 अप्रैल को उनकी मृत्यु हो गई। वे मात्र 40 साल की उम्र में इस दुनिया से चले गए। लेकिन जो विरासत उन्होंने छोड़ी, वह आज भी हमारे दिलों में जीवित है।
बाजीराव की कहानी हमें यह सिखाती है कि उम्र केवल एक संख्या है। महत्वपूर्ण यह है कि आप अपने सपनों के लिए कितना जुनून रखते हैं। मात्र 20 साल की उम्र में सत्ता संभालने वाले बाजीराव ने साबित कर दिया कि यदि आप में दृढ़ संकल्प है, तो आप कोई भी लक्ष्य हासिल कर सकते हैं। उनकी कहानी आज के युवाओं के लिए प्रेरणास्रोत है।
आज जब हम बाजीराव की कहानी सुनते हैं, तो हमें एहसास होता है कि वे केवल एक योद्धा नहीं थे, बल्कि एक युग-निर्माता थे। उन्होंने न केवल भारत का नक्शा बदला, बल्कि भारतीयों के मन में यह विश्वास जगाया कि हम भी महान हो सकते हैं। पेशवा बाजीराव प्रथम का नाम आज भी उस व्यक्ति के लिए प्रेरणास्रोत है जो असंभव को संभव बनाना चाहता है। उनकी कहानी हमें सिखाती है कि सच्चा योद्धा वह नहीं होता जो केवल युद्ध जीतता है, बल्कि वह होता है जो अपनी मातृभूमि के लिए, अपनी संस्कृति के लिए और अपने सिद्धांतों के लिए लड़ता है। बाजीराव की यह गाथा हमें याद दिलाती है कि हर भारतीय के अंदर एक योद्धा छुपा है, बस उसे जगाने की जरूरत है।