80 घाव, बिना हाथ और आंख के बाबर से लड़ने वाला महान योद्धा राणा सांगा | मेवाड़ का इतिहास

भारतवर्ष में राजस्थान की धरा सदा से ही गौरवशाली, साहसी व देश प्रेम से ओत-प्रोत वीरों का एक अद्वितीय स्रोत रही है. आज तक मां भारती की कोख से कई योद्धाओं और महापुरुषों ने जन्म लिया है परन्तु आज हम बात करेंगे सिसोदिया वंश में जन्म लेने वाले एक ऐसे महान योद्धा और कुशल शासक की जिसने अपनी एक आँख, एक पैर और बांया हाथ खो देने के बाद भी कई बड़े युद्ध लड़े और विजय भी प्राप्त की।

सिसोदिया वंश के महान योद्धा

राणा सांगा का प्रारंभिक जीवन

14वीं शताब्दी में जन्म लेने वाले राणा सांगा मेवाड़ राजवंश के शासक महाराणा रायमल के पुत्र थे। जब वे युवावस्था को प्राप्त हुए तो अपने बड़े भाइयों कुँवर पृथ्वीराज और जयमल के साथ हुए एक संघर्ष में उनकी एक आँख चली गई और राणा सांगा ने वहाँ से निकलकर अजमेर के कर्मचन्द पवार के यहाँ शरण ली। राणा सांगा के दो बड़े भाइयों की हत्या कर दी गई जबकि उनके एक और बड़े भाई रायसिंह एक युद्ध में वीरगति को प्राप्त हुए, इसके पश्चात् राणा सांगा ही एकमात्र योग्य शासक बन सकते थे और इसलिए उनके पिता रायमल ने उन्हें अजमेर से अपने पास बुला लिया।

मेवाड़ का नेतृत्व

महाराणा रायमल की मृत्यु के पश्चात् वर्ष 1509 में राणा सांगा मेवाड़ के शासक बने। जब वे मेवाड़ के शासक बने तब मेवाड़ की सीमाएँ चारों ओर से मुग़ल शासकों से घिरी होने के कारण असुरक्षित थीं। अपनी सीमाओं को सुरक्षित करने के लिए राणा सांगा ने अन्य रियासतों और रजवाड़ों के साथ मित्रवत संबंध बनाए और अपने लिए खतरा बन सकने वाले मुग़ल राजाओं को जीतना प्रारंभ कर दिया।

अद्वितीय युद्ध कौशल

महमूद खिलजी और मुजफ्फर खान पर विजय

गुजरात के शासक मुजफ्फर खान और मालवा के महमूद खिलजी द्वितीय के साथ भी उनका युद्ध हुआ जिसमें राणा सांगा विजयी हुए। राणा सांगा ने ना केवल महमूद खिलजी द्वितीय को पराजित किया बल्कि उसे कई महीनों तक बंदी भी बनाए रखा और अपनी उदारता का परिचय देते हुए कुछ महीनों बाद उसे छोड़ दिया, राणा की उदारता से प्रसन्न होकर महमूद खिलजी द्वितीय ने राणा सांगा को कई बहुमूल्य वस्तुएं दी थीं। इसके पश्चात् राणा सांगा ने दिल्ली की ओर अपनी सीमाओं का विस्तार कार्य शुरू किया जिससे सिकंदर लोधी चिंतित हुआ परन्तु राणा सांगा से टक्कर लेने की उसका साहस नहीं हुआ और उसने राणा सांगा का विरोध भी नहीं किया।

इब्राहिम लोधी से संघर्ष

सिकंदर लोधी के बाद दिल्ली के सिंहासन पर बैठे इब्राहिम लोधी का राणा सांगा से पहला युद्ध सन 1517 में खतौली नामक जगह पर हुआ था, इस युद्ध में राणा का बाँया हाथ कट गया और उनके एक पैर में तीर भी लगा जिससे उनके पैर ने काम करना बंद कर दिया लेकिन राणा ने हार नहीं मानी और इस युद्ध को जीतकर इब्राहिम लोधी के बेटे को बंदी बना लिया, अपनी उदारता का परिचय देते हुए राणा ने कुछ महीने कैद में रखकर उसे भी छोड़ दिया। करारी हार के कारण इब्राहिम लोधी के मन में प्रतिशोध की ज्वाला धधक रही थी और अगले ही वर्ष यानि 1518 में उसने मिया माखन और मिया हुसैन के नेतृत्व में एक विशाल सेना को चित्तौड़ पर आक्रमण करने के लिए भेजा, जब राणा सांगा को इस बात का पता चला तो वो भी युद्ध के लिए तैयार हो गए और दोनों सेनाओं का बाड़ी में सामना हुआ जिसमे रजपूती सेना ने इब्राहिम लोधी के छक्के छुड़ा दिए और उन्हें उलटे पाँव भागने पर विवश कर दिया। दो बार परास्त होने के बाद इब्राहिम लोधी फिर कभी चित्तौड़ पर आक्रमण करने का साहस नहीं जुटा सका।

