भीष्म पितामह को किसके श्राप के कारण बाणों की शय्या पर सोना पड़ा ? | Story Of Bhishma Pitamah

संघर्ष, संकल्प और कर्तव्य को समर्पित एक ऐसा जीवन जो कुरुवंश की रक्षा के लिए सदा समर्पित रहा। एक ऐसी जीवनधारा जिसमें स्वयं के लिए शून्य के अतिरिक्त कुछ नहीं था और जिसने अपने  वर्तमान और भविष्य को निस्वार्थ भाव से तत्कालीन राजवंश को समर्पित करके अंततः शरशैय्या को स्वीकार कर लिया। इस महान व्यक्तिव का नाम देवव्रत था। महाभारत युद्ध के समय कौरवों और पांडवों में पितामह भीष्म ही सबसे ज्येष्ठ थे। देवव्रत का जन्म महाराज शांतनु और मां गंगा के मिलन से हुआ था, जिन्हें भीष्म पितामह के नाम से जाना गया। पौराणिक कथाओं के अनुसार पितामह भीष्म अपने पूर्व जन्म में द्यौ नामक वसु थे जिन्हें महर्षि वशिष्ठ के श्राप के कारण मनुष्य रूप में जन्म लेना पड़ा।  

एक बार महाराज शांतनु ने यमुना तट पर सत्यवती नामक एक अत्यंत सुंदर कन्या को देखा, उसे देखते ही वे उसपर मोहित हो गए। एक दिन महाराज शांतनु सत्यवती के पिता धीवर के पास सत्यवती के साथ अपने विवाह का प्रस्ताव लेकर पहुंचे। राजा का प्रस्ताव सुनकर धीवर ने उनके सामने शर्त रखी कि यदि आप सत्यवती के गर्भ से उत्पन्न पुत्र को अपना उत्तराधिकारी बनाने का वचन दें तो ही ये विवाह संभव है। धीवर के इस प्रस्ताव को सुनकर शांतनु उदास होकर वापस लौट गए। जब देवव्रत को इस बात का पता चला तो उन्होंने धीवर और सत्यवती को वचन दिया कि सत्यवती के गर्भ से उत्पन्न पुत्र ही हस्तिनापुर का उत्तराधिकारी होगा। इसके साथ ही उन्होंने आजीवन ब्रम्हचर्य का पालन करने की अखंड प्रतिज्ञा भी ले ली, और सत्यवती को अपने साथ ले गए। अपने प्रति अपने पुत्र के इस समर्पण भाव को देखकर शांतनु ने अत्यंत प्रसन्न होकर देवव्रत से कहा कि अपनी इस भीषण प्रतिज्ञा के कारण तुम भीष्म के नाम से जाने जाओगे, शांतनु ने उन्हें इच्छामृत्यु का वरदान भी दिया था। विचित्रवीर्य के राजा बनने के बाद काशी नरेश ने अपनी तीन पुत्रियों के विवाह के लिए स्वयंवर आयोजित किया जिसमें उन्होंने हस्तिनापुर राज्य को छोड़कर अन्य सभी राज्यों और देशों के राजा महारजाओं को आमंत्रित किया। हस्तिनापुर की उपेक्षा देखकर पितामह भीष्म क्रोधित हो गए और स्वयंवर के दौरान भरी सभा में उनकी तीनों पुत्रियों अम्बा, अंबिका और अंबालिका का विचित्रवीर्य से विवाह कराने के लिए उनका हरण कर लिया और हस्तिनापुर ले गए। अंबिका और अंबालिका का विवाह विचित्रवीर्य के साथ सम्पन्न हुआ लेकिन अम्बा शाल्वराज को अपना पति मान चुकी थी, इसलिए उसे छोड़ दिया गया। अम्बा ने भीष्म को श्राप दिया था कि मैं ही तेरे अंत का कारण बनूँगी चाहे इसके लिए मुझे कितने भी जन्म क्यों ना लेने पड़ें। महाभारत युद्ध में शिखंडी के रूप में जन्मी अम्बा की ओट से अर्जुन ने पितामह भीष्म पर बाणों की वर्षा कर उन्हें शरशैया पर लिटा दिया था। ऐसी मान्यता है कि पितामह भीष्म का युद्ध उनके गुरु भगवान परशुराम से भी हुआ था लेकिन दोनों के बीच 23 दिन तक चला यह युद्ध बिना किसी परिणाम के समाप्त हुआ। 

 

