Bharat Ke Veer Putra Maharana Pratap | मेवाड़ मुकुट : महाराणा प्रताप का इतिहास | Bharat Mata

राणा प्रताप इस भरत भूमि के, मुक्ति मंत्र का गायक है।

राणा प्रताप आजादी का, अपराजित काल विधायक है।।

वह अजर अमरता का गौरव, वह मानवता का विजय तूर्य।

आदर्शों के दुर्गम पथ को, आलोकित करता हुआ सूर्य।।

राणा प्रताप की खुद्दारी, भारत माता की पूंजी है।

ये वो धरती है जहां कभी, चेतक की टापें गूंजी है।।

पत्थर-पत्थर में जागा था, विक्रमी तेज बलिदानी का।

जय एकलिंग का ज्वार जगा, जागा था खड्ग भवानी का।।

भारत भूमि के गौरवशाली इतिहास मे राजपुताने  का नाम अपनी वीरता, मातृ भूमि के लिये अगाध  स्नेह और देश के लिये अपने सर्वोच्च बलिदानों के सन्दर्भ मे सदा सदा के लिये अमर है। इस धरती को अपनी शूरवीरता , अदम्य  साहस और देश प्रेम से  गौरवान्वित करने वाले नामों मे बप्पा रावल, महाराणा सांगा, महाराणा कुम्भा, महाराणा हमीर और वीर शिरोमणि महाराणा प्रताप प्रमुख हैं।  महाराणा प्रताप न केवल एक शूरवीर योद्धा थे, वह एक प्रजाप्रिय कुशल  शासक, अमर बलिदानी और त्याग एवं देशप्रेम की ऐसी मिसाल थे, जिन्होंने अत्यन्त विषम परिस्थितियों मे भी कभी  मुग़लो की आधीनता एवं दासता को स्वीकार नहीं किया, तथा जीवन के अंतिम  पलों तक स्वाभिमान और मातृभूमि की रक्षा के लिये संघर्षरत रहे।  महाराणा प्रताप का जनम 9 मई 1540 ईस्वी को राजस्थान के कुंभलगढ़  दुर्ग में हुआ था। उनके पिता महाराजा उदयसिंह एवं माता राणी जयवंता कंवर थीं। वह महाराणा सांगा के  पौत्र थे।  महाराणा प्रताप का राज्यभिषेक गोकुन्दा में 1 मार्च 1576 को हुआ था | वह उदयपुर मेवाड़ मे सिसौदिया राज्यवंश के राजा थे।

महाराणा प्रताप के लिये यह सिंहासन और ताज काटों से भरा था, समय समय पर मुग़लो के आक्रमण और अनेक राजपूत राजाओं द्वारा अकबर की अधीनता स्वीकार करने से परिस्थितियों की  विषमता बढ़ रही थी किन्तु उन्होंने इन विषम  परिस्थितियों मे भी मातृभूमि की रक्षा का संकल्प लिया।  उनकी प्रतिज्ञा थी – “जब तक मै शत्रुओं से अपनी पावन मातृभूमि को मुक्त नहीं करा लेता तब तक न तो मैं महलों मे रहूंगा, न शैय्या पर सोऊंगा और  न सोने चांदी अथवा किसी धातु के पात्र मे  भोजन करूंगा।  वृक्षों की छांव ही मेरा महल, घास  ही मेरा बिछौना और पत्ते  ही मेरे भोजन करने के पात्र होंगे।“  इसी क्रम मे 18 जून 1576 को उनका युद्ध आक्रमण कारी मुग़लो से हुआ| यह युद्ध " इतिहास मे हल्दीघाटी के युद्ध "के नाम से जाना जाता है। इस युद्ध मे मुग़लो की 80000 की सेना का सामना महाराणा ने मात्र 20000 सैनिकों के साथ किया।  यह युद्ध मातृभूमि के लिये प्राणों की बलि देनेवाले वीर राजपूतों और मुग़ल आक्रांतों के मध्य था | चारों ओर से घिर जाने और उनके प्रिय चेतक के घायल होने के कारण महाराणा को उनके विश्वास पात्र  झाला सरदार ने युद्ध भूमि से जाने का आग्रह किया और अपने प्राणो की बलि दे दी। यद्यपि इस युद्ध के परिणाम महाराणा की आकांक्षाओं के अनुरूप नहीं थे फिर भी न तो उनका संकल्प  डिगा और न ही उनका संघर्ष रुका।    हल्दी घाटी के युद्ध मे महाराणा प्रताप के शौर्य के साथ उनके प्रिय घोड़े चेतक का नाम भी अमर हो गया , जिसने 26 फ़ीट चौड़ी नदी को अपनी घायल अवस्था मे पारकर अपने स्वामी के प्राणों की रक्षा की और प्राण त्याग दिये।  आज भी इस स्थान पर चेतक का स्मारक स्थित है।  चेतक के अतिरिक्त राणा को अत्यंत प्रिय एक बहादुर हाथी जिसका नाम रामप्रसाद था, उसने हल्दीघाटी के युद्ध मे 13 हाथियों को अकेले ही मार दिया था।  रामप्रसाद को मुग़लो ने सात हाथियों और 14 महावतों की सहायता से चक्रव्यूह बना कर बन्दी तो बना लिया परन्तु उसने शत्रु का खाना पानी स्वीकार नहीं किया और  18 दिन बाद प्राणो का त्याग किया।  इस हाथी का उल्लेख  बदायुनी ने अपने ग्रन्थ मे किया है।    बदायुनी  ने अकबर की ओर से हल्दीघाटी युद्ध मे भाग भी लिया था।  हल्दी घाटी के युद्ध के बाद अरावली की पर्वत श्रंखला और जंगलों  मे अति कष्ट कारक जीवन बिताते  हुऐ भी महाराणा ने मातृभूमि के प्रति अपनी निष्ठा को कम नहीं होने दिया और भामाशाह द्वारा मिली धन राशि से अपनी सेना का  पुनर्गठन  किया जिसमें राजपूत सैनिकों के अतिरिक्त कोल,   भील और संथालो को भी साथ लिया।  अरावली मे स्थित मनकियावस  के जंगलों मे उन्होंने दिवेर युद्ध की योजना बनाई।  यह युद्ध अकबर के लिये एक करारी हार सिद्ध हुआ और महाराणा ने मेवाड़ के एक बहुत बड़े भाग को मुग़लो से आज़ाद कराने मे सफलता प्राप्त की।  अंग्रेजी इतिहास कारों ने इस युद्ध को " बैटिल ऑफ़ दिवेर " की संज्ञा थी और महाराणा की वीरता और युद्ध कौशल की भूरी भूरी  प्रशंसा की।  19 जनवरी 1597 को शिकार करते समय अत्यधिक घायल हो जाने के बाद उन्होंने अपनी मातृभूमि और संसार से विदा ली।  ये सच है की ऐसे शूरवीर भगवान न होकर केवल एक इंसान थे , किन्तु ये भी सच है कि आज इनके] कारण ही हमारे भगवान मंदिरों मे है। 

महाराणा प्रताप न केवल इतिहास मे अमर रहेंगे बल्कि वह युगों तक हर राष्ट्र प्रेमी के ह्रदय मे एक प्रेरणा के रूप मे जींवत रहेंगे।  मेवाड़ की धरती को मुग़लो के आतंक से बचाने वाले ऐसे वीर सम्राट, शूरवीर राष्ट्र गौरव, पराक्रमी, साहसी राष्ट्र भक्त को शत शत नमन।  

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