मुगल आक्रांता बाबर ने जब दिल्ली पर इब्राहिम लोधी की पकड़ कमजोर होते हुए देखी तो उसने दिल्ली पर आक्रमण कर इब्राहिम लोधी को मार दिया तथा दिल्ली में मुगलिया सत्ता की नींव रखी।

बाबर से ऐतिहासिक संघर्ष

खानवा का युद्ध

बाबर सम्पूर्ण भारत पर अपना एकछत्र राज स्थापित करना चाहता था लेकिन राणा सांगा के रहते यह असंभव था, और इसी कारण दोनों के बीच संघर्ष शुरू हुआ। बाबर की सेना ने जब भयाना को अपने अधिकार में लिया तब राणा सांगा अपनी सेना के साथ भयाना पहुँच गए और मुस्लिम सेना को वहाँ से खदेड़ दिय। जब युद्ध से भागे हुए मुस्लिम सैनिकों ने बाबर और उसकी सेना के सामने रजपूती सेना के शौर्य का बखान करना शुरू किया तो बाबर के सैनिकों का मनोबल टूट गया लेकिन धर्म और जिहाद का नारा देकर बाबर ने सैनिकों को युद्ध के लिए तैयार किया। खानवा के मैदान में एक बार फिर दोनों सेनाएँ एक दूसरे के सामने थीं, एक बार फिर राणा सांगा और उनकी सेना मुगल सेना पर हावी दिखने लगे लेकिन इस बार मुगल सेना बंदूकों और तोपों के साथ पूरी तैयारी से आई थी। युद्ध के दौरान राणा सांगा अचेत हो गए जिस कारण उन्हें युद्धभूमि से बाहर ले जाया गया, जब सेना में राणा के बेहोश होने का समाचार फैला तो सेना का मनोबल गिर गया और उनकी सेना में भगदड़ मच गई जिस कारण इस युद्ध का परिणाम उनकी आकांक्षाओं के अनुरूप नहीं रहा और 30 जनवरी 1528 को राणा सांगा ने अपने प्राण त्याग दिए। इस तरह शासन संभालने से लेकर अपने जीवन की अंतिम सांस तक राणा सांगा अपनी मातृभूमि की रक्षा करते रहे और उनका पूरा जीवन विदेशी शक्तियों से लोहा लेने में व्यतीत हुआ।

बाबरनामा में राणा सांगा का उल्लेख

राणा सांगा की वीरता से हैरान और प्रभावित होकर बाबर ने बाबरनामा में लिखा कि राणा सांगा अपनी तलवार और वीरता के दम पर बहुत अधिक शक्तिशाली हो गए थे, वास्तव में उनका राज्य चित्तौड़ था परन्तु अपनी वीरता व राष्ट्र प्रेम के साथ उन्होंने चित्तौड़ की सीमाओं के पार भी प्रत्येक भारतीय के हृदय में अपना स्थान बनाया. 

राणा सांगा की अन्य उपलब्धियाँ

राजपूत एकता

राणा सांगा की एक और उपलब्धि ये थी कि उन्होंने भयाना और खानवा के युद्ध में फिर से पाती परवन परंपरा की शुरुआत की और अपने नेतृत्व में सभी राजपूतों को एक छत्र के नीचे लाने में सफल रहे। भारत समन्वय परिवार की ओर से राणा सांगा को शत शत नमन। 

राणा सांगा का सम्पूर्ण जीवन मातृभूमि की रक्षा और विदेशी आक्रमणकारियों से संघर्ष में व्यतीत हुआ। उनकी वीरता सदैव प्रेरणास्रोत बनी रहेगी।

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