Swami Vivekanand Jayanti | राष्ट्रीय युवा दिवस | LIFE OF SWAMI VIVEKANANDA | Bharat Mata
जब तभी भारत के सच्चे इतिहास का पता लगाया जाएगा तो यह संदेश प्रमाणित होगा कि धर्म के समान ही विज्ञान, संगीत, साहित्य, गणित तथा कला आदि में भी भारत समग्र संसार का आदिगुरु रहा है। यह शब्द स्वामी विवेकानंद के वर्षों के अध्ययन और सनातन संस्कृति की विराट भारत को विश्व गुरु के रूप में प्रतिष्ठित करने में उनके योगदान को राष्ट्र कभी विस्मृत नहीं कर सकेगा। उनकी अमर वाणी और अमर स्मृति प्रेरणा की धरोहर के रूप में अमरत्व की प्राप्ति है और यह हमारी गौरवशाली परंपरा की समृद्धि है। भगिनी निवेदिता ने कहा था कि वो एक संघनित भारत हैं कभी गुरुर। इंद्र नाथ टैगोर के शब्दों में यदि भारत को समझना है तो स्वामी विवेकानंद को पढ़ना और समझना होगा। स्वतंत्रता संग्राम के नायक सुभाष चंद्र बोस उन्हें अपना प्रेरणा स्त्रोत मानते थे। उनके गुरु परम पूज्य स्वामी रामकृष्ण परमहंस ने उन्हें सहस्त्रदल कमल की संज्ञा से विभूषित किया। स्वामी विवेकानंद का जन्म 12 जनवरी अट्ठारह सौ 63 को कोलकाता के संभ्रांत परिवार में हुआ था। उनके बचपन का नाम नरेंद्र नाथ था तथा उनके पिता श्री विश्वनाथ तख्त कोलकाता उच्च न्यायालय में प्रतिष्ठित वकील थे। उनकी माता एक धर्म परायण एवं विचारशील महिला की बालक नरेंद्र अपनी माता के धार्मिक विचारों और ईश्वरीय प्रेम से अत्यंत प्रभावित है। उन्हें बचपन से ही ईश्वर प्राप्ति की तीव्र इच्छा जागृत हो गई थी। भक्ति और ध्यान में उनकी गहरी अभिरुचि थी। बचपन के स्वप्न के प्रभाव से उन्होंने वैराग्य पूर्ण जीवन जीने का निश्चय कर लिया था। बालक नरेंद्र से। विवेकानंद तक की यात्रा के सभी आवश्यक गुण तो मानो उन्हें ईश्वरीय देन के रूप में बचपन में ही प्राप्त हो गए थे। स्वामी विवेकानंद के जीवन का बस एक लक्ष्य था। ईश्वर की प्राप्ति और इस परम सत्ता की निरंतर अनुभूति अपनी इस जगह से अवश्य ब्रह्म समाज के संपर्क में आए किंतु वहां वे संतुष्ट नहीं थे और इसी क्रम में उनकी भेंट।स्वामी रामकृष्ण परमहंस तय हुई यह पल था जिसने उनके जीवन की दशा और दिशा को पूर्ण रूप से भक्ति और मानव सेवा की ओर उन्मुख किया। परमहंस ने उन्हें बताया कि ना केवल ईश्वर से साक्षात्कार किया जा सकता है बल्कि उनसे सहायता से विचार-विमर्श भी किया जा सकता है। पिता की असमय मृत्यु के कारण निराश्रित परिवार की देखभाल से संबंधित संघर्ष भी उन्हें अपनी आध्यात्मिक यात्रा से विचलित नहीं कर सका। सन 18 सो 86 में रामकृष्ण परमहंस की मृत्यु के बाद आश्रम के सदस्यों की देखभाल और उचित शिक्षा का दायित्व भी स्वामी विवेकानंद पर आ गया, जिसे उन्होंने पूरी निष्ठा और गुरु आज्ञा के अनुरूप निभाया। विवेकानंद ने 5 वर्ष तक भारत भ्रमण किया। सबसे पहले विवरण दिया है और वहीं से उन्होंने अत्यंत कठिन परिस्थितियों में पूरे देश का भ्रमण किया। दक्षिण भारत में रामेश्वर में उनकी भेंट राजा रघुनाथ से हुई जिन्होंने उनको अमेरिका जाने के लिए प्रेरित किया और आर्थिक सहायता। सभी प्रधान कि अमेरिका के शिकागो शहर में वर्ड्स कोलंबियन एक प्रदर्शन का आयोजन का अवसर था और इसी उत्सव का हिस्सा था। विश्व धर्म संसद जिसमें विश्व के सभी धर्मों के प्रतिनिधियों को आमंत्रित किया गया था। इसकी उद्घाटन की तारीख थी। 11 सितंबर 1893 उत्सव कोलंबस द्वारा अमेरिका की खोज के 400 वर्ष पूर्ण होने के उल्लास में मनाया जा रहा था। स्वामी विवेकानंद विश्व धर्म संसद में भाग लेने के लिए लगभग 45 दिन पूर्व अमेरिका पहुंच गए थे। रंगभेद की पश्चिमी संस्कृति के कारण उन्हें उस समय पग पग पर अपमानित किया गया और यह प्रयास भी किया गया कि वह इस धर्म संसद में भाग न ले सकें, परंतु कंकर कंकर शंकर की भारत भूमि पर गया हुआ यह युवा संन्यासी विष पीकर भी अमृत बांटता रहा। अंतत 11 सितंबर का दिन भी आया और स्वामी विवेकानंद को अपने विचार रखने का अवसर मिला। उन्होंने अपने भाषण की शुरुआत इन 5 शब्दों से की सिस्टर एंड ब्रदर्स आफ अमेरिका।इन पांच शब्दों का प्रभाव यह हुआ कि हॉल में उपस्थित लगभग 7000 लोग खड़े होकर 3 मिनट तक मंत्र मुक्त अवस्था में ताली बजाते रहे। यह केवल शब्द नहीं थे। यह भारतीय संस्कृति का विजय उद्घोष था। उनकी वाणी में अपने अपमान से उपजा ना तो कोई प्रतिकार था और ना ही कोई वैमनस्य इन शब्दों के मूल में भारत का प्राचीनतम इतिहास और सनातन संस्कृति की झलक थी। स्वामी जी ने प्रथम भाषण के अगले चरण में कहा, “जिस प्यार और अपनेपन से आपने हमारा स्वागत किया, उसके लिए हृदय से आभार“. सभी धर्म प्रतिनिधियों ने केवल धर्म को और अपने सिद्धांतों को ना केवल सर्वश्रेष्ठ सिद्ध करने का प्रयास किया था, बल्कि अन्य धर्म और संस्कृतियों की आलोचना भी की थी। किन्तु स्वामी विवेकानन्द ने ऐसा नहीं किया। उन्होंने आगे कहा, “मुझे गर्व है की मै ऐसे धर्म का अनुयायी हूँ, जिसने विश्व को सहनशीलता और स्वीकार भाव सिखाया है”। युगों युगों तक उनको एक सफल मार्गदर्शक, एक कुशल वक्ता, एक विचारशील समाज सुधारक, और निःस्वार्थ भाव रखने वाले महापुरुष के रूप मे याद किया जाएगा। हमारी सांस्कृतिक विरासत इस आदर्श की साक्षी की भौगोलिक सीमाओं की जीत के लिए हमने कभी मर्यादाओं को हारने नहीं दिया।
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