धन्यवाद की परम्परा पार्वती जी ने किया प्रारम्भ | Swami Satyamitranand Ji Maharaj | Adhyatm Ramayana

भारत माता की इस प्रस्तुति में पूज्य स्वामी सत्यमित्रानंद गिरि जी महाराज कहते हैं कि आज पार्वती जी पुनः भगवान शंकर से चर्चा कर रही हैं और उस चर्चा में उनके मुख से बार-बार कृतज्ञता के शब्द निकलते हैं – धन्यास्म, अनुग्रहस्म, कृतार्थस्म जगत प्रभो!
वे कहती हैं कि मैं धन्य हूं, अनुग्रहित हूं, कृतार्थ हूं।

कृतज्ञता का भाव – भारतीय संस्कृति की आत्मा

महाराज इस प्रसंग को आधुनिक संदर्भ में जोड़ते हुए कहते हैं कि पश्चिमी देशों में धन्यवाद कहने की परंपरा है – पानी देने पर, रास्ता दिखाने पर, छोटी-छोटी बातों पर दिन में कई बार लोग कहते हैं। लेकिन वास्तव में यह भाव तो हमारी संस्कृति की आत्मा है, यह तो हमें पार्वती जी सिखा गईं हैं, जिनके वचनों में कृतज्ञता का सहज प्रस्फुटन है।

स्थायी सुख का वास्तविक स्रोत

स्वामी जी इस प्रसंग को गहराई से व्याख्यायित करते हुए कहते हैं कि संसार की कोई भी वस्तु स्थायी सुख नहीं दे सकती, क्योंकि प्रिय वस्तु भी समय आने पर भय का कारण बन जाती है। वहीं, परमात्मा का नाम, उसका यश, उसका ज्ञान – यह कभी दुख या भय नहीं देता, बल्कि आत्मा को स्थायी संतोष और शांति देता है। पार्वती जी भगवान शंकर को केवल पति नहीं, बल्कि परम गुरु के रूप में स्वीकार करती हैं और कहती हैं कि आपके अनुग्रह से मेरे भीतर जो संदेह की ग्रंथि थी, वह विच्छिन्न हो गई। यही ग्रंथि, यही भ्रम – जीव को ईश्वर से अलग अनुभव कराता है।

उपनिषदों की वाणी और संदेहों का अंत

महाराज कहते हैं कि यही तो उपनिषदों की वाणी है – विद्यते हृदयग्रंथिः, क्षीयन्ते सर्व संशयाः, जब ब्रह्म का साक्षात्कार होता है, तब हृदय की सारी गांठें टूट जाती हैं, संदेह समाप्त हो जाते हैं और आत्मा अपने स्वभाव को पहचान लेती है। वे बताते हैं कि संसार के संबंध स्वार्थ पर आधारित होते हैं, लेकिन परमात्मा का संबंध निःस्वार्थ है, अहेतुक है – जिसमें न कोई लालच है, न कोई अपेक्षा। इसी निःस्वार्थ संबंध से आत्मा का उत्थान होता है।

भारतीय संस्कृति का सार – कृतज्ञता

इसलिए, स्वामी जी कहते हैं कि यदि भारतीय संस्कृति को एक शब्द में परिभाषित किया जाए, तो वह है – कृतज्ञता। यह संस्कृति भोर से रात तक, हर स्थिति में भगवान के प्रति धन्यवाद की भावना रखती है।

प्रभु कृपा का अनुभव – वास्तविक धन्यता

“तेरा तुझको अर्पण, क्या लागे मेरा” – यही भाव जब जीवन में उतरता है, तब व्यक्ति वास्तव में धन्य और अनुग्रहित होता है। पार्वती जी की यह भावना, उनका यह अनुभव, हमें सिखाता है कि जीवन में सबसे बड़ी उपलब्धि है – संदेहों का समाप्त हो जाना और प्रभु कृपा का अनुभव होना। यही वास्तविक धन्यता है।

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