पितामह की छत्रछाया में हस्तिनापुर हर प्रकार से सुरक्षित और सुखमय था। परंतु अयोग्य होने के बाद भी दुर्योधन की राजा बनने की महत्वाकांक्षा और महाराज धृतराष्ट्र के पुत्र मोह के कारण हस्तिनापुर के भविष्य पर संकट के बादल मंडराने लगे। दुर्योधन ने द्यूत क्रीडा में पांडवों को छल से हराकर उनसे इंद्रप्रस्थ छीनने का षड्यन्त्र रचा। जैसा दुर्योधन चाहता था ठीक वैसा ही हुआ और उसने इंद्रप्रस्थ जीत लिया इसके बाद उसने पांचों पांडवों को दास बनाकर द्रौपदी को भी जीत लिया। इसके बाद वो पाप हुआ जिसकी कभी किसी ने कल्पना भी नहीं की होगी। वीरों से सुसज्जित कुरुवंश की भरी राजसभा में गुरु द्रोणाचार्य, कुलगुरु कृपाचार्य, महाराज धृतराष्ट्र और स्वयं पितामह भीष्म की उपस्थिति में द्रौपदी का चीरहरण हुआ लेकिन वे सभी वीर कायरों की भांति मौन होकर ये पाप होते हुए देखते रहे। यदि पितामह चाहते तो क्षण भर में इस पाप को होने से रोक सकते थे और पांडवों को उनका खोया हुआ साम्राज्य वापस दिला सकते थे लेकिन वे अपनी प्रतिज्ञा और राजसिंघासन के प्रति अपने दायित्व से बंधे थे। इसके परिणामस्वरूप महाभारत का जो भीषण युद्ध हुआ उससे सभी परिचित हैं। 

महाभारत के समर में भीष्म पितामह ने अपने बाहुबल से प्रतिदिन पांडवों के दस हजार सैनिकों का वध किया, पितामह भीष्म के शौर्य और रणकौशल का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि उन्होंने युद्ध में शस्त्र ना उठाने की प्रतिज्ञा करने वाले भगवान श्रीकृष्ण को भी अपनी प्रतिज्ञा तोड़कर शस्त्र उठाने पर विवश कर दिया था। जब तक पितामह भीष्म रणभूमि में थे युद्ध के नियमों का पूर्णतः पालन हुआ था। चूंकि पितामह भीष्म को इच्छामृत्यु का वरदान प्राप्त था इसलिए उन्हें जीत पाना किसी के लिए भी असंभव था। वो जानते थे कि जब तक वे जीवित हैं इस युद्ध में पांडवों की विजय नहीं हो सकती इसलिए उचित समय आने पर उन्होंने स्वयं पांडवों को अपनी मृत्यु का रहस्य बताया था। 18 दिनों तक हुए इस भीषण युद्ध में पितामह ने दस दिन तक भारी विध्वंस मचाया था और उसके बाद अर्जुन द्वारा चलाए गए तीरों से पूर्णतः बिंध जाने पर पितामह थोड़ा लड़खड़ाए और शरशैय्या पर गिर पड़े। 

एक दिन शरशैय्या पर लेटे हुए पितामह भीष्म ने श्रीकृष्ण से अपनी इस दशा का कारण पूछा तो श्रीकृष्ण ने बताया कि आज से 101 जन्म पहले आपने अनजाने में एक पक्षी को इस प्रकार फेंका कि वो सीधे बेरिया के पेड़ में जाकर गिरा जिससे उस पेड़ के कई कांटे उसके शरीर में धंस गए, वो पक्षी उन काँटों से निकलने की जितनी कोशिश करता उतना ही उनमें धँसता जाता जिससे उसको बहुत पीड़ा हुई और उसने तुम्हें श्राप दिया कि जिस प्रकार काँटों में धँसकर मैं अपने प्राण त्याग रहा हूँ उसी प्रकार तुम भी अपने प्राण त्यागोगे। उसका श्राप इस जन्म में फलित हुआ है जिस कारण आपको अपने जीवन के अंतिम क्षण शरशैय्या पर बिताने पड़ रहे हैं। पितामह भीष्म ने अपने प्राण त्यागने से पहले युधिष्ठिर को कई महत्वपूर्ण उपदेश दिए थे। शरशैय्या पर 58 दिन व्यतीत कर पितामह भीष्म सूर्य के उत्तरायण होने पर अपना शरीर त्याग परमधाम को चले गए। 

 

Bharat Mata परिवार की ओर से भीष्म पितामह के त्यागमय जीवन के संदेशों को शत शत नमन। उनके द्वारा प्रस्तुत किए गए जीवन आदर्श आज भी प्रासंगिक हैं।

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