भजन का क्या अर्थ है | अध्यात्म रामायण | Swami Satyamitranand ji Maharaj | Pravachan
भारत माता की इस आध्यात्मिक प्रस्तुति में पूज्य स्वामी सत्यमित्रानंद गिरी जी महाराज ने आध्यात्म रामायण का सार अत्यंत सरलता और प्रभावी ढंग से समझाया है।
ज्ञान की परिपक्वता और स्थितप्रज्ञता का भाव
वे कहते हैं कि जब कोई ज्ञानी अपनी पूर्ण स्थिति में होता है, तब इसका यह अर्थ नहीं कि उसे भोजन की आवश्यकता नहीं रहती या वह संसार में रहते हुए कभी उदास नहीं होता। ज्ञान की परिपक्वता का अर्थ है स्थितप्रज्ञता—एक ऐसी अवस्था जहाँ व्यक्ति परिस्थितियों में उलझे बिना भी जीवन के हर अनुभव से गुजरता है।
भजन का वास्तविक अर्थ
स्वामी जी ने 'भजन' का वास्तविक अर्थ स्पष्ट करते हुए कहा कि भजन केवल किसी गीत को गाने तक सीमित नहीं है। यह तो जीवन के प्रत्येक क्षण में ईश्वर की अनुभूति करना है। वे शास्त्रों से उद्धरण देते हैं—
शास्त्रीय उद्धरण
"पश्यन्, शृण्वन्, स्पृशन्, जिघ्रन्, अश्नन्, गच्छन्, स्वपन्, श्वसन्, प्रलपन्विसृजन् ग्रृह्णन्, उन्मिषन्निमिषन्नपि..."
उद्धरण का अर्थ
अर्थात्—देखना, सुनना, स्पर्श करना, सूँघना और स्वाद लेना ये पाँच ज्ञानेन्द्रियों की क्रियाएँ हैं। इसी प्रकार चलना, ग्रहण करना, बोलना और त्याग करना ये कर्मेन्द्रियों की क्रियाएँ हैं। जब कोई ज्ञानी इन सभी इंद्रिय-कर्मों को ईश्वर को समर्पित कर निष्काम भाव से करता है, तो वही सच्चा भजन बनता है।
भक्ति का आंतरिक स्वरूप
इस प्रकार स्वामी जी यह सिखाते हैं कि भक्ति कोई बाहरी प्रदर्शन नहीं, बल्कि आंतरिक साधना है, जहाँ हर क्रिया में प्रभु का स्मरण बना रहे।